जब लाहौर से महज 11 किमी ही दूर थे कि युद्ध विराम हो गया था नहीं तो...
गांव अटाली के प्रेम सिंह ऐसे सैन्य अधिकारी हैं जिन्होंने पाकिस्तान के साथ दो चीन के साथ एक युद्ध में भाग ले चुके हैं।
सुभाष डागर, बल्लभगढ़ (फरीदाबाद)। सेना में रहते हुए शायद ही किसी सैनिक को चार युद्धों में शामिल होने का सौभाग्य प्राप्त होता होगा। गांव अटाली के प्रेम सिंह ऐसे सैन्य अधिकारी हैं जिन्होंने पाकिस्तान के साथ दो, चीन के साथ एक युद्ध में भाग ले चुके हैं। इनके अलावा वे गोवा आपरेशन में भी शामिल हो चुