जलवायु परिवर्तन निगरानी में मदद कर सकते हैं शैवाल प्रजातियां
भारतीय वैज्ञानिकों ने अरुणाचल प्रदेश के तवांग जिले में पाई जाने वाली 122 शैवाल प्रजातियों को किया सूचीबद्ध, इनमें से 16 का जैव- संकेतक के रूप में किया जा सकता है प्रयोग
नई दिल्ली, आइएसडब्ल्यू। भारतीय वैज्ञानिकों के एक ताजा अध्ययन में अरुणाचल प्रदेश के तवांग जिले में पाई जाने वाली 122 शैवाल प्रजातियों को सूचीबद्ध किया गया है। इनमें से 16 शैवाल प्रजातियों का उपयोग जलवायु परिवर्तन की निगरानी के लिए जैव-संकेतक के रूप में किया जा सकता है। तवांग की नागुला झील, पीटीएसओ झील और मंगलम गोम्पा के सर्वोच्च शिखर बिंदुओं पर विस्तृत सर्वेक्षण के बाद वैज्ञानिकों ने शैवाल के 250 से अधिक नमूने एकत्रित किए हैं। इन निगरानी क्षेत्रों को शैवालों के वितरण और जैव विविधता के दीर्घकालिक अध्ययन के लिए क्रमश: 3000, 3500 और 4000 मीटर की ऊंचाई पर स्थायी स्थलों के रूप में विकसित किया गया है। इन क्षेत्रों के अलावा तवांग मॉनेस्ट्री और सेला दर्रे के आसपास के इलाकों से भी नमूने इकट्ठे किए गए हैं।
विभिन्न वैज्ञानिक विधियों के उपयोग से शोधकर्ताओं ने पाया कि एकत्रित किए गए नमूनों में 122 शैवाल प्रजातियां शामिल हैं। ये प्रजातियां 47 शैवाल श्रेणियों और 24 शैवाल वर्गों से संबंधित हैं। इन प्रजातियों में परमेलिआचिये कुल की सर्वाधिक 51, क्लैडोनिआचिये कुल की 16, लेकैनोरैचिये कुल की सात, साइकिआचिये कुल की छह और रैमेलिनाचिये कुल की पांच शैवाल प्रजातियां शामिल हैं। वैज्ञानिकों के मुताबिक, जलवायु और पर्यावरण में होने वाले बदलावों के प्रति संवेदनशील होने के कारण विभिन्न शैवाल प्रजातियों को पारिस्थितिक तंत्र के प्रभावी जैव-संकेतक के रूप में जाना जाता है। शैवालों की निगरानी से पर्वतीय क्षेत्रों में हो रहे पर्यावरणीय बदलावों से संबंधित जानकारियां जुटाई जा सकती हैं और इससे संबंधित आंकड़ों का भविष्य के निगरानी कार्यक्रमों में भी उपयोग किया जा सकता है।
इस अध्ययन से जुड़े शोधकर्ता, एनबीआरआई के पूर्व उप-निदेशक डॉ. डीके उप्रेती ने बताया कि किसी क्षेत्र विशेष में जीवित शैवाल समुदाय संरचना से उस क्षेत्र की जलवायु स्थितियों के बारे में पता चल सकता है। शैवाल संरचना में बदलाव से वायु गुणवत्ता, जलवायु और जैविक प्रक्रियाओं में परिवर्तन के बारे में पता लगाया जा सकता है।
यह मिलेगी मदद
इस अध्ययन से जुड़े एक अन्य शोधकर्ता डॉ. राजेश बाजपेयी ने बताया कि, जैव-संकेतक शैवाल उथल-पुथल रहित वनों, हवा की गुणवत्ता, वनों की उम्र एवं उनकी निरंतरता, त्वरित अपरदन रहित उपजाऊ भूमि, पुराने वृक्षों वाले वनों, नम एवं शुष्क क्षेत्रों, प्रदूषण सहन करने की क्षमता और मिट्टी के पारिस्थितिक तंत्र के बारे में जानकारी उपलब्ध कराने का जरिया बन सकते हैं।
इन्होंने किया अध्ययन
लखनऊ स्थित राष्ट्रीय वनस्पति अनुसंधान संस्थान (एनबीआरआइ), अहमदाबाद स्थित इसरो के अंतरिक्ष उपयोग केंद्र और ईटानगर स्थित नॉर्थ ईस्टर्न रीजनल इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस ऐंड टेक्नोलॉजी के वैज्ञानिकों द्वारा किया गया यह अध्ययन शोध पत्रिका प्रोसीडिंग्स ऑफ द नेशनल एकेडेमी ऑफ साइंसेज में प्रकाशित किया गया है।