दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी सेना भारत की, रक्षा उत्पादों के लिए दूसरे देशों पर निर्भर
ऑर्डिनेंस फैक्टरी बोर्ड अपने बजट का महज 0.7 फीसद शोध-विकास पर खर्च करती है। जबकि जरूरत 3 फीसद की है।
नई दिल्ली (जेएनएन)। अंतरिक्ष सहित मिसाइल तकनीक में हमारी कामयाबी का दुनिया लोहा मान रही है। इनमें आज हम आत्मनिर्भर हैं। ऐसा क्या है कि रक्षा उत्पादों के मामले में आज भी हम रूस, अमेरिका और यूरोपीय देशों पर आश्रित है।
बड़ी रक्षा जरूरत
भारत की सेना दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी सेना है। इस साल देश का रक्षा बजट 2.74 लाख करोड़ रुपये का था। अक्सर हमें दुनिया के सबसे बड़े हथियार आयातक देश की संज्ञा मिलती रहती है। शायद हम इसी से फूले नहीं समाते। 2012 से 2016 के बीच दुनिया में जितने भी हथियार का निर्यात किया गया उसमें भारत को हुए निर्यात की हिस्सेदारी 13 फीसद रही। 2013 से 2016 के बीच 82,496 करोड़ रुपये के हथियार हमें खरीदने पड़े। अगर यही हथियार घरेलू उद्योग से तैयार होते तो आयात के मद में जाने वाला धन बचता और हर हाथ को काम मिलता।
उत्पादन और जरूरत की चौड़ी खाई हमारी हथियार फैक्टरियों, शिपयार्ड और लेबोरेटरीज में दो लाख कर्मचारी देश की जरूरत को पूरी करने में विफल हैं। 41 ऑर्डिनेंस फैक्टरियों, आठ डीपीएसयू और 52 रिसर्च लेबोरेट्रीज में पनडुब्बी से लेकर असाल्ट राइफल तक बनाई जाती है। भारत की डिफेंस पब्लिक सेक्टर अंडरटेकिंग्स (डीपीएसयूज) इस साल 57 हजार करोड़ के हथियार और गोला-बारूद आपूर्ति करेगी। अंतर को पूरा करने के लिए आयात करना पड़ता है। इससे भारत को रक्षा तकनीक का लाभ नहीं मिल पाता।
सधी शुरुआत
उत्पादन और जरूरत के अंतर को पाटने के लिए मोदी सरकार ने सधी शुरुआत की है। जिसके तहत 25 क्षेत्रों की पहचान करके जीडीपी में मैन्युफैक्र्चंरग की हिस्सेदारी 16 से 25 फीसद ले जाने की योजना है। इससे 10 करोड़ अतिरिक्त रोजगार सृजित करने का भी लक्ष्य रखा गया है। हथियारों के आयात पर निर्भरता को खत्म करने के लिए मेक इन इंडिया समग्र प्रयास साबित हो सकता है। पिछले तीन साल में इस आशय से जुड़े सरकार ने प्रयास शुरू कर दिये हैं। रक्षा क्षेत्र में एफडीआइ को 49 फीसद (कुछ विशेष मामलों में इससे अधिक भी) किया गया।
निजी क्षेत्रों का प्रवेश
रक्षा क्षेत्र में निजी क्षेत्र की हिस्सेदारी 5 फीसद है। इसलिए निजी खिलाड़ियों को शामिल करने का सरकार का प्रयास रंग ला सकता है। पिछले दो साल के दौरान एक्साइज और कस्टम ड्यूटी में छूट जैसी डीपीएसयूज को दी जाने वाली सहूलियतें खत्म की गई हैं। इससे निजी क्षेत्र को समानांतर खेलने का मौका मिलेगा। नीतियों में तेजी आई है लेकिन उन्हें जमीन पर उतारने में अभी भी दिक्कतें बहुत हैं।
भविष्य की चिंता
