Move to Jagran APP

वैवाहिक जीवन में केवल महिलाएं ही नहीं होती प्रताि‍डि़त, पुरुषों भी सहते हैं प्रताड़ना

महिलाओं को उत्पीड़न से बचाने के लिए अनेक कानून हैं, लेकिन यदि पुरुष प्रताड़ित हो रहा हो तो? लिहाजा कई पुरुष बेहद खतरनाक राह अपनाते हैं जिस पर विचार करना जरूरी है।

By Kamal VermaEdited By: Published: Tue, 11 Sep 2018 02:13 PM (IST)Updated: Tue, 11 Sep 2018 02:13 PM (IST)
वैवाहिक जीवन में केवल महिलाएं ही नहीं होती प्रताि‍डि़त, पुरुषों भी सहते हैं प्रताड़ना
वैवाहिक जीवन में केवल महिलाएं ही नहीं होती प्रताि‍डि़त, पुरुषों भी सहते हैं प्रताड़ना

विनय जायसवाल। कानपुर (पूर्वी) के पुलिस अधीक्षक सुरेंद्र दास का नौ अगस्त को निधन हो गया। भारतीय पुलिस सेवा के 2014 बैच के अधिकारी दास ने पांच सितंबर को जहर खा लिया था। बताया जा रहा है कि घरेलू कलह के कारण उन्होंने आत्महत्या की है। पिछले साल इसी तरह से बिहार के आइएएस अधिकारी मुकेश कुमार ने पति से विवाद के चलते गाजियाबाद रेलवे स्टेशन के पास ट्रेन से कटकर अपनी जान दे दी थी। सुरेंद्र दास और मुकेश कुमार देश की प्रशासनिक व्यवस्था के उन बड़े ओहदों पर थे, जहां पहुंचने के लिए लोग सर्वाधिक परिश्रम करते हैं। लेकिन सच यही है कि जो जितने ऊंचे पद पर बैठा होता है और जिसकी बाहरी दुनिया ‘लोग क्या कहेंगे’ पर ज्यादा निर्भर होती है, वह व्यक्तिगत और मानसिक रूप से उतना ही कमजोर होता जाता है। इसकी एक और बड़ी वजह यह है कि आज भी यह मानकर चला जाता है कि पारिवारिक और वैवाहिक जीवन में केवल महिलाएं ही प्रताड़ित होती हैं।

loksabha election banner

वैवाहिक कानून

इसी मानसिकता के चलते हमारे देश में जितने भी वैवाहिक कानूनों का विकास किया गया है, उसका जोर महिलाओं को न्याय दिलाने से ज्यादा इस बात पर रहा कि पुरुषों को बिना किसी सुनवाई का मौका दिए सामाजिक और कानूनी रूप से अपराधी बना दो। ऐसे में घरेलू कलह या पति से झगड़ा होने पर पुरुषों को अंधेरा नजर आता है। किससे क्या कहें, कहां जाएं। नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो 2015 के आंकड़ों के अनुसार इस साल करीब 65,000 विवाहित पुरुषों ने आत्महत्या की। साथ ही देश में कुल आत्महत्या में से करीब एक तिहाई की वजह घरेलू कलह और वैवाहिक विवाद है। इस दौरान पुरुषों द्वारा की गई कुल आत्महत्याओं में से करीब 87 फीसद 18 से 60 आयुवर्ग के पुरुषों द्वारा की गई है।

बढ़ता तनाव

वैवाहिक और पारिवारिक जीवन में बढ़ते तनाव और कलह का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जहां करीब एक दशक पहले एक हजार में मुश्किल से एक विवाहित जोड़ा तलाक के लिए कोर्ट जाता था, वहीं अब यह आंकड़ा प्रति हजार करीब 15 हो गया है। कारण जो भी हो, भारत में विवाह अब पारिवारिक पहलुओं से हटकर कानूनी पेचदगियों में फंसने लगा है। बड़े शहरों में हर महीने सैकड़ों की संख्या में तलाक के केस फाइल किए जाते हैं। देश में आज ऐसे पुरुषों की संख्या लाखों में है, जो अपने वैवाहिक जीवन से दुखी हैं और तलाक लेने की मनोस्थिति से लगभग रोज गुजरते हैं। वह यह कदम नहीं उठा पाते क्योंकि उन्हें डर होता है कि उनका पक्ष सुने बिना ही उन्हें क्रूर करार दिया जाएगा।

