दहेज जैसी कुप्रथा से दूर हैं थारू जनजाति के लोग
वर पक्ष विवाह का प्रस्ताव लेकर जाता है कन्या के घर, दूल्हा व दुल्हन के परिजन मिलकर उठाते हैं शादी का खर्च
श्रावस्ती (राजीव गुप्ता)। ये आदिवासी हैं, इसलिए नई-नई बुराइयों से दूर हैं। बात हो रही है थारू जनजाति की जहां दहेज जैसी कुप्रथा आज भी अपने पैर नहीं फैला सकी। यहां स्त्री को बराबरी ही नहीं, बल्कि पुरुष पर वरीयता दी जाती है। यह बात विवाह संस्कार पर भी लागू होती है। अपने रहन-सहन के लिहाज से थारू जनजाति को भले ही पिछड़ा माना जाता हो, लेकिन बुराइयों को नकारने में वह आगे हैं। इस जनजाति में आज भी दहेज लेने और देने का रिवाज नहीं है। थारुओं की परंपरा के अनुसार वर पक्ष कन्या के घर विवाह का प्रस्ताव लेकर जाता है।
भारत-नेपाल सीमा पर श्रावस्ती जिले (उत्तर प्रदेश) के सिरसिया विकास खंड क्षेत्र में रहने वाली थारू जनजाति के 15 गांव आबाद हैं। यहां करीब 12 हजार लोग रहते हैं। सभी अपनी पंरपराओं के प्रति बेहद सचेत हैं।
रिश्तों में आती प्रगाढ़ता : श्रावस्ती जिले की मोतीपुर कला ग्राम सभा के थारू समाज के पूर्व प्रधान चीपू राम बताते हैं कि हमारी बिरादरी में आज भी न तो दहेज लिया जाता है और न ही दिया जाता है। शादी का खर्च भी दोनों पक्ष मिलकर उठाते हैं। बिना दहेज और आपसी सहयोग से होने वाली शादी से दोनों परिवारों के बीच आत्मीयता अधिक प्रगाढ़ होती है।
थारू समाज की परंपरा के अनुसार, वर पक्ष के लोग विवाह का प्रस्ताव लेकर कन्या पक्ष के घर जाते हैं। शादी के लिए कन्या की राय जानी जाती है, यदि वह शादी के लिए सहमत होती है तो बात आगे बढ़ती है। वधू पक्ष इस शादी के लिए कुछ शर्तें रखता है, जिन्हें वर पक्ष को मानना पड़ता है। वर पक्ष द्वारा इन शर्तो को मानने पर शादी तय हो जाती है।
बचपतिया तय कराते शादी : शादी तय कराने की जिम्मेदारी बचपतियों (बिचौलिया) की होती है। जब वह शादी तय करवाता है, तो उसके सम्मान में खाने में विशेष रूप से चिकन बनाया जाता है। थारूओं के विवाह कार्यक्रम में मांसाहारी भोजन का विशेष आयोजन किया जाता है।
भर्रा कराते शादी की रस्म : थारू समाज में शादी एवं अन्य मांगलिक कार्यक्रमों की रस्मों को निभाने के लिए ब्राह्मण पुरोहितों की जरूरत नहीं होती। इस समाज के कुछ लोगों को भर्रा की उपाधि दी गई है। ये भर्रा ही विवाह, धार्मिक आयोजनों और कर्मकांडों की रस्म संपन्न कराते हैं।
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