सात ग्रामीणों की हत्या के लिए NHRC ने प्रशासन को माना दोषी, जानें पूरी कहानी
घटना में पुलिस और प्रशासन के आला अधिकारियों की संलिप्तता के साथ ही तत्कालीन राज्य सरकार को भी कटघरे में खड़ा किया है।
बिलासपुर, राज्य ब्यूरो। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (एनएचआरसी) ने अपने महत्वपूर्ण फैसले में कहा है कि छत्तीसगढ़ में सुकमा जिले के ग्राम कोंडासावली,कर्रेपारा और कामरागुडा गांवों में 2007 में सलवा जुडूम (नक्सलियों के खिलाफ आंदोलित लोगों का समूह) और स्थानीय विशेष पुलिस अधिकारी ने 95 घरों को जलाया। इस दौरान सात ग्रामीणों की जान चली गई। आयोग ने इसके लिए प्रशासन को जिम्मेदार ठहराया। घटना में पुलिस और प्रशासन के आला अधिकारियों की संलिप्तता के साथ ही तत्कालीन राज्य सरकार को भी कटघरे में खड़ा किया है। आयोग ने मृतकों के परिजनों को पांच-पांच लाख रुपये का मुआवजा तत्काल प्रभाव से देने के निर्देश भी दिए हैं।
आयोग ने सुकमा जिले में 12 साल पहले हुए मामले में सुनाया फैसला
गौरतलब है कि हाई कोर्ट की अधिवक्ता सुधा भारद्वाज ने घटना के बाद राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग में इस मामले की जांच की मांग की थी। दरअसल, 2007 में आगजनी और हत्या की घटना के बाद तीनों गांवों के ग्रामीण दहशत के कारण गांव छोड़कर चले गए थे। कुछ वर्ष बाद जब सलवा जुडूम की मुहिम खत्म हुई और सब-कुछ ठीक होने लगा तब ग्रामीण गांव की ओर लौटे । घटना के छह साल बाद ग्रामीणों ने हिम्मत जुटाई और घटना की शिकायत के लिए सरपंच का संरक्षण मांगा । तब 2013 में सरपंच ने पुलिस थाने में लिखित शिकायत दी थी। शिकायत की जांच के बजाय ग्रामीणों पर एक बार फिर कहर बरपाया गया।
पूर्व की घटना में जान गंवाने वाले एक ग्रामीण की पत्नी की हत्या कर दी गई। ग्रामीणों को पीटा गया। परेशान ग्रामीणों ने हाई कोर्ट की वकील सुधा भारद्वाज से मदद मांगी। उन्होंने राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग से शिकायत की। शिकायत को आयोग ने गंभीरता से लिया और संबंधितों से पूछताछ भी की। आयोग की निगरानी में सुकमा पुलिस ने ग्रामीणों की शिकायत पर एफआइआर दर्ज पर जांच के बजाय उसे ठंडे बस्ते में डाल दिया। स्थानीय प्रशासन की लापरवाही को देखते हुए आयोग ने इस पूरे मामले की स्वयं जांच की और अपना फैसला भी सुना दिया है।
मानवाधिकार आयोग के दांत आज भी नहीं, पर उग रहे : जस्टिस दत्तू
राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष जस्टिस एचएच दत्तू का कहना है कि आयोग के दांत शायद आज भी नहीं हैं, पर उगने लगे हैं। मैंने जब आयोग का पदभार संभाला था तभी ये बातें कही थीं। आज भी इस पर कायम हूं, लेकिन अब परिस्थितियां बदल रही हैं। हमें अभी सिर्फ अनुशंसा का अधिकार है, पर राज्य या संस्था उसे माने यह बाध्यता नहीं है। हालांकि, आयोग की सिफारिशों को माने जाने की दर 99 फीसद है। केंद्र सरकार से अधिकार को लेकर आग्रह किया गया है।