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जरा एक नजर इधर भी कर लें क्‍योंकि ये दौर है क्रिएटिव पॉलिटिकल कमेंट का!

आप इन्हें क्रिएटिव पालिटकल कमेंट वाली फिल्में कह सकते हैं। सीधे-सीधे राजनीतिक न कहें। क्योंकि किसी फिल्म को राजनीतिक कहते ही ‘राजनीति’ शुरु हो सकती है।

By Kamal VermaEdited By: Published: Fri, 22 Jun 2018 03:07 PM (IST)Updated: Fri, 22 Jun 2018 11:16 PM (IST)
जरा एक नजर इधर भी कर लें क्‍योंकि ये दौर है क्रिएटिव पॉलिटिकल कमेंट का!
जरा एक नजर इधर भी कर लें क्‍योंकि ये दौर है क्रिएटिव पॉलिटिकल कमेंट का!

[प्रो. अमिताभ श्रीवास्तव] आप इन्हें क्रिएटिव पालिटकल कमेंट वाली फिल्में कह सकते हैं। सीधे-सीधे राजनीतिक न कहें। क्योंकि किसी फिल्म को राजनीतिक कहते ही ‘राजनीति’ शुरु हो सकती है। यह और बात कि जिस देश में पान की दुकान से लेकर पार्लियामेंट तक राजनीति ही बतियायी जा रही हो, फिल्में उस राजनीति से कैसे बच सकती हैं। तो मान लीजिये कि फिल्मों में भी राजनीति कमोबेश आरंभ से रही है, कभी मनोरंजन का झांसा देकर यथास्थिति बनाये रखने की राजनीति तो कभी उसे पलट देने की कवायद की राजनीति। ऐसे में कुछ फिल्में खालिस राजनीति की बात करें, तो इसे गलत तो नहीं ही ठहराया जा सकता। हां, कथ्य और कहने के अंदाज पर सवाल भी उठाये जा सकते हैं।

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राजनीतिक ‘राजी’नामा
इस दौर की सबसे ताजा तरीन फिल्म है मेघना गुलजार की ‘राजी’। हरिंदर एस सिक्का की किताब ‘कालिंग सहमत’ पर बनी फिल्म दर्शकों के सामने एक राजनीतिक ‘राजी’नामा पेश करती नजर आती है। पड़ोसी देश खासकर उसकी सेना के बारे में आपकी कोई सोच होगी पर फिल्म ऐसे किरदार पेश करती है, आप आलिया के साथ उनसे भी प्यार करने लग जाते हैं। फिल्म हर पल पाकिस्तान से जंग के माहौल के बीच जीती नजर आती है पर बिटवीन द लाइन्स उसपर सवाल भी उठाती नजर आती है। फिल्म का एक दर्द भरा संवाद है- जंग में सिर्फ जंग ही होती है। तभी गोविंद निहलानी की द्रोहकाल याद आती है जिसने पर्दे पर दिखाया था कि जिससे हम जंग लड़ते है, अक्सर उस जैसे ही हो जाते है।

फिल्म ने बांग्लादेश के अलग होने के पाकिस्तान के डर को फिल्म बड़ी बारीकी से पर्दे पर उतारा। पर हलका सा भी जिक्र तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान (बांग्लादेश) में हो रहे पाकिस्तानी जुल्मों का नहीं किया। अपने विभाजन पर भारत के दर्द का हवाला नहीं दिया। बिटविन द लाइन्स लगा है कि कश्मीर में पाकिस्तान की साजिशों को कहीं लाजिकल तो नहीं बताया जा रहा। फिल्म ने जहां इस पल ‘सद्भाव’ का अतिवाद छुआ पर संग संग देशप्रेम की डोर थामे रखा। भारतीय गुप्तचर संस्थाओं पर तीखे सवाल उठाने के अगले ही पल राजी की अगली पीढ़ी फौज में नजर आयी। पर सिनेकार की खूबी यह कि सबकुछ बेहद सहज नजर आता है।

