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अनुच्छेद 370 को चुनौती देने वाली याचिका सुप्रीम कोर्ट में दायर

अपनी जनहित याचिका में वकील उपाध्याय ने सुप्रीम कोर्ट से मांग की है कि वह जम्मू-कश्मीर के अलग संविधान को मनमाना और असंवैधानिक घोषित करे।

By Ravindra Pratap SingEdited By: Published: Fri, 21 Sep 2018 10:13 PM (IST)Updated: Fri, 21 Sep 2018 10:13 PM (IST)
अनुच्छेद 370 को चुनौती देने वाली याचिका सुप्रीम कोर्ट में दायर
अनुच्छेद 370 को चुनौती देने वाली याचिका सुप्रीम कोर्ट में दायर

नई दिल्ली, प्रेट्र। जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा प्रदान करने वाले संविधान के अनुच्छेद 370 की वैधानिकता को चुनौती देने के लिए सुपीम कोर्ट में एक जनहित याचिका (पीआइएल) दायर की गई है। भाजपा नेता व वकील अश्विनी उपाध्याय ने यह याचिका दाखिल की है। इसमें कहा गया है कि संविधान के निर्माण के समय यह विशेष प्रावधान अस्थायी प्रकृति का था और अनुच्छेद 370(3) तो 26 जनवरी, 1957 को जम्मू एवं कश्मीर संविधान सभा भंग होने के साथ ही खत्म हो गई।

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अपनी जनहित याचिका में वकील उपाध्याय ने सुप्रीम कोर्ट से मांग की है कि वह जम्मू-कश्मीर के अलग संविधान को मनमाना और असंवैधानिक घोषित करे। क्योंकि यह भारतीय संविधान की श्रेष्ठता के खिलाफ है। यह एक राष्ट्र, एक संविधान, एक राष्ट्रीय गान एवं एक राष्ट्रीय ध्वज की अवधारणा के भी विरूद्ध है। उनका तर्क है, 'जम्मू-कश्मीर का संविधान इस कारण भी मुख्यतया अवैध है क्योंकि इसे अभी तक राष्ट्रपति की स्वीकृति नहीं मिली है। भारतीय संविधान के तहत राष्ट्रपति की मंजूरी जरूरी है।' उपाध्याय की जनहित याचिका पर अगले हफ्ते सुनवाई होने की उम्मीद है।

वकील आरडी उपाध्याय के जरिये दाखिल जनहित याचिका में अश्विनी उपाध्याय ने दावा किया है कि अनुच्छेद 370 की वैध रहने की अधिकतम मियाद केवल संविधान सभा के अस्तित्व में रहने तक ही थी, जो कि 26 जनवरी, 1950 थी। इस दिन भारतीय संविधान को स्वीकार किया गया था। याचिका में उन्होंने आगे कहा कि जम्मू-कश्मीर के संदर्भ में अनुच्छेद 370 एक अस्थायी प्रावधान है।

यह अनुच्छेद केंद्रीय व समवर्ती सूचियों में शामिल विषयों पर कानून बनाने के संसद के अधिकारों में कटौती कर कई संवैधानिक प्रावधानों को राज्य में लागू होने से रोकता है। इसके परिणामस्वरूप जम्मू-कश्मीर राज्य अपने स्थायी नागरिकों को विशेष अधिकार व सुविधाएं प्रदान करता है। उपाध्याय ने कहा कि इस अनुच्छेद के तहत प्रदत्त शक्तियों के चलते राज्य विधान सभा ऐसे कानून बनाने की अधिकारी है, जिसे समानता के अधिकार व अन्य संवैधानिक अधिकारों के उल्लंघन के आधार पर चुनौती नहीं दिया जा सकती है।


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