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हमारा बजट और उम्‍मीदें: असमानता की खाई को पाटने की मुश्किल है लड़ाई, उठाने होंगे ये कदम

वित्त मंत्री से उम्मीद है कि वह ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मजबूती देने के लिए सक्षम पारिस्थितिकी तंत्र को प्रोत्साहित करेंगी। इन उपायों से अर्थव्यवस्था को मजबूती दी जा सकती है...

By Krishna Bihari SinghEdited By: Published: Sun, 30 Jun 2019 10:27 AM (IST)Updated: Mon, 01 Jul 2019 08:37 AM (IST)
हमारा बजट और उम्‍मीदें: असमानता की खाई को पाटने की मुश्किल है लड़ाई, उठाने होंगे ये कदम
हमारा बजट और उम्‍मीदें: असमानता की खाई को पाटने की मुश्किल है लड़ाई, उठाने होंगे ये कदम

डॉ. विकास सिंह। भारतीय अर्थव्यवस्था में ग्रामीण अर्थव्यवस्था का योगदान लगभग आधा है। अधिकांश नीति निर्माता इस गलतफहमी में हैं कि देश की ग्रामीण अर्थव्यवस्था कृषि आधारित है। जबकि तथ्य यह है कि कृषि ग्रामीण अर्थव्यवस्था का आधार तो है, लेकिन दो तिहाई ग्रामीण अर्थव्यवस्था गैर-कृषि गतिविधियों पर आधारित है। ग्रामीण क्षेत्र के लिए समावेशन महत्वपूर्ण है। चुनौती क्रियान्वयन की है। यह काम करने में कुल परिव्यय का एक फीसद से अधिक नहीं खर्च होगा। मैं वित्त मंत्री से उम्मीद करता हूं कि वह ग्रामीण अर्थव्यवस्था को विकसित करने के लिए सक्षम पारिस्थितिकी तंत्र को प्रोत्साहित और पोषित करने का काम करेंगी।

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इन कदमों से ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मिलेगी ताकत
निर्माण, अवसंरचना, चमड़ा और हथकरघा जैसे सहायक उद्योगों से ग्रामीण अर्थव्यवस्था को पुनर्जीवित करने वाले रोजगार पैदा हो सकते हैं। एक मजबूत ग्रामीण पारिस्थितिकी तंत्र उपभोग, आय और समान विकास को गति देने में सक्षम है। ग्रामीण विकास गरीबी को तीन गुना तेजी से कम करता है। सिर्फ इसी कार्य से ग्रामीण विकास दर को 12 फीसद तक बढ़ाया जा सकता है।

उद्यमशीलता की संस्कृति
हमारी पुरानी कार्यप्रणाली युवाओं को असफलता की ओर ले जाती है। हमारे लगभग 95 फीसद युवा अपने जीवन के सर्वश्रेष्ठ पल को नौकरी की तलाश में खपा देते हैं। यदि सरकार एक सक्षम उद्यमशील वातावरण तैयार करने के लिए कुछ सार्थक और स्थायी कदम उठायेगी, तो देश में रोजगार की समस्या नहीं रहेगी। उद्यमी बहुत ही विपरीत परिस्थितियों में छोटे स्तर से शुरुआत करते हैं और फिर नौकरशाही की बाधाओं का सामना करते हैं। स्वाभाविक रूप से, वे छोटे उद्यमी ही बने रहते हैं। इसमें ऋणदाताओं और कई अन्य कारकों की भूमिका होती है।

बनाया जाए ‘उद्यमी कोष’
स्वरोजगार का वातावरण बनाने और उद्यमियों को प्रोत्साहित तथा पोषित करने के लिए वित्त मंत्री को एक ‘उद्यमी कोष’ बनाना चाहिए। किसानों की दोगुनी आय: किसानों की आय को दोगुना करने के लिए माननीय प्रधानमंत्री का समग्र प्रयास प्रशंसनीय है। कम होती आय के कारण किसानों की बदहाली बढ़ती जा रही है। ग्रामीण आय में 2014 के बाद से मंदी है, और वास्तविक मजदूरी 5 साल के निचले स्तर पर है। इसका एकमात्र समाधान कृषि आय में वृद्धि करना है।

