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'भेदभाव करता है पूजा स्थल कानून, केन्द्र को यह कानून बनाने का अधिकार नहीं'

याचिका में कहा गया है कि केन्द्र ने 11 जुलाई 1991 को इस कानून को लागू किया जिसमें मनमाने और अतार्किक ढंग से पूर्ववर्ती तिथि से कटआफ डेट तय करते हुए घोषित कर दिया कि पूजा स्थलों और तीर्थस्थलों की जो स्थिति 15 अगस्त 1947 को थी वही रहेगी।

By Tilak RajEdited By: Published: Sat, 31 Oct 2020 12:19 PM (IST)Updated: Sat, 31 Oct 2020 12:19 PM (IST)
'भेदभाव करता है पूजा स्थल कानून, केन्द्र को यह कानून बनाने का अधिकार नहीं'
अनुच्छेद 26 में मिले धार्मिक स्थलों के प्रबंधन के अधिकार को बाधित करता है

नई दिल्ली, माला दीक्षित। पूजा स्थल (विशेष प्रावधान) कानून 1991 को भेदभाव और मौलिक अधिकारों का उल्लंघन बताते हुए सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई है। एक जनहित याचिका में कानून की धारा 2,3,4 को संविधान का उल्लंघन बताते हुए रद करने की मांग की गई है। कहा गया है कि इस कानून में अयोध्या में राम जन्मस्थान को छोड़ दिया गया, जबकि मथुरा में कृष्ण जन्मस्थान को नहीं छोड़ा गया, ये दोनों विष्णु का अवतार हैं। यह भी कहा गया है कि केन्द्र सरकार को यह कानून बनाने का अधिकार नहीं है, क्योंकि संविधान मे तीर्थस्थल राज्य का विषय है। इतना ही नहीं, पब्लिक आर्डर भी राज्य का विषय है, इसलिए केन्द्र ने इस पर कानून बनाकर क्षेत्राधिकार का अतिक्रमण किया है।

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रद हों पूजा स्‍थल कानून की ये धाराएं

सुप्रीम कोर्ट में यह याचिका वकील और भाजपा नेता अश्वनी उपाध्याय ने दाखिल की है। उपाध्याय ने याचिका में कहा है कि सुप्रीम कोर्ट एतिहासिक तथ्यों, अंतर्राष्ट्रीय संधियों, कानूनी प्रावधानों तथा हिन्दू, जैन बौद्ध व सिखों के अधिकारों को संरक्षित करते हुए उनके धार्मिक स्थलों को पुर्नस्थापित करे। मांग है कि कोर्ट पूजा स्थल कानून की धारा 2,3 व 4 को संविधान के अनुच्छेद 14,15,21,25,26 और 29 का उल्लंघन घोषित करते हुए रद करे, क्योंकि इन प्रावधानों में क्रूर आक्रमणकारियों द्वारा गैरकानूनी रूप स्थापित किये गये पूजा स्थलों को कानूनी मान्यता दी गई है।

केन्द्र को ये कानून बनाने का अधिकार नहीं

याचिका में कहा गया है कि केन्द्र ने 11 जुलाई 1991 को इस कानून को लागू किया, जिसमें मनमाने और अतार्किक ढंग से पूर्ववर्ती तिथि से कटआफ डेट तय करते हुए घोषित कर दिया कि पूजा स्थलों और तीर्थस्थलों की जो स्थिति 15 अगस्त 1947 को थी वही रहेगी। याचिकाकर्ता का कहना है कि केन्द्र न तो कानून को पूर्व तिथि से लागू कर सकता है और न ही लोगों को ज्युडिशियल रेमेडी से वंचित कर सकता है। केन्द्र लोगों के लिए कोर्ट के दरवाजे नहीं बंद कर सकता। कहा गया है कि तीर्थस्थल राज्य का विषय है। यह संविधान की सातवीं अनुसूची की दूसरी सूची का विषय है। इसलिए केन्द्र को ये कानून बनाने का अधिकार नहीं है। केन्द्र ने क्षेत्राधिकार का अतिक्रमण किया है। याचिकाकर्ता का कहना है कि सुप्रीम कोर्ट ने 9 नवंबर 2019 को अयोध्या विवाद में फैसला सुनाया। कोर्ट ने हिन्दुओं के दावे में सार पाया। अगर अयोध्या का फैसला नहीं आता, तो हिन्दुओं को न्याय नहीं मिलता। इसलिए कानून में कोर्ट जाने से प्रतिबंधित करना गलत और कानून के शासन के सिद्धांत के खिलाफ है।

इसलिए असंवैधानिक है कानून

1- याचिका में कहा गया कि यह कानून अनुच्छेद 25 के तहत हिन्दू, जैन, बौद्ध और सिखों को धर्म के पालन और उसके प्रचार के मिले अधिकार को बाधित करता है।

2- अनुच्छेद 26 में मिले धार्मिक स्थलों के प्रबंधन के अधिकार को बाधित करता है।

3- यह कानून हिन्दू, जैन, बौद्ध और सिखों को भगवान की संपत्ति और धार्मिक संपत्ति को रखने के अधिकार को बाधित करता है।

4 - अदालत के जरिये अपने धार्मिक स्थलों और तीर्थों को वापस पाने के अधिकार से वंचित करता है।

5- यह कानून हिन्दू, सिख, बौद्ध और जैन को अपने पूजा स्थलों और तीर्थों का कब्जा वापस पाने से वंचित करता है, जबकि मुसलमानों को वक्फ कानून की धारा 7 के तहत ऐसा अधिकार देता है।

6- यह कानून आक्रमणकारियों के कामों को कानूनी मान्यता देता है।

7- हिन्दू ला के सिद्धांत कि मंदिर की संपत्ति कभी समाप्त नहीं होती चाहे बाहरी व्यक्ति वर्षों उसका उपयोग क्यों न करता रहा हो, भगवान न्यायिक व्यक्ति होते है, का उल्लंघन करता है।


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