पिछड़ी जातियों को अपने साथ लाने के लिए पार्टियों में लगी होड़
आखिर क्या वजह है जो राजनीतिक पार्टियों को पिछड़ों के सम्मेलने करने पड़ रहे हैं।
नई दिल्ली, जागरण ब्यूरो: उत्तर प्रदेश की राजनीति में जातियों को पार्टी से जोड़ने का क्रम लगातार जारी है।0 कहने को मतदाता का एक बड़ा वर्ग ‘अति पिछड़ा’ है, लेकिन यूपी की सियासत में अगड़ों को भी मात देता है। आंकड़ो के मुताबिक उत्तर प्रदेश में अति पिछड़ों की आबादी 33 प्रतिशत से अधिक है। ये आबादी करीब 80 सीटों पर किसी भी प्रत्याशी को जिताने का दम खम रखती है।
मायावती भी पिछड़ी जातियों के सम्मेलन करने जा रही हैं। वहीं कांग्रेस भी उत्तर प्रदेश के जिलों में ऐसे कार्यक्रम कर रही है। आखिर क्या वजह है जो राजनीतिक पार्टियों को पिछड़ों के सम्मेलने करने पड़ रहे हैं। दरअसल यूपी की जनसंख्या में 44 फीसदी पिछड़ी जातियों की हिस्सेदारी है। हालांकि हर जगह यह संख्या समान नहीं है। ऐसे में जहां पिछड़ी जातियों की तादाद ज्यादा है, वहां ऐसी रैलियों के कार्यक्रम रखे जा रहे हैं।
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वहीं वाजिब है कि सवर्ण, मुस्लिम और दलित कुछ खास राजनीतिक दलों के प्रति सहानुभूति रखते हैं। ऐसे में एक अकेला पिछड़ा वर्ग बचता है। जिसका कोई बड़ा नेता या पार्टी नहीं है। मतलब इनके वोटबैंक में बिखराव निश्चित है। इसी बिखरे वोटों को अपने पाले में ज्यादा से ज्यादा कोशिश की जा रही है।
वहीं पार्टी विशेष के वौटबैंक माने जाने वाले 9 फीसदी यादवों को 44 फीसदी के दायरे से निकाल भी दें तो एक बड़ा वोट बैंक बचता है। जो जिस पार्टी के साथ आ जाएगा। चुनाव में उसकी जीत निश्चित है। यही वजह है कि सभी राजनीतिक दल पिछड़ी जातियों के सम्मेलन करने को मजबूर हैं। 2012 के चुनावों के रेकॉर्ड पर गौर करें, तो पिछड़ा और अति पिछड़ा जिस ओर गया, उसी दल का पलड़ा भारी रहा।
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