मिटे बदहाली आए खुशहाली
गरीबी मिटाना एक खर्चीला उपाय तो है ही, साथ ही इसके लिए एक ठोस नीति की भी जरूरत है। मैं इस बजट सबके लिए समान आय वाली किसी घोषणा की अपेक्षा कर रहा हूं। दरअसल हमारे सामने अक्षम सब्सिडी प्रणाली और बिना शर्त सबके लिए समान आय के विकल्प मौजूद हैं। अत्यधिक गरीबो के लिए बिना शर्त बेसिक इनकम सुनिश्चित करना हमारे समाज की पहुंच से बाहर नहीं हो सकती है। यदि सरकार अपर्याप्त तरीके से लक्षित और क्रियान्वित की गई एक हजार जन कल्याण वाली योजनाओं को खत्म नहीं करती है तो सरकार का रहना या नहीं रहना एक ही बात होगी।

जरूरतमंदों तक पहुंचाई जाए सब्सिडी
सब्सिडी को सही तरीके से जरूरतमंदों तक पहुंचाकर, अमीरों पर कर लगाने और पूंजीगत लाभ को कम करने जैसे कदमों से प्रति व्यक्ति प्रति माह एक हजार रुपये की यूनिवर्सल बेसिक आय का वहन किया जा सकता है। एक ऐसी अर्थव्यवस्था जहां सभी संसाधनों का 90 फीसद से अधिक धन चंद लोगों के पास है और जहां दिन-प्रतिदिन असमानता बढ़ती जा रही है, वित्त मंत्री को एक सकारात्मक तथा समावेशी बजट पेश करना चाहिए। अमीर किसान कोई टैक्स नहीं देता है।

स्वास्थ्य, शिक्षा और आर्थिक चुनौतियों पर हो ध्‍यान
लाभांश और बायबैक के माध्यम से कॉर्पोरेट्स शेयरधारकों को चुपके से इनाम देते हैं। इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि असमानता बढ़ रही है। सरकार को इससे आगे जाने की जरूरत है। अच्छी तरह से योजना बनाने और उसे बेहतर तरीके से लागू करने की आवश्यकता है। वित्त मंत्री को शेष रूप से जटिल सामाजिक, स्वास्थ्य, शिक्षा और आर्थिक चुनौतियों से निपटने पर ध्यान केंद्रित करना हिए, जिसका आज हम सामना कर रहे हैं।

कृषि क्षेत्र में इनपुट से व्‍यय पर हो नजर
भारतीय अर्थव्यवस्था में कृषि का योगदान महज 12 फीसद है, जबकि यह 50 फीसद लोगों को रोजगार देती है। असली समस्या यह है कि हमारे खेतों में जरूरत से ज्यादा किसान हैं और इनमें भी अधिकांश लोग आधे मन से खेती करते हैं, क्योंकि उनके पास करने के लिए और कुछ नहीं है। हमारे किसान दुखी हैं और यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि आधी-अधूरी तैयारी वाली और लोकलुभावन सरकारी योजनाएं इस संकट को बढ़ाने का ही काम करती हैं। हमारा ध्यान लागत से परिणाम और इनपुट से व्यय पर होना चाहिए। वित्त मंत्री को एक मजबूत, समग्र, सुधारवादी और किसान केंद्रित कृषि नीतियों के निर्माण पर कार्य करना चाहिए। साथ ही किसान-धन के लिए बजटीय प्रावधान की भी घोषणा होनी चाहिए।
(लेखक मैनेजमेंट गुरु और वित्‍तीय एवं समग्र विकास विशेषज्ञ हैं।)


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