आरक्षण की नई बहस से बच रहे राजनीतिक दल, सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर केवल जदयू का खुला स्वागत
राष्ट्रीय दलों के लिए हमेशा उन्हीं राज्यों में परेशानी खड़ी होती है जहां जाति और वर्ग आधारित क्षेत्रीय दल मजबूत होते हैं।
आशुतोष झा, नई दिल्ली। आरक्षण को लेकर सुप्रीम कोर्ट का नया फैसला यूं तो बाध्यकारी नहीं है क्योंकि अभी सात जजों की बेंच इस पर सुनवाई करेगी। फैसला बदल भी सकता है और बहाल भी हो सकता है। लेकिन आज की स्थिति में इसने राजनीतिक दलों की धड़कनें जरूर बढ़ा दी हैं। दरअसल कोटा के अंदर कोटा की वकालत और उसी बहाने एससी एसटी वर्ग में भी क्रीमी लेयर की चर्चा किसी भी राजनीतिक दल और खासकर उन क्षेत्रीय दलों को रास नहीं आती है जो जातिगत और वर्ग आधारित हैं। उन क्षेत्रीय दलों को भी नहीं जो सामाजिक न्याय की बात करते हैं। राष्ट्रीय दलों के लिए भी यह हाथ जलाने जैसी ही स्थिति होती है लेकिन फिर भी उन्हें इसका कुछ लाभ मिल सकता है। फिलहाल केवल जनता दल यू ही इस फैसले पर खुलकर बोल भी रहा है और स्वागत भी कर रहा है। बिहार के मंत्री संजय झा ने कहा कि बिहार में नीतीश कुमार ने यह किया है और जनता को इसका लाभ मिला है।
दरअसल आरक्षण की चर्चा हमेशा तीन स्तर पर होती रही है- दलित और जनजाति जिसमें कोई बंटवारा नहीं है। दूसरा ओबीसी जिसमें क्रीमी लेयर की व्यवस्था है और बार बार उसका दायरा बढ़ाने का दबाव होता है। तीसरे वर्ग में महिला आती है जिसके लिए संसद और विधानसभाओं में आरक्षण की बात लंबे अरसे से होती रही है लेकिन कभी परवान नहीं चढ़ी।
पांच जजों का फैसला सामाजिक न्याय का अगला चरण
अगर राजनीति से परे हटकर देखा जाए तो सुप्रीम कोर्ट के पांच जजों का फैसला सामाजिक न्याय का अगला चरण है। बिहार मे नीतीश कुमार सरकार ने हिम्मत दिखाई थी और महादलित का घटक तैयार कर सफल राजनीति का नमूना पेश किया था। यही कोशिश 2001 में उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री राजनाथ सिंह ने की थी। हुकुम सिंह की अध्यक्षता में गठित आयोग ने रिपोर्ट दिया था और उसके आधार पर अतिदलित और अति पिछड़ा वर्ग बनाने की कोशिश की थी लेकिन सरकार बदल गई और वह क्रियान्वित नहीं हो पाया। सूत्रों का कहना है कि केंद्र सरकार के स्तर से भी एक रिपोर्ट तैयार हुई है और उस पर राज्यों से राय भी मांगी गई है। लेकिन इसकी पुष्टि नहीं है।
दरअसल राष्ट्रीय दलों के लिए हमेशा उन्हीं राज्यों में परेशानी खड़ी होती है जहां जाति और वर्ग आधारित क्षेत्रीय दल मजबूत होते हैं। या तो नेतृत्व संबंधित राज्य की मजबूत जाति से होता है या फिर कास्ट न्यूट्रल जाति के नेता का वहां के मजबूत जाति वर्ग पर प्रभाव होता है। राष्ट्रीय दलों के लिए यही परेशानी का सबब होता है। और ऐसे में कोटा के अंदर कोटा के अंदर कोटा की व्यवस्था जातिवादी वर्गवादी क्षेत्रीय दल का आधार हिला सकता है।
जातिवादी नेतृत्व की आ सकती है बाढ़
लेकिन इसका एक दूसरा पक्ष भी है जो राष्ट्रीय दलो के लिए ठीक नहीं। दरअसल इसके बाद मूल रूप से जातिवादी नेतृत्व की बाढ़ सी आ सकती है जिसके कारण वोटों का बिखराव बहुत तेज हो सकता है। फिलहाल देश में दलितों में लगभग 1200 जातियां है और अनुसूचित जनजाति मे लगभग 400। इस फैसले की राजनीतिक संवेदनशीलता को देखते हुए ही सभी दल चुप्पी साधे बैठे हैं। फिलहाल विरोध किया नहीं जा सकता है लेकिन यह तय है कि अगर यह फैसला लागू हुआ तो कई दल खुलकर मैदान मे आ सकते हैं। जबकि राष्ट्रीय दल इसमें अवसर तलाश सकते हैं। ध्यान रहे कि केंद्र सरकार ने ओबीसी में वर्गीकरण को लेकर पहले ही आयोग का गठन कर दिया है। वहां भी राजनीतिक दलों का विरोध दिखा था।
बहरहाल, अक्सर महिला आरक्षण का पासा फेकते रहे कांग्रेस और भाजपा को लिए इस मुद्दे पर कोटा के अंदर कोटा शायद नहीं भाए। यूं तो क्षेत्रीय दल महिला आरक्षण के खिलाफ ही हैं लेकिन एक मौका ऐसा भी आया था जब कुछ दलों की ओर से कोटा के अंदर कोटा यानी महिलाओं में भी कुछ हिस्सा एससी एसटी के लिए आरक्षित करने की मांग उठी थी। यह देखना रोचक होगा कि कोटा के अंदर कोटा का फैसला आगामी चुनावों से पहले किस रूप में दिखता है।.कौन झंडा उठाता है और कौन छुपता है।