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मुस्लिमों को बहुविवाह की इजाजत देने वाले कानून को चुनौती, सुप्रीम कोर्ट में दाखिल हुई याचिका

कहा गया है कि सुप्रीम कोर्ट बहुविवाह को अतार्किक महिलाओं के साथ भेदभाव पूर्ण और अनुच्छेद 14 तथा 15(1) का उल्लंघन घोषित करे। याचिका में कहा गया है कि धर्म के आधार पर दंड के प्रावधान भिन्न नहीं हो सकते।

By Dhyanendra SinghEdited By: Published: Fri, 04 Dec 2020 08:45 PM (IST)Updated: Sat, 05 Dec 2020 07:25 AM (IST)
मुस्लिमों को बहुविवाह की इजाजत देने वाले कानून को चुनौती, सुप्रीम कोर्ट में दाखिल हुई याचिका
कहा धर्म के आधार पर दंड के प्रावधान भिन्न नहीं हो सकते।

जागरण ब्यूरो, नई दिल्ली। मुसलमानों को बहुविवाह की इजाजत देने वाले कानूनी प्रावधानों को सुप्रीम कोर्ट मे चुनौती दी गई है। याचिका में मुसलमानों को बहुविवाह की इजाजत देने वाली मुस्लिम पर्सनल ला (शरीयत) अप्लीकेशन एक्ट 1937 की धारा 2 को रद करने की मांग की गई है। कहा गया है कि सुप्रीम कोर्ट बहुविवाह को अतार्किक, महिलाओं के साथ भेदभाव पूर्ण और अनुच्छेद 14 तथा 15(1) का उल्लंघन घोषित करे। याचिका में कहा गया है कि धर्म के आधार पर दंड के प्रावधान भिन्न नहीं हो सकते।

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वकील हरिशंकर जैन और विष्णु शंकर जैन के जरिए यह याचिका जनउद्घोष संस्थान और पांच महिलाओं ने दाखिल की है। याचिका में कहा गया है कि आइपीसी की धारा 494 कहती है कि अगर कोई व्यक्ति पति या पत्नी के जीवित रहते दूसरी शादी करता है तो वह शादी शून्य मानी जाएगी और ऐसी शादी करने वाले को सात साल तक की कैद और जुर्माने की सजा हो सकती है।

इस धारा के मुताबिक पति पत्नी के जीवित रहते दूसरी शादी करना दंडनीय अपराध है और दूसरी शादी शून्य मानी जाती है। इसका मतलब है कि दूसरी शादी की मान्यता पर्सनल ला पर आधारित है। कहा गया है कि हिन्दू, ईसाई और पारसी कानून में बहुविवाह की इजाजत नहीं है जबकि मुसलमानों में चार शादियों तक की इजाजत है। कहा गया है कि अगर हिन्दू, ईसाई या पारसी जीवनसाथी के रहते दूसरी शादी करते हैं तो आईपीसी की धारा 494 में दंडनीय है जबकि मुसलमान का दूसरी शादी करना दंडनीय नहीं है। ऐसे में आइपीसी की धारा 494 धर्म के आधार पर भेदभाव करती है जो कि संविधान के अनुच्छेद 14 व 15(1) के तहत मिले बराबरी के अधिकार का उल्लंघन है।

हिंदू, ईसाई और पारसी के कानूनों में जीवनसाथी के जीवित रहते दूसरी शादी की मान्यता और इजाजत नहीं

कहा गया है कि किसी धार्मिक समूह द्वारा अपनाई गई परंपरा उस व्यक्ति को दंड का भागी बनने से छूट नहीं दे सकती जो कि अन्य लोगों के लिए दंडनीय है। इस मामले में मुसलमानों को दूसरी शादी करने पर दंड से छूट मिली है जबकि अन्य के लिए वह दंडनीय अपराध है। हिन्दू, ईसाई और पारसी समुदाय के कानूनों में जीवनसाथी के जीवित रहते दूसरी शादी की मान्यता और इजाजत नहीं है। जबकि मुस्लिम पर्सनल ला (शरीयत)अप्लीकेशन एक्ट 1937 जो शादी, तलाक आदि के मुस्लिम ला को मान्यता देता है उसमे मुसलमानों को चार शादियों तक की इजाजत है।


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