हिम्‍मत दिखाने का अपराध

इसके अलावा अगर कोई पुरुष बहुत ही अधिक प्रताड़ित होकर, किसी तरह से हिम्मत दिखाता भी है तो उसे तुरंत आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 125 (भरण-पोषण), भारतीय दंड संहिता 498ए (पति और उसके नातेदारों के साथ क्रूरता), 406 (अमानत में खयानत), हिंदू विवाह अधिनियम 1956 की धारा 24 (भरण-पोषण और वाद खर्च), घरेलू हिंसा अधिनियम 2005 के तहत अत्यधिक प्रताड़ना झेलनी पड़ती है और बिना किसी अपराध के मुकदमा लड़ने की सजा भुगतनी पड़ती है। हाल के वषों में न्यायपालिका ने 498ए और संबंधित धाराओं के दुरुपयोग को देखते हुए पुलिस और नीचे की अदालतों से पारिवारिक विवादों के मसले पर संवेदनशीलता बरतने के निर्देश दिए हैं। पिछले साल जस्टिस यू के गोयल और यू यू ललित ने राजेश शर्मा बनाम उत्तर प्रदेश सरकार के 498ए से जुड़े मामले के अपने फैसले में हर जिले में ‘परिवार कल्याण समिति’ गठित करने, हर क्षेत्र में एक विशेष जांच अधिकारी नियुक्त करने, जमानत की प्रक्रिया एक दिन में पूरी करने, परिवारजनों को व्यक्तिगत उपस्थिति के लिए मजबूर न करने तथा वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग से भी ट्रायल करने का निर्देश दिया है।

जिला न्‍यायालय 

जिन मामलों में पक्षकार समझौता चाहते हैं, उसमें जिला न्यायालय ही मामलों को बंद कर सकती है, अब इसके लिए हाइ कोर्ट नहीं जाना पड़ेगा। न्यायालय ने अपने फैसले में कहा है कि अगर जिला न्यायालय किसी निजी शिकायत को अत्याचारपूर्ण अथवा दमघोंटू पाता है तो वह उसे खारिज करने का अधिकार रखता है। हालांकि इस फैसले पर सुप्रीम कोर्ट की तीन सदस्यीय पीठ पुनर्विचार कर रही है। सुप्रीम कोर्ट ने 2010 में प्रीती गुप्ता बनाम झारखंड सरकार मामले में केंद्र सरकार को निर्देश दिया था कि वह 498ए की तरह विवाहित पुरुषों की पत्नियों और उनके मायके वालों की क्रूरता से रक्षा के लिए समान प्रावधान करे लेकिन आठ साल होने के बावजूद सरकार ने कुछ नहीं किया और सुप्रीम कोर्ट ने भी सरकार से नहीं पूछा।

जेंडर के आधार पर भेदभाव

498ए जेंडर के आधार पर भेदभावकारी है लेकिन इसकी संवैधानिकता के सवालों पर सुप्रीम कोर्ट चुप है? आज तक यह नहीं बताया गया कि वह कौन सा सर्वे अथवा शोध है, जिस आधार पर तय किया गया कि केवल पति और उसके नातेदार ही क्रूरता कर सकते हैं लेकिन पति और उसके नातेदार नहीं। पति को उसके पति और उसके नातेदारों की क्रूरता से संरक्षण प्रदान करना और पति को पति और उसके रिश्तेदारों की क्रूरता से बचाने का कोई उपाय न करना, पूरी तरह से मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है। आखिर समान अपराध के लिए लैंगिक आधार पर भेदभाव कैसे किया जा सकता है? 498ए केवल पति और नातेदारों पर लागू होना संवैधानिक और कानूनी गलती दोनों है। इस तरह का विभेदकारी कानून होने के चलते ही सुरेन्द्र और मुकेश जैसे देश के प्रतिभावान लोग अपनी जान तक दे चुके हैं।

विवाद का ताना-बाना

देश में पुरुष और महिला को अलग-अलग कर कानून लाने समाज में महिला और वैवाहिक विवादों के इतने केंद्र और इतने नियम बना दिये गए हैं कि एक बार कानूनी विवाद शुरू होने के बाद इस दलदल से निकल पाना मुश्किल हो जाता है। इसके लिए जरूरी है कि वैवाहिक विवादों से जुड़े सारे मसलों के लिए एकीकृत कानून और एक फोरम बनाया जाय, जो जेंडर न्यूट्रल हो। इसलिए भारतीय न्यायपालिका से उम्मीद है कि वह जल्द से जल्द 498ए की संवैधानिक वैधता पर विचार करे। इसके साथ ही सरकार और संसद से भी उम्मीद है कि भारतीय पारिवारिक व्यवस्था के लिए 498ए में संशोधन पर विचार करे और उसे जमानतीय बनाए।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)


Jagran.com अब whatsapp चैनल पर भी उपलब्ध है। आज ही फॉलो करें और पाएं महत्वपूर्ण खबरेंWhatsApp चैनल से जुड़ें
This website uses cookies or similar technologies to enhance your browsing experience and provide personalized recommendations. By continuing to use our website, you agree to our Privacy Policy and Cookie Policy.