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बुनियादी ढांचा विकसित करने के बावजूद सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था पर बढ़ रहा जनसंख्या का दबाव

उत्तर प्रदेश की जनसंख्या नीति का प्रारूप सामने आने के बाद से इस पर बहस छिड़ गई है। अनियंत्रित जनसंख्या वृद्धि एक समस्या है जिसके नियंत्रण की सख्त जरूरत है। हालांकि इस मसले पर सभी पक्ष एकमत हैं वैचारिक विरोध केवल इसके तरीकों पर है।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Published: Sat, 24 Jul 2021 09:16 AM (IST)Updated: Sat, 24 Jul 2021 09:16 AM (IST)
बुनियादी ढांचा विकसित करने के बावजूद सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था पर बढ़ रहा जनसंख्या का दबाव
व्यावहारिक तौर पर यह मसला संसाधनों पर बढ़ते जनभार से ही जुड़ा होना चाहिए।

अभिजीत। जनसंख्या नियंत्रण के संदर्भ में प्रभावी कानून बनाए जाने के लिए पिछले कुछ समय से देशभर में चर्चा तेज हो चुकी है। उत्तर प्रदेश ने इस दिशा में कदम आगे बढ़ा दिया है। हालांकि यह मसला अब सामाजिक समस्या से अधिक एक राजनीतिक समस्या के रूप में उभर चुका है, लेकिन हमारे सीमित संसाधनों पर पड़ने वाले इसके व्यावहारिक पक्ष को देखा जाना ज्यादा जरूरी है।

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दरअसल 18वीं सदी में ही प्रख्यात अर्थशास्त्री माल्थस ने जनसंख्या वृद्धि को संसाधनों और उनकी उपलब्धता से जोड़ कर देखते हुए इसे इंसान के लिए सर्वाधिक जरूरी खाद्य आपूíत के संदर्भ में जनसंख्या वृद्धि का पहला सिद्धांत प्रतिपादित किया। माल्थस का मानना था कि अगर हमारी जनसंख्या खाद्य आपूíत की उपलब्धता के अनुपात में तेजी से बढ़ती है और यदि इस पर नियंत्रण नहीं किया गया तो उपलब्ध खाद्य आपूíत व जनसंख्या के बीच असंतुलन पैदा होगा जिससे खाद्यान्न संकट की स्थिति उत्पन्न हो सकती है।

माल्थस का सिद्धांत कई दशकों तक प्रभावशाली रहा, लेकिन बाद में जब खाद्य उत्पादन को इंसान ने कई गुना बढ़ा लिया और पश्चिम में हुई औद्योगिक क्रांति ने अन्य संसाधनों की उपलब्धता को भी कई गुना बढ़ा दिया, तब माल्थस की बात थोड़ी कमजोर दिखने लगी। एक अन्य अर्थशास्त्री रिकाडरे ने जनसंख्या और श्रम को लेकर अपना सिद्धांत दिया। उनके अनुसार जनसंख्या में तेज वृद्धि वेतन का स्तर कम कर देगी और इससे लाभ व पूंजी दोनों के ही संचय पर अंकुश लग जाएगा, जिसका प्रभाव आíथक विकास पर पड़ेगा।

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद जनसंख्या नियंत्रण को लेकर चर्चाएं दो बड़े कारणों से आगे बढ़ी। पहला, दुनिया को माल्थस दोबारा याद आए जब तीसरी दुनिया के नए स्वतंत्र हुए गरीब और विकासशील देशों में जनसंख्या वृद्धि दर तेजी से बढ़ी और हालात ऐसे हो गए कि ये देश अपनी खाद्यान्न जरूरतों के लिए विकसित देशों पर निर्भर होने लगे। शीत युद्ध के उस दौर में खाद्यान्न एक कूटनीतिक और प्रभाव बढ़ाने का साधन बन गया। दोनों ही पक्षों ने अपने प्रभाव बढ़ाने के लिए नए स्वतंत्र देशों को खाद्यान्न आपूíत करना शुरू किया। अर्थशास्त्रियों ने इन परिस्थितियों को माल्थस के सिद्धांत से जोड़कर देखा और यह बात सामने आई कि अधिक जनसंख्या खाद्यान्नों की कमी का कारण बनेगी। इन बातों का प्रभाव यह हुआ कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जनसंख्या नियंत्रित करने के लिए नीतियां भी बननी शुरू हो गईं। दूसरा, पूर्वी एशिया के देशों ने इसी दौर में यह उदाहरण प्रस्तुत किया कि कैसे प्रजनन दर को कम करके बचत और निवेश को बढ़ावा दिया जा सकता है। इससे यह भी स्पष्ट हो गया कि छोटा परिवार अपने बच्चों को बेहतर विकास के अवसर प्रदान करने में अधिक सक्षम हो सकता है।

