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अब भारत में ट्रायल के बिना भी आ सकेगी नई दवा

कैंसर, एड्स और हैपेटाइटिस जैसी बीमारियों की दवाओं के मामले पर तो खास तौर से यह नीति लागू होगी।

By Sachin BajpaiEdited By: Published: Mon, 17 Oct 2016 10:45 PM (IST)Updated: Tue, 18 Oct 2016 06:21 AM (IST)
अब भारत में ट्रायल के बिना भी आ सकेगी नई दवा

मुकेश केजरीवाल, नई दिल्ली। भारत में नई दवा और टीकों को मंजूरी देने के लिए अब स्थानीय स्तर पर क्लीनिकल ट्रायल की अनिवार्यता समाप्त हो सकती है। इस संबंध में शीर्ष तकनीकी सलाहकार बोर्ड ने फैसला किया है कि भारत में इंसान पर होने वाला तीसरे चरण का ट्रायल तभी अनिवार्य किया जाए, जब इसकी जरूरत हो। कैंसर, एड्स और हैपेटाइटिस जैसी बीमारियों की दवाओं के मामले पर तो खास तौर से यह नीति लागू होगी।

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भारत के औषधि महानियंत्रक (डीसीजीआइ) जीएन सिंह कहते हैं, 'अब हमारे यहां निगरानी का ढांचा काफी मजबूत हो गया है। जब ऐसा नहीं था तो हम सभी दवाओं का यहां तीसरे चरण का ट्रायल करवाते थे। अब इंडियन फार्मोकोपिया कमीशन फार्मोकोविजिलेंस के जरिए 202 केंद्रों पर निगरानी रख रहा है।' औषधि तकनीकी सलाहकार बोर्ड (डीटीएबी) ने अपनी बैठक में यह फैसला करने के बाद इस संबंध में केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय को भी प्रस्ताव भेज दिया है। इसके बाद की स्थिति के बारे में सिंह बताते हैं, 'नई व्यवस्था में अगर इंटरनेशनल काउंसिल ऑफ हार्मोनाइजेशन (आइसीएच) के देशों में इसे मंजूरी मिल गई है तो फिर हम उन्हीं के आंकड़ों पर विचार कर उसे मंजूरी दे सकते हैं। हालांकि उन मामलों में खास तौर पर पोस्ट मार्केटिंग सर्विलेंस पर ध्यान रखा जाएगा।' आइसीएच में अमेरिका, जापान, कनाडा और आस्ट्रेलिया के साथ ही यूरोपीय संघ भी शामिल है।

सिंह कहते हैं कि खास तौर पर कैंसर, हेपेटाइटिस और एड्स जैसी बीमारियों की दवा को ले कर यह नीति ज्यादा उपयोगी होगी। क्योंकि इनमें मरीजों को फेज तीन का क्लीनिकल ट्रायल पूरा होने में लगने वाले दो साल का इंतजार नहीं करना होगा। इसी तरह जिन बीमारियों के बहुत कम मरीज हैं, उनमें तो स्थानीय स्तर पर क्लीनिकल ट्रायल को अनिवार्य करना बिल्कुल उचित नहीं होगा। संसदीय समिति की ओर से इस संबंध में उठाए गए एतराज को ले कर पूछे जाने पर वे कहते हैं कि संसदीय समिति की सिफारिश आने के बाद से स्थिति काफी बदल चुकी है। इसी तरह समिति ने यह निर्देश उस समय की परिस्थिति में दिया था। इसके बाद गठित हुई रंजीत राय चौधरी समिति ने भी स्थानीय क्लीनिकल ट्रायल की अनिवार्यता समाप्त करने को कहा था। जिन मामलों में लगेगा कि यहां के लोगों के जेनेटिक पैटर्न या खाने-पीने की आदत आदि की वजह से खुराक बदल सकती है, तो उसके लिए ब्रीजिंग ट्रायल करवाया जाएगा।

चीन से निपटने की तैयारी

लगातार बदले रहे अंतरराष्ट्रीय माहौल में भारत अपने दवा उद्योग को किसी झटके से बचाने के लिए पूरी तरह जुट गया है। चीन से मिलने वाले थोक माल (एपीआइ) पर निर्भरता को देखते हुए केंद्रीय औषधि नियामक ने दवा निर्माताओं की बैठक बुलाई है। सरकार चाहती है कि इन्हें किसी भी स्थिति से निपटने के लिए पूरी तरह तैयार कर दिया जाए। इस बैठक में यह आकलन किया जाएगा कि अचानक चीन से एपीआइ की सप्लाई रुक जाने पर क्या-क्या तैयारियों की जरूरत है। इसके अलावा भी औषधि विभाग भारतीय दवा उद्योग को आत्म निर्भर बनाने की दीर्घकालिक योजना पर काम कर रहा है। जिसमें विशेष जोन तैयार कर उन्हें यह काम स्थानीय रूप से करने को प्रोत्साहित किया जाएगा।

चार गुनी तक महंगी हो सकती है

अगर चीन से थौक माल (एपीआइ) आना बंद हो जाए तो अधिकांश दवाएं चार गुनी तक महंगी हो सकती हैं। इसका सबसे ज्यादा असर एंटी बायटिक पर होगा। इस बारे में पूछने पर औषधि नियामक कार्यालय के एक वरिष्ठ अधिकारी कहते हैं कि चीन से सप्लाई बंद होने पर ऐसी कोई दवा नहीं जिसे बनाने में कोई समस्या आए। लेकिन कीमत का मुद्दा तो है। भारतीय दवा उद्योग 59 से 60 फीसदी थौक माल (एपीआइ) चीन से मंगवा रहा है। जबकि लगभग 24 फीसदी इटली और दूसरे यूरोपीय देशों से आ रहे हैं।


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