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आपकी बारात की रौनक बढ़ा रहा है इसकी चकाचौंध में पिसता बचपन, कुछ तो शर्म करो!

शादियों का सीजन शुरू होने के साथ ही हर जगह बारात का शोर सुनाई देने लगा है। लेकिन इस शोर में कुछ चेहरों की खामोशी और उनकी हसरतें दबी हुई दिखाई देती हैं।

By Kamal VermaEdited By: Published: Sun, 24 Nov 2019 04:44 PM (IST)Updated: Mon, 25 Nov 2019 09:35 AM (IST)
आपकी बारात की रौनक बढ़ा रहा है इसकी चकाचौंध में पिसता बचपन, कुछ तो शर्म करो!
आपकी बारात की रौनक बढ़ा रहा है इसकी चकाचौंध में पिसता बचपन, कुछ तो शर्म करो!

नई दिल्‍ली [जागरण स्‍पेशल]। शादियों का सीजन शुरू हो चुका है। आपने भीकई बारात अटेंड की होंगी। दूसरों की तरह आप भी इसमें नाचे होंगे, पैसे लुटाए होंगे,खाया-पिया और फिर घर वापस आ गएहोंगे। लेकिन क्‍या कभी आपने सोचा है कि जिस बारात में आप शिरकत करके वापस आए हैं उसकी रौनक को चार चांद लगाने में किन लोगों का हाथ रहा है। आपने और हमनें उन लोगों के पास जाकर कभी उनसे दो घड़ी ये जानने की कोशिश तक नहीं की है कि वो कहां से आए हैं, कितने पैसे उन्‍हें इस काम के मिलते हैं।

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दरबान भी घुसने से कर देता है मना  

यह वो लोग हैं जिन्‍हें पंडाल के गेट पर खड़ा दरबान अंदर घुसने से भी रोक देता है। इनमें घोड़ा गाड़ी वाला,  बारात को चकाचौंध करने के लिए लाइट्स सिर या कंधों पर उठाने वाले लोग शामिल होते हैं। कुछ साल पहले तो फिर भी इन लोगों को पंडाल में खाना खाने दिया जाता था, लेकिन अब हमारे दिलों के दायरे और खर्च का बिल इतना बढ़ गया है कि इनको खाना खिलाना हम अपनी तौ‍हीन समझने लगे हैं।

रात में पैदल ही पूरा होता सफर

ऐसे शादियों के सीजन में अकसर देर रात सड़कों पर जाते हुए आपने भी बग्‍गी या घोड़ी वाले और इन लाइट वालों को सड़कों पर पैदल जाते देखा होगा, लेकिन हर बार की तरह आप गाड़ी का हॉर्न बजाते हुए आगे निकल गए होंगे। अरे भई, गुस्‍सा न हों! ऐसा करने वालों में आप ही नहीं हम सभी शामिल हैं। दरअसल, हमलोगों की इंसानियत अब खत्‍म हो चुकी है, और झूठा गुरूर हमपर हावी होने लगा है। इसी वजह से हमें इन बातों से कोई फर्क ही नहीं पड़ता। मैं खुद भी आपसे अलग नहीं हूं।

शर्म तो आनी तय है

बीती रात जिस शादी में मैं गया उसके बाद अपने ऊपर शर्म आनी लाजिमी था। दरअसल, जिस शादी में मैं शरीक हुआ उसमें करीब-करीब 30-40 लोग वो थे जो इस बारात की चकाचौंध बढ़ाने में लगे थे। इनमें से कुछ कम उम्र के भी थे। बे-साइज के चमकीले कपड़े और सिर पर बेतरतीब लगी पगडि़यां उनकी कहानी बयां कर रही थीं। इनमें तीन ऐसे थे जिनसे मैं बात कर पाया। इनमें से राजू बांदा से, मगनलाल गाजियाबाद के पास किसी गांव से तो राजकिशोर हापुड़ से था। ये लोग कुछ समय से इसी काम में लगे हैं। अलग-अलग बैंड वालों से इनका कहें तो टाइअपहै। वजह बेहद साफ है हर रात काम मिल जाएगा तभी हाथों में कुछ रुपये भी आ सकेंगे।

रोजी की तलाश में आया राजू

राजकिशोर के पापा रिक्‍शा चलाते हैं और मगनलाल के पिता हैं नहीं, राजू बांदा से किसी जानकार के साथ चला आया था। वहां न खेती है और न ही मजदूरी करने भर का कोई काम। लेकिन परिवार में मां-बाप और दो भाइयों के साथ एक बहन भी है। वह तीसरे नंबर का है। दोनों भाइयों की शादी हो गई है बहन की करनी है, सो यहां पर 150 रुपये के लिए वजन सिर पर उठाने से परहेज नहीं करता है। राजकिशोर को पता है कि पंडाल में कोई घुसने नहीं देगा तो जाहिर है खाना भी नहीं मिलेगा। इसलिए अपने साथ थोड़े से मुरमुरे और प्‍याज रख ली है। इन्‍हें खाकर पानी पी लेने से भूख से जरूर राहत मिल जाएगी।

दुकान के बाहर ही कटती है रात

अपने घर पैदल जाना रात में मुनासिब नहीं है इसलिए वापसी में लाइट बैंड वाले के पास छोड़ वहीं दुकान के बाहर सोकर रात गुजारना उसकी आदत में शुमार हो गया है। पांचवी में था जब उसके पिता की मौत हो गई थी। उसकी मां इधर-उधर घरों में सफाई करती है। परिवार में सभी को मिलाकर पांच लोग हैं। सभी इसी तरह के अलग-अलग काम से जुड़े हैं। गांव में तो मजदूरी भी नहीं मिलती है इसलिए घर से बाहर निकलना उसके लिए जरूरी है। हर सुबह वह घर वापस चला जाता है। फिर रात को काम मिला तो वही सिलसिला शुरू हो जाताहै।

कुछ तो मिल ही जाता है

मगन के घर में मां-बाप और एक बहन है। बहन मां के साथ दूसरों के घरोंमें सफाई का काम करती है। पिता किराए पर रिक्‍शा लेकर उसको दिनभर ढकेलते हैं। कभी 200 तो कभी 300 रुपये बन जाते हैं। हालांकि राजकिशोर को देर रात भी घर जाने के लिए कोई न कोई सवारी मिल ही जाती है। लेकिन घर पहुंचते पहुंचते रात के दो तक बज जातेहैं। इस बीच कहीं खाना खा लिया तो ठीक नहीं तो जय राम जी की। ये तीनों ज्‍यादा सेआठवीं तक पढ़ें हैं।  

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