हालांकि बाद के समय में कुछ अर्थशास्त्रियों ने पूर्वी एशिया के विकास को प्रजनन नियंत्रण से नहीं, बल्कि जनसांख्यिकीय लाभांश से जोड़ते हुए उस समय की युवा आबादी को आíथक विकास का कारण माना। जनसांख्यिकीय लाभांश उस आíथक विकास को कहते हैं जो किसी भी देश में काम करने वाले आयु वर्ग के लोगों और उन पर आश्रित लोगों का अनुपात अधिक होने पर मिलता है। उस समय भारत में भी स्थिति और सोच विश्व के अन्य हिस्सों के जैसी ही थी। भारत में भी खाद्यान्न संकट था और हम भी अपने भोजन के लिए विदेशी मदद पर निर्भर थे। पिछली सदी के सातवें और आठवें दशक में भारत में भी जनसंख्या को नियंत्रित करने के प्रयास किए गए, लेकिन दुर्भाग्य से यह मसला राजनीतिक व धाíमक बन गया। वहीं लगभग इसी दौर में खेती के क्षेत्र में हुई हरित क्रांति ने देश में खाद्य सुरक्षा और खेती से होने वाले लाभ को बढ़ा दिया। खाद्य सुरक्षा ने आबादी को लेकर उपजी चिंता को दूर कर दिया और यह मसला चर्चा से बाहर हो गया।

यह सही है कि देश में अनाज की उपलब्धता पर्याप्त मात्र में होने लगी थी। किसानों को तात्कालिक तौर पर कुछ लाभ भी हो रहा था, मगर वहीं दूसरी ओर बढ़ते परिवारों के कारण प्रति परिवार खेतों के क्षेत्रफल में लगातार कमी आती गई। बढ़ी हुई उत्पादकता के बावजूद जोत का आकार कम होते जाने से अधिकांश परिवारों के लिए खेती से अपनी मूलभूत आवश्यकताओं की पूíत भी नहीं हो पा रही थी। रोजगार की तलाश में बड़ी संख्या में लोग शहरों की ओर पलायन कर गए।

यही सब कारण है कि आज शहरों और महानगरों में गांवों से बड़ी संख्या में लोग आकर बस चुके हैं। ऐसे में एक बड़ी आबादी के लिए शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार के अवसर जुटा पाना मुश्किल होता जा रहा है। भविष्य की बात करें तो स्थिति और भी चिंताजनक दिखाई देती है, क्योंकि जहां एक ओर आगामी 30 वर्षो में अगर किसी एक देश में सबसे ज्यादा जनसंख्या वृद्धि होगी तो वह देश भारत होगा। दूसरी तरफ पूरे विश्व में मशीनीकरण तेजी से हो रहा है जिससे रोजगार के अवसरों में व्यापक बदलाव देखने को मिलेंगे। आर्टििफशियल इंटेलिजेंस और रोबोटिक्स के तेजी से हो रहे विकास के कारण घटते रोजगार के अवसर और विनिर्माण का विकसित देशों की और लौटना भविष्य में रोजगार संकट उत्पन्न कर सकता है। यूरोप और अन्य विकसित देशों में घट रही जनसंख्या समेत कोरोना महामारी के कारण हुए अनेक बदलाव इस संकट को और गहरा कर सकते हैं।

जनसंख्या नियंत्रण की जरूरत को भारत के बहुसंख्यक लोगों ने गंभीरता से समझा है। सराहनीय यह है कि अब इसको लेकर एक राजनीतिक इच्छाशक्ति और दूरदर्शी कदम उठाने को लेकर प्रतिबद्धता भी दिख रही है तथा समाज भी इसके लिए तैयार है। जरूरत है कि हम जनसंख्या को राजनीतिक चश्मे से न देखते हुए भूलों को सुधारने में लगें तो यह देश के एक बेहतर भविष्य के लिए महत्वपूर्ण कदम होगा।

[शोधार्थी, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय]


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