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हौसला हो तो जिंदगी के वायरस भी निकलते हैं

मुंबई [ओमप्रकाश तिवारी]। सिर्फ एक दशक में अपनी मेहनत के बलबूते 120 वर्ग फुट की खोली से 230 करोड़ रुपये वार्षिक के व्यवसाय तक पहुंचना हंसी खेल नहीं हो सकता। यह तभी संभव है, जब एक पत्थर उछाल कर आसमान में छेद करने का हौसला मन में हो।

By Edited By: Published: Thu, 24 Jan 2013 06:43 PM (IST)Updated: Thu, 24 Jan 2013 06:58 PM (IST)
हौसला हो तो जिंदगी के वायरस भी निकलते हैं

मुंबई [ओमप्रकाश तिवारी]। सिर्फ एक दशक में अपनी मेहनत के बलबूते 120 वर्ग फुट की खोली से 230 करोड़ रुपये वार्षिक के व्यवसाय तक पहुंचना हंसी खेल नहीं हो सकता। यह तभी संभव है, जब एक पत्थर उछाल कर आसमान में छेद करने का हौसला मन में हो।

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कंप्यूटर एंटी वायरस क्विक हील के निर्माता संजय काटकर की कहानी ऐसी ही है। सिर्फ दसवीं तक पढ़ाई करके कैलकुलेटर की मरम्मत से अपना करियर शुरू करनेवाले कैलाश ने कभी स्वयं भी उस बुलंदी का सपना नहीं देखा होगा, जहां आज वह हैं।

महाराष्ट्र के सतारा जिले के छोटे से गांव रहिमतपुर में जन्मे कैलाश (45) के पिता पुणे स्थित फिलिप्स कंपनी में मशीन सेटर थे। पिता की आमदनी इतनी नहीं थी कि बेटे को ज्यादा पढ़ा सकें। लिहाजा दसवीं की पढ़ाई पूरी करने के बाद ही कैलाश ने एक दुकान में कैलकुलेटर मैकेनिक की नौकरी कर ली। यह बात 1987 की है। 1990 में पुणे में ही अपनी दुकान खोलकर कैलकुलेटर ठीक करते-करते वह रेडियो, टेपरिकॉर्डर, टेलीविजन एवं कंप्यूटर भी ठीक करने लग गए।

उसी दौरान कैलाश के छोटे भाई संजय ने 12वीं पास किया था। देश में कंप्यूटर क्रांति की शुरुआत हो चुकी थी। इसलिए कैलाश ने संजय को ग्रेजुएशन में कंप्यूटर साइंस लेने के लिए प्रेरित किया। कैलाश की दुकान चल निकली थी, इसलिए फीस की चिंता नहीं थी। भाई कॉलेज में पढ़ाई करता और खाली समय में दुकान में बैठकर कैलाश की मदद भी करता। उन दिनों कंप्यूटर में कोई वायरस घुस जाए तो उसे ठीक करने के लिए एंटी वायरस 16 हजार रुपये का आता था। कैलाश की दुकान में आनेवाले ज्यादातर कंप्यूटर वायरस की बीमारी से ही ग्रस्त होते थे। संजय ने जल्दी ही एक ऐसा तरीका खोज निकाला, जिससे कंप्यूटर में आया वायरस हटाया जा सके।

धीरे-धीरे संजय ने अलग-अलग तरह के वायरसों के लिए अलग-अलग टूल विकसित कर लिए। जब कैलाश के ग्राहकों को इससे फायदा होने लगा तो दोनों भाइयों ने मिलकर 1995 में क्विक हील का पहला एंटी वायरस सीडी तैयार किया। एक दोस्त की मदद से किसी सरकारी कंपनी में 25 सीडी का पहला ऑर्डर मिला। लेकिन अगले पांच साल तक सीडी बिकने की गति इतनी धीमी रही कि दोनों भाई दुकान बंद कर कहीं नौकरी करने का इरादा बनाने लगे। क्योंकि उन्हें एंटीवायरस बनाना तो आता था, लेकिन बेचना नहीं आता था। आखिरी कोशिश के रूप में कैलाश ने बड़ी मुश्किल से जुटाई कुछ पूंजी से मुंबई के एक अंग्रेजी दैनिक में आधे पेज का विज्ञापन दे डाला।

विज्ञापन ने असर दिखाया। विपणन के लिए कैलाश को कुछ अच्छे लोग मिले, और सीडी बिकना भी शुरू हो गया। 2002 में लगभग शून्य पूंजी से शुरू हुआ यह सफर आज 200 करोड़ रुपयों से ज्यादा के वार्षिक व्यवसाय तक पहुंच चुका है।

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