प्रगतिशीलता के नाम पर ओवर द टॉप प्लेटफॉर्म पर दिखाया जा रहा है आपत्तिजनक कंटेंट
पुलिस और प्रशासन से मांग की गई कि नेटफ्लिक्स की दो अधिकारियों के खिलाफ मुकदमा दर्ज किया जाए। पुलिस ने आरंभिक जांच के बाद केस दर्ज कर लिया और जांच कर रही है। कानून अपना काम करेगी। शिकायत के बाद देश-विदेश में इस बात को लेकर चर्चा आरंभ हो गई।
नई दिल्ली, अनंत विजय। इन दिनों एक वेब सीरीज को लेकर विवाद जारी है। विवादों के केंद्र में एक बार फिर ओवर द टॉप प्लेटफॉर्म (ओटीटी) नेटफ्लिक्स और उसपर दिखाई जा रही सीरीज ‘अ सुटेबल बॉय’ है। ये सीरीज विक्रम सेठ की 1993 में इसी नाम से प्रकाशित औपन्यासिक कृति पर आधारित है।
विवाद इस वजह से उठा कि इस सीरीज की नायिका लता और उसके मित्र कबीर के बीच मंदिर प्रांगण में चुंबन दृश्य दिखाया गया है। इस वेब सीरीज के खिलाफ रीवा में पहली शिकायत दी गई। शिकायत में कहा गया कि सीरीज में मध्य प्रदेश के महेश्वर घाट के शिव मंदिर प्रांगण में तीन बार एक मुस्लिम लड़के ने हिंदू लड़की का चुंबन लिया है जो हिंदू समाज की भावनाओं को आहत करती है। पुलिस और प्रशासन से मांग की गई कि नेटफ्लिक्स की दो अधिकारियों के खिलाफ मुकदमा दर्ज किया जाए। पुलिस ने आरंभिक जांच के बाद केस दर्ज कर लिया और जांच कर रही है। कानून अपना काम करेगी। इस शिकायत के बाद देश-विदेश में इस बात को लेकर चर्चा आरंभ हो गई।
विदेशी अखबारों में इसकी आलोचना करते हुए लेख लिखे जा रहे हैं। अपने यहां भी इंटरनेट मीडिया पर खुद को प्रगतिशील और लिबरल समझनेवाले कथित ‘विद्वानों’ ने ‘अ सुटेबल बॉय’ के चुंबन दृश्य के चित्र को खजुराहो के मंदिर की मूर्तियों के चित्र के साथ लगाकर टिप्पणियां करनी शुरू कर दीं। चित्रों या फिल्मों के दृश्यों की प्रभावोत्पादकता का आकलन संदर्भों के बगैर अनुचित है। अगर ‘अ सुटेबल बॉय’ के चुंबन दृश्य और खजुराहो के चित्रों पर वस्तुनिष्ठ तरीके से विचार करें तो दोनों चित्रों के संदर्भ अलग हैं लेकिन प्रगतिशीलों की बगैर संदर्भों को समझे या जानबूझकर किसी भी चीज को संदर्भ से काटकर प्रस्तुत करने की प्रविधि पुरानी है।
पूरे देश ने एम एफ हुसैन के मामले में भी प्रगतिशीलों की इस प्रविधि को देखा था। हुसैन जब हिंदू देवी देवताओं के नग्न चित्र बना रहे थे तो उसको कला का उत्कृष्ट नमूना बताया गया था। उस वक्त भी उसकी तुलना खजुराहो के मंदिरों की दीवारों पर बनाई गई मूर्तियों से की गई थीं। उस वक्त भी इस बात को छिपा लिया गया था कि हुसैन जब किसी को अपमानित करना चाहते थे तो उसका नग्न चित्र बनाते थे। हुआ ये था कि हुसैन ने एक बार महात्मा गांधी, कार्ल मार्क्स, आइंस्टीन और हिटलर की पेंटिंग बनाई थी। उस पेंटिंग में उन्होंने सिर्फ हिटलर को नग्न दिखाया था।
जब इस बारे में उनसे सवाल पूछा गया कि पेंटिंग में उन्होंने सिर्फ हिटलर को ही नग्न क्यों चित्रित किया तो हुसैन ने साफ तौर पर कहा था कि किसी को अपमानित करना का उनका ये तरीका है। जब उनके हिंदू देवियों के नग्न चित्र बनाने पर विरोध हो रहा था तब खुद को उदारवादी माननेवाले या कलात्मक अभिव्यक्ति की पैरोकारी करनेवालों ने हुसैन के इस कथन को छुपा लिया था ।वो खजुराहो मंदिर की मूर्तियों के बहाने से पूरे देश को कलात्मकता की परिभाषा समझाने में जुट गए थे।
