अब अवसाद के पुराने मरीज करेंगे नए मरीजों के इलाज में मदद, जानिए कैसे
अवसाद यानी डिप्रेशन पर काम कर रहे वैज्ञानिकों को अब इसी सिद्धांत में उम्मीद की नई किरण दिखाई दे रही है।
जेएनएन, नई दिल्ली। 'जाके पैर ना फटी बिवाई, सो का जाने पीर पराई' यानी किसी की तकलीफ को वही बेहतर समझ सकता है, जिसने खुद वह तकलीफ झेली हो। वर्षों से चली आ रही इस कहावत में जीवन का ही नहीं बल्कि विज्ञान का भी सार छुपा है। अवसाद यानी डिप्रेशन पर काम कर रहे वैज्ञानिकों को अब इसी सिद्धांत में उम्मीद की नई किरण दिखाई दे रही है। एक नए अध्ययन में पाया गया है कि अवसाद का इलाज खोजने में ऐसे लोग मददगार हो सकते हैं, जो पहले कभी अवसाद के शिकार रहे हों और अब बिलकुल ठीक हो चुके हों। उनके ठीक होने की प्रक्रिया और उसके बाद की उनकी जीवनचर्या से इस बीमारी के इलाज का रास्ता खोजना संभव हो सकता है।
क्या है अवसाद?
अवसाद एक मानसिक समस्या है। किसी बड़े नुकसान या तकलीफ का सामना करने के बाद कई लोगों के दिमाग में निराशा घर कर लेती है। व्यक्ति स्वयं को असहाय और बेकार मानने लगता है। उसके मन में यह धारणा बनने लगती है कि उसका जीवन निरर्थक है और उसके होने या नहीं होने का किसी पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। वर्षो के शोध से वैज्ञानिकों ने अब तक इसके कई प्रकार पता लगाए हैं। यह सामान्य से लेकर बेहद गंभीर तक हो सकता है। स्थिति ज्यादा गंभीर होने पर व्यक्ति के मन में आत्महत्या के खतरनाक विचार भी आने लगते हैं। माना जाता है कि इस स्थिति में व्यक्ति का परिवेश और उसके करीबी लोगों का व्यवहार उसके लिए बहुत अहम होता है।
ठीक होने की कितनी उम्मीद?
यूनिवर्सिटी ऑफ साउथ फ्लोरिडा में साइकोलॉजी के प्रोफेसर जोनाथन रोटनबर्ग ने कहा, 'जिस व्यक्ति में अवसाद के लक्षणों की पहचान हो जाती है, उसका पहला प्रश्न यही होता है कि वह पूरी तरह सामान्य कब हो जाएगा? वह पूरी तरह सामान्य हो पाएगा भी या नहीं? दुर्भाग्य से अब तक इस प्रश्न का कोई उत्तर नहीं मिला है।' वैज्ञानिक वर्षो से ऐसे किसी मार्कर की तलाश कर रहे हैं, जिससे अवसाद से बाहर आने का रास्ता मिल सके, लेकिन अब तक ऐसा नहीं हो सका है। कुछ दवाएं जो एक व्यक्ति पर अच्छा नतीजा दिखाती हैं, किसी अन्य पर उनका परिणाम विपरीत भी हो सकता है। मनोचिकित्सकों से बात करने पर भी निश्चित परिणाम की गारंटी नहीं होती।
तरीका बदलने की जरूरत
प्रोफेसर रोटनबर्ग ने कहा कि अवसाद का इलाज खोजने के अब तक के प्रयासों की दिशा सही नहीं रही। शोध के दौरान ऐसे लोगों को पूरी तरह नजरअंदाज कर दिया जाता है, जो अवसाद से बाहर आकर सामान्य जीवन जी रहे हैं। ऐसे बहुत से लोग हैं जो कभी अवसाद का शिकार रहे हैं, लेकिन अब पूरी तरह ठीक हैं। दुर्भाग्य से अब तक ऐसे लोगों का कोई डाटा नहीं जुटाया गया। आमतौर पर अवसादग्रस्त व्यक्ति का कुछ हफ्ते इलाज किया जाता है और लक्षण सामान्य होने पर उसे छोड़ दिया जाता है। ध्यान देने की बात यह है कि इसके बाद उसका जीवन कैसा चल रहा है।
मिल सकती हैं नई जानकारियां
प्रोफेसर रोटनबर्ग ने कहा कि इस तरह का शोध बड़ा और खर्चीला होगा, लेकिन इससे कई नई जानकारियां मिल सकती हैं। पूरी तरह ठीक होने वालों में हो सकता है किसी ने खुद को ठीक करने का कोई नया तरीका निकाला हो। उसकी कोई सेल्फ थेरेपी या दिनचर्या इसमें सहायक हो सकती है। ऐसी बहुत सी जानकारियों से न सिर्फ शोध को नई दिशा मिलेगी, बल्कि प्राथमिक स्तर पर चिकित्सा में भी ऐसे सुझावों का प्रयोग संभव हो सकता है।