अप्रैल, 2013 में ट्राई सर्विस हेडक्वार्टर्स इंटीग्रेटेड डिफेंस स्टाफ द्वारा तैयार एक स्टडी ‘टेक्नोलॉजी, पर्सपेक्टिव एंड कैपेबिलिटी रोडमैप’ में भविष्य में देश की बहुत व्यापक रक्षा जरूरतों को बताया गया है। अगले 15 साल में 100 अरब डॉलर कीमत के हाई टेक्नोलॉजी मिलिट्री हार्डवेयर, ड्रोन्स, प्रीसीजन वीपन, रडार, गन्स, सेंसर्स और विमान की दरकार होगी। अगले दशक तक देश की सेनाओं को 400 लड़ाकू विमान, 800 से 1000 हेलीकॉप्टर की जरूरत होगी। पांच हजार हेलीकॉप्टर इंजन, हल्के लड़ाकू विमानों के 400 इंजन की भी इस समयावधि में दरकार होगा।
तकनीक की विडंबना
हमारा सरकारी रक्षा उद्योग जो भी बनाता है उसका लाइसेंस किसी विदेशी कंपनी के नाम होता है। 2014 में ऑर्डिनेंस फैक्टरी बोर्ड की एक इन हाउस रिपोर्ट बताती है कि 13500 करोड़ के इसके टर्नओवर में से 90 फीसद उत्पादों की तकनीक संगठन के बाहर विकसित की गई। रूसी ओरिजिनल इक्विपमेंट मैन्युफैक्चरर्स (ओईएम) की तकनीक से हिंदुस्तान एरोनॉटिक्स लिमिटेड नासिक की ओजार फैसिलिटी में सुखोई-30एमकेआई को भारत में असेंबल कर रही है।
शोध-विकास में नगण्य निवेश
ऑर्डिनेंस फैक्टरी बोर्ड अपने बजट का महज 0.7 फीसद शोध-विकास पर खर्च करती है। जबकि जरूरत 3 फीसद की है। 2016 में आइडीएसए की एक स्टडी बताती है कि सरकारी क्षेत्र के चार रक्षा उपक्रमों के पास एक भी पेटेंट या कॉपीराइट नहीं है। इसके बरक्स विमान बनाने वाली बोइंग अपने सिर्फ एक प्रांजेक्ट 787 ड्रीमलाइनर के लिए 1000 से अधिक पेटेंट करा चुकी है। घरेलू उत्पादन भी विदेशी निर्यातित कल पुर्जों पर टिका है। पिछले पांच साल के दौरान सरकारी उद्यम एचएएल ने विमानों के 90 फीसद पाट्र्स, उपकरण और कच्ची सामग्री का आयात किया।
डिलीवरी में देरी
देश के रक्षा उपक्रमों के उत्पाद सेना को सौंपने की देरी चिंतित करती है। इसका दोहरा नुकसान होता है। सेना की जरूरत को देखते हुए उसे आयात करना पड़ता है और दूसरा नुकसान तकनीक या उत्पाद के पुराने पड़ जाने का खतरा रहता है। जब तक ये उत्पाद तैयार करते हैं तब बाजार में नई तकनीकें धमाल मचाने लगती हैं।
सफेद हाथी बना सरकारी क्षेत्र
सार्वजनिक रक्षा उद्यम
हिन्दुस्तान ऐरोनॉटिक्स लिमिटेड
मझगांव डॉक्स
हिन्दुस्तान शिपयार्ड
भारत इलेक्ट्रानिक्स
भारत डायनॉमिक्स
भारत अर्थ मूवर्स
मिश्र धातु निगम
गार्डेन रीच शिप बिल्डर्स एंड इंजीनियर्स
गोवा शिपयार्ड
67000 डॉलर
भारत के आठ रक्षा पीएसयू की औसत उत्पादकता (प्रति कर्मचारी कुल उत्पादन)। यह शीर्ष हथियार निर्माता कंपनियों का पांचवां हिस्सा है।
370000 डॉलर
शीर्ष पांच हथियार निर्माता कंपनियों की उत्पादकता।
आयात पर आश्रित
देश की तीनों सेनाओं (जल, थल और नभ) की रीढ़ समझे जाने वाले प्रमुख हथियार आज भी दूसरे देशों के रहमोकरम पर हैं।
एयरफोर्स
सुखोई-30एमकेआइ लड़ाकू विमान निर्भरता: 194 के अपने पूरे बेड़े को 8 अरब डॉलर की लागत से रूस की मदद से अपग्रेड करके सुपर सुखोई स्तर का करने पर काम चल रहा है।
थलसेना
टी-90 मुख्य युद्धक टैंक निर्भरता: आयातित किट से एचवीएफ अवडी में असेंबल किया जाता है।
नौसेना
किलो क्लास युद्धपोत निर्भरता: रूस की मदद से ही इनका रीफिट संभव।