मेघना का शिल्प राजनीतिक फिल्मों के मुफीद बैठता है। ‘हू तू तू’ के जरिये इसकी झलक उन्होंने बहुत पहले ही दे दी थी। यकीनन वह पिता गुलजार की परंपरा को बढ़ाती नजर आती है। गुलजार ने ‘आंधी’ में तत्कालीन प्रधामंत्री को इस अंदाज से दिखाया कि भले ही इंदिरा विरोध करती रहीं, लेकिन दर्शकों ने सुचित्रा सेन में उन्हीं की झलक देखी। बाद में माचिस जैसी फिल्मों में गुलजार ने राजनीतिक विचारधारा को चित्रित करने का हुनर दिखाया। हालाकि सच यह भी है कि इस फिल्म के कथ्य पर संसद में सवाल भी गूंजे।

जहीनियत की शाल के पीछे

राजनीतिक विचारधारा की हाल की फिल्मों में दूसरा नाम मधुर भंडारकर की इंदु सरकार का आता है, जिसने आपातकाल के ‘चीफ’ के किरदार में संजय गांधी को आपके सामने खड़ा कर दिया। जहीनियत की शाल में लिपटी सत्ता की निर्ममता को पर्दे पर जिंदा करने के लिए नील नितिन मुकेश को जमकर तारीफ मिली। चंद ही झलकियों में सुप्रिया विनोद इंदिरा गांधी की तमाम ताकतों और कमजोरियां को पर्दे में लाने में कामयाब रहीं। अपने अतुलनीय योगदान के बावजूद इतिहास में उपेक्षित नानाजी का किरदार अनुपम खेर ने निभाया। बाद में प्रधानमंत्री बने इंदर कुमार गुजराल के अपमान के प्रकरण को फिल्म में जगह दी गयी है। ऐतिहासिक डायनामाइट केस को भी कुछ नाटकीयताओं के साथ पेश किया गया। सूफियाना कलाम ‘चढ़ता सूरज धीरे धीरे ढलता है ढल जाएगा’ के जरिये फिल्म ने निरंकुशता के उदय और अंत पर जमकर चुटकी ली।

ब्रिटिश दौर से आपातकाल तक

वास्तव में आजादी की लड़ाई के दौरान ही फिल्मों को राजनीतिक हथियार बना लिया गया था। यहां तक कि दादा साहब फाल्के पौराणिक फिल्मों के जरिये ब्रिटिश सत्ता को असुरता का प्रतीक बता रहे थे। अछूत कन्या, सुजाता जैसी फिल्में गांधी की राजनीतिक विचारधारा का समर्थन थी। आजादी के बाद लीडर और नया दौर जैसी फिल्मों ने नेहरू के सपनों में उम्मीद दिखायी। पर सत्तर के दशक के आते आते सत्ता से समाज का मोहभंग होना आरंभ हो गया। इस दशक के मध्य में अमिताभ बच्चन का आक्रोश और केन्द्र में सत्ता परिवर्तन साथ साथ नजर आ रहे थे।

बाद के दौर की राजनीतिक फिल्मों में प्यासा, साहिब बीबी और गुलाम, गरम हवा, मोहनजोशी हाजिर हों, पार, जाने भी दो यारों जैसी अनेक फिल्मों का नाम लिया जा सकता है। प्यासा को देखकर नेहरू भड़क उठे थे और फिल्म आधी छोड़ दी थी।

मौजूदा राजनीतिक फिल्मों के इस दौर के अगुआ के तौर पर प्रकाश झा का नाम खुलकर लिया जा सकता है जिन्होंने राजनीति और आरक्षण जैसी फिल्मों से ठहरे पड़े पानी में पत्थर उछाला। मणिरत्नम की बांबे और रावण जैसी फिल्में भी कहीं न कहीं एक राजनीतिक दस्तावेज थी। इसी कतार में यंगिस्तान से लेकर परमाणु जैसी फिल्में शामिल हुईं। आपातकाल के दौरान बनी फिल्म ‘किस्सा कुर्सी का’ ने सत्ता पक्ष को इतना क्रोधित किया था कि इस फिल्म के प्रिंट तक जला दिये गये थे। विरोध की उग्र राजनीति आज भी जिंदा है। कहना यही है, दौर क्रिएटिव पालीटिकल कमेंट का है। लोकतंत्र है, जवाब क्रिएटिव ही होना चाहिये।


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