समग्रता में नेटफ्लिक्स पर दिखाई जानेवाली वेब सीरीज पर विचार करें तो एक पैटर्न दिखाई देता है। इस प्लेटफॉर्म पर दिखाई जानेवाली सीरीज में हिंदू धर्म या हिंदू देवी-देवताओं या हिंदू धर्म प्रतीकों का अपमानजनक तरीके से चित्रण किया जाता रहा है। वेब सीरीज ‘लैला’ से लेकर ‘द सूटेबल बॉय’ तक में प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से ये दिखता है। नेटफ्लिक्स ही क्यों अन्य ओटीटी प्लेटफॉर्म्स पर भी हिंदू धर्म प्रतीकों का अक्सर ही मजाक उड़ाया जाता है। पात्रों के नाम भी मंशा को साफ करते हैं। प्राइम वीडियो पर एक वेब सीरीज आई थी ‘पाताल लोक’ उसमें पालतू कुतिया का नाम सावित्री रखा गया था। यूट्यूब पर मसखरी करनेवाले कई हास्य कलाकार भी हिंदू देवी देवताओं को लेकर कैसी भी बात बोल जाते हैं।
शंकर भगवान और हनुमान जी को लेकर फूहड़ बातें की जाती हैं। इन सब बातों को लेकर किसी को आपत्ति हो और वो भारतीय संविधान के अंतर्गत कानून का सहारा लेता है तो देश को आहत भावनाओं का गणतंत्र करार दे दिया जाता है। इसका एक दूसरा पक्ष भी है। जब भी किसी फिल्म में किसी मुस्लिम चरित्र को खलनायक के तौर पर पेश किया जाता है तो उसपर भी आपत्ति शुरू हो जाती है। फिल्म ‘पद्मावत’ में खिलजी के चरित्र चित्रण पर भी कई लोगों को आपत्ति थी। खिलजी के चरित्र चित्रण को इतिहास के मलबे में दबे दुर्गुणों को पेश करने जैसा बताया गया था। कई लोगों ने इस बात को भी रेखांकित किया कि फिल्म में हिंदू राजा को अच्छा और मुस्लिम राजा को बर्बर दिखाया गया था। तब दक्षिण एशियाई साहित्य के विदेशी विद्वान थॉमस ड ब्रूइन की पुस्तक ‘रूबी इन द डस्ट’ का सहारा लिया गया था।
इस पुस्तक में ब्रूइन ने जायसी की कृति पद्मावत की व्याख्या की है। जब भी किसी फिल्म में मुसलमानों को आक्रांताओं के तौर पर दिखाया जाता है तो ये कथित प्रगतिशील तबका येन केन प्रकारेण उसकी आलोचना में जुट जाते हैं और इधर उधर से तर्क जुटाने की कोशिश करते हैं। इसी तरह से जब फिल्म ‘मणिकर्णिका’ के एक सीन में अंग्रेज सैनिक बछड़े को पकड़कर कर उसका मांस खाने की तैयारी में होते हैं तो रानी लक्ष्मीबाई बछड़े को अंग्रेज सैनिकों के चंगुल से मुक्त कराती हैं। जिसके बाद रानी लक्ष्मीबाई का एक संवाद है कि ‘जिस धरती पर तुम लोग खड़े हो वहां के लोगों और उनकी भावनाओं का सम्मान करना सीखो।‘ इस दृश्य और संवाद में कुछ गलत नहीं था लेकिन इसको हिंदू राष्ट्रवाद से जोड़ दिया गया।
ये भी याद दिलाने की कोशिश की गई कि रानी लक्ष्मीबाई और आखिरी मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर द्वितीय अंग्रेजों के खिलाफ उस लड़ाई में साथ थे। इस तरह के ढेरों उदाहरण हैं जहां एक ही तरह की स्थिति में हिंदुओं और मुसलमानों के लिए अलग अलग मानदंड हैं। एक ही तरह की स्थितियों को देखने के लिए अलग अलग प्रिज्म है। ये एक तरह का बौद्धिक अपराध है जिसके लिए किसी कानूनी सजा का प्रावधान नहीं है इसको तो बौद्धिकता के अखाड़े में ही चुनौती देनी होगी।