नई दिल्ली, स्कन्द विवेक धर। गुजरात के नवानगर (वर्तमान जामनगर) के महाराजा जाम साहब दिग्विजयसिंहजी रंजीतसिंहजी; भारत ने तो उन्हें भुला दिया, लेकिन पोलैंड ने उन्हें इतिहास के पन्नों से मिटने नहीं दिया। द्वितीय विश्व युद्ध के समय महाराजा ने सैकड़ों अनाथ पोलिश बच्चों को नवानगर में पनाह दी थी। उनकी याद में आज पोलैंड में एक स्कूल है। एक चौराहे का नाम उनके नाम पर है और उनकी प्रतिमा भी वहां मौजूद है। भारत में पोलैंड के वर्तमान राजदूत एडम बुराकोव्स्की इसी स्कूल के छात्र रहे हैं।

बुराकोव्स्की ने जागरण प्राइम से कहा, साल 1939 में पोलैंड पर जर्मनी और सोवियत संघ की सहयोगी सेनाओं ने आक्रमण किया था। पोलैंड का पूर्वी भाग सोवियत कब्जे में था। सोवियत संघ ने लाखों पोलैंडवासियों को साइबेरिया के मृत्यु शिविरों में भेज दिया। 1941 में, जब जर्मनी ने सोवियत संघ पर भी हमला कर दिया तब इन लोगों को साइबेरिया छोड़ने की अनुमति मिली।

बुराकोव्स्की कहते हैं, निर्वासित पोलिश सरकार ने इन शरणार्थियों के लिए कई आश्रयों का आयोजन किया। भारत में दो आश्रय थे। एक गुजरात के नवानगर (अब जामनगर) में, जहां एक हजार पोलिश बच्चे थे। दूसरा महाराष्ट्र के कोल्हापुर में जहां पांच हजार लोगों के लिए जगह थी। जामनगर और कोल्हापुर दोनों शाही परिवारों ने उन आश्रयों को चलाने में मदद की और उनकी देखभाल की।

इतिहासकारों के मुताबिक, सोवियत संघ ने 1941 में एक माफी की घोषणा की थी। इसके तहत, साइबेरिया में कैद एक हजार पोलिश बच्चों को डेथ कैंप से आजाद कर दिया गया था। लेकिन वे बच्चे युद्धग्रस्त पोलैंड नहीं जा सकते थे। आखिरकार नवानगर के महाराजा दिग्विजयसिंहजी रंजीतसिंहजी जडेजा ने इस मामले में दखल देने का फैसला किया। ब्रिटिश प्रशासन के प्रतिरोध के बावजूद, 'जाम साहब' डटे रहे। 1942 में उन्होंने पोलिश शरणार्थियों के जहाज को रोजी नामक बंदरगाह पर डॉक करने का आदेश दिया, जो उनके क्षेत्र में आता था। उन्होंने कुल 640 शरणार्थियों की मदद की, जिनमें महिलाएं और बच्चे दोनों शामिल थे।

बीते दिनों महाराज के सम्मान में आयोजित एक कार्यक्रम में शिरकत करते हुए बलाचडी शिविर में एक पोलिश शरणार्थी ने बताया था कि महाराजा ने यह सुनिश्चित किया कि पोलिश शरणार्थी वहां घर जैसा महसूस करें। उन्होंने यह भी सुनिश्चित किया कि उन्हें भोजन से लेकर बिस्तर तक आवश्यक चीजें उपलब्ध कराई जाएं।

पोलैंड सरकार के संस्कृति मंत्रालय और नेशनल हेरिटेज ऑफ दि रिपब्लिक ऑफ पोलैंड से वित्त पोषित और पोलैंड की सांस्कृतिक विरासतों का संरक्षण करने वाली संस्था कल्चर डॉट पीएल महाराजा के बारे में लिखती है, सोवियत संघ में बच्चों ने जिस नर्क का अनुभव किया था, उसकी तुलना में उनकी नई मंजिल स्वर्ग की तरह लग रही थी। महाराज ने नवागंतुकों का इन शब्दों के साथ स्वागत किया, 'अब आप अनाथ नहीं हैं। अब से आप नवानगरी हो, और मैं बापू, सभी नवानगरियों का पिता, इसलिए मैं तुम्हारा पिता भी हूं'।

