लालफीताशाही में खो गया हमारा पैडमैन, शोध को अफसर कर चुके हैं अनदेखा
‘सेनिटरी पैड कैसे सुलभ हो’ पर हुए शोध की अफसरों ने की अनदेखी
भोपाल (संदीप चंसौरिया)। तमिलनाडु के अरणाचलम मुरगनाथम की बायोपिक ‘पैडमैन’ रिलीज होने से पहले ही पूरे देश में चर्चा का विषय बन गई है लेकिन इससे पहले मुरगनाथम से प्रेरित होकर मध्य प्रदेश के उमेश श्रीवास्तव समाज की इस विकृति को दूर करने को लेकर न सिर्फ शोध कर चुके हैं, बल्कि घर-घर में सहज तरीके से सेनिटरी पैड पहुंचाने का बिजनेस मॉडल तैयार कर शासन को दे चुके हैं। मध्य प्रदेश के अफसरों ने उनके शोध और बिजनेस मॉडल को गंभीरता से नहीं लिया।
भोपाल के 40 वर्षीय उमेश श्रीवास्तव ने 2011 में ‘ग्रामीण महिलाएं सेनिटरी पैड का इस्तेमाल क्यों नहीं करतीं’ विषय पर आइसेक्ट यूनिवर्सिटी से पीएचडी पंजीयन करवाई थी। बकौल उमेश, इस विषय पर शोध करने वाले वह देश में पहले शोधकर्ता हैं। सेनिटरी पैड पर शोध करने का निर्णय उन्होंने मुरगनाथम के संघर्ष के बारे में जानने के बाद मध्य प्रदेश में ग्रामीण महिलाओं की स्थिति पता करने की दृष्टि से किया था। इसके लिए उन्होंने रायसेन जिले के मेंदुआ समेत आसपास के तीन गांव को चुना।
वहां की महिलाओं से यह समझने की कोशिश की कि क्या वे सेनिटरी पैड खरीदने में सक्षम नहीं हैं या उन तक नैपकिन की पहुंच नहीं है या उन्हें यह मालूम है या नहीं कि नैपकिन होता क्या है? करीब एक हजार महिलाओं के बीच किए इस सर्वे में यह सामने आया कि मूलत: गांवों में सेनिटरी पैड सहज व सुलभ नहीं है। पुरुषों से ग्रामीण महिलाएं नैपकिन मांग ही नहीं सकतीं, ठीक उसी तरह जैसे कि शहरों में आज भी दुकानदार पैड काली पॉलीथीन में देता है।
सर्वे के इस नतीजे के बाद उमेश ने मुरगनाथम से सवा लाख रुपये में पैड तैयार करने वाली मशीन खरीदी। पांच महिलाओं को प्रशिक्षण देकर उनसे पैड तैयार करवाए और उनसे ही गांवों में वितरित भी करवाए। इस पूरी प्रक्रिया से एक बिजनेस मॉडल निकला कि यदि तीन-चार गांवों में एक मशीन स्थापित करवाकर आंगनवाड़ी के माध्यम से पैड उपलब्ध करवाए जाएं तो समाज की यह विकृति न सिर्फ दूर हो जाएगी बल्कि महिलाओं को स्वदेशी, सस्ता और सुलभ तरीके से पैड भी उपलब्ध होगा। साथ ही महिलाओं को रोजगार भी हासिल होगा। उमेश ने शोध पूरा होने के बाद अपने इस बिजनेस मॉडल को मध्य प्रदेश के नेशनल रूरल हेल्थ मिशन (एनआरएचएम) के अफसरों के साथ 2015 में साझा किया।
बकौल उमेश, विभाग के अधिकारियों ने मॉडल को अध्ययन के लिए ले लिया, लेकिन उसके बाद कई बार संपर्क करने पर भी कोई जवाब नहीं दिया। लिहाजा उन्होंने भी इस दिशा में आगे बढ़ने का विचार छोड़ दिया। जब इस बारे में एनआरएचएम के मौजूदा अधिकारियों से चर्चा की गई तो उन्होंने उमेश के शोध को लेकर अनभिज्ञता जाहिर कर दी।
ये था ‘सहेली’ का बिजनेस मॉडल
शोध के कॉटन और वुड पल्व से बने छह पैड के एक पैकेट की लागत 9 रुपये आई। उमेश ने तीन से चार गांवों के बीच एक मशीन स्थापित करने, निर्माण के लिए महिलाओं को प्रशिक्षित करने, कच्चा माल उपलब्ध करवाने और पैड के वितरण तक का मॉडल तैयार कर पैड को सहेली नाम दिया। उमेश के मुताबिक, यदि अधिकारी उनके इस मॉडल को प्रदेश में अपनाते तो तीन साल में कम से कम 75 से ज्यादा मशीनें स्थापित हो चुकी होतीं। एक मशीन पर पांच महिलाओं के हिसाब से करीब चार सौ महिलाओं को स्वरोजगार से जोड़ा जा सकता था। इसके साथ ही प्रदेश के करीब ढाई सौ गांव की महिलाएं बिना झिझक के कारण सेनिटरी पैड का उपयोग कर रही होतीं।
महाराष्ट्र सरकार ने उठाया कदम
अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस आठ मार्च से महाराष्ट्र सरकार ने ग्रामीण क्षेत्र में कार्यरत महिला बचत गुट के माध्यम से प्रदेश में ग्रामीण महिलाओं को अस्मिता ब्रांड के 240 मिमी के आठ सेनिटरी पैड 24 रुपये प्रति पैकेट में और 280 मिमी के आठ सेनिटरी पैड के पैकेट 29 रुपये की दर से मुहैया कराने का निर्णय लिया है।
सेनिटरी पैड को लेकर कोई प्रोजेक्ट मिशन को दिया गया है, ऐसा मेरी जानकारी में नहीं है। आप ने जानकारी दी है तो इसे दिखवाया जाएगा।
-डॉ अर्चना मिश्रा, डिप्टी डायरेक्टर, एनएचएम (मेटरनल हेल्थ)