महाराज ने बच्चों के लिए शयनगृह बनवाए, जिनमें प्रत्येक का एक अलग बिस्तर था। अपने गेस्ट हाउस में उन्होंने बच्चों के लिए स्कूल खोला। पोलिश पुस्तकों के साथ एक विशेष पुस्तकालय की स्थापना की गई ताकि वे अपनी मातृभाषा को न भूलें। वे अक्सर नाटकों का मंचन करते थे, जिनमें दिग्विजयसिंहजी हमेशा भाग लेते थे। बच्चों ने अपने प्रवास के दौरान फुटबॉल, वॉलीबॉल, ग्रास हॉकी भी खेली और कैंपिंग भी की। 1946 में जब युद्ध समाप्त हुआ और बच्चों को यूरोप लौटना पड़ा, तो बच्चे और महाराजा दोनों फूट कर रोए।

कल्चर डॉट पीएल लिखता है, दिग्विजयसिंहजी ने कभी अपनी इस मदद के लिए वित्तीय मुआवजे का अनुरोध नहीं किया। उनकी एकमात्र इच्छा, जिसका उन्होंने पोलिश जनरल व्लादिस्लॉ सिकोरस्की के साथ बातचीत के दौरान उल्लेख किया था, वह थी आजाद पोलैंड में उनके नाम पर एक सड़क बनाना। अफसोस की बात है कि उनका सपना उनके जीवनकाल में पूरा नहीं हुआ। साम्यवादी शासन लाल सेना के अत्याचारों को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं था।

हालांकि, 1989 में जब पोलैंड पूरी तरह से स्वतंत्र देश बन गया, तब महाराज का सपना पूरा हुआ। पोलैंड की राजधानी वारसॉ में एक चौराहे का नाम दिग्विजयसिंहजी के नाम पर रखा गया। 2012 में शहर के दक्षिण-पश्चिमी क्षेत्र ओचोटा में एक छोटे से पार्क का नाम “गुड महाराजा” रखा गया। यहां उन्हें समर्पित एक स्मारक भी बनाया गया। उन्हें मरणोपरांत पोलैंड के सर्वोच्च सम्मान कमांडर क्रॉस ऑफ द ऑर्डर ऑफ मेरिट दिया गया। उनके नाम पर वारसॉ में एक स्कूल भी बनाया गया है।

राजदूत एडम बुराकोव्स्की कहते हैं, पोलैंड-भारत संबंधों में महाराजा दिग्विजयसिंहजी की कहानी बहुत महत्वपूर्ण है। इसका उल्लेख हमेशा द्विपक्षीय बैठकों के दौरान किया जाता है। 2018 में जामनगर में और 2019 में हमने कोल्हापुर में एक कार्यक्रम का आयोजन भी किया था। इसमें शाही परिवारों के वंशजों ने शिरकत की थी। हमने 'महाराजा के बच्चों' को भी आमंत्रित किया, यानी वे लोग जिन्हें द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान भारत में आश्रय दिया गया था।

पोलिश राजदूत ने कहा, आजकल हम यूक्रेन के शरणार्थियों की त्रासदी का सामना कर रहे हैं। पोलैंड में यूक्रेन से लाखों की संख्या में शरणार्थी आए हैं। इनमें 6 हजार भारतीय छात्र भी थे, जो ऑपरेशन गंगा के दौरान पोलैंड के रास्ते भारत वापस आए थे। यह पोलिश-इंडियन सहयोग का एक उत्कृष्ट उदाहरण था। आजकल पोलैंड में टिप्पणीकार कहते हैं: हमारा देश एक "विशाल दयालु महाराजा" बन गया है। मेरा एक बहुत सरल संदेश है। लोगों के प्रति दयालु और मददगार बनें। ऐसा करने से हर कोई दयालु महाराजा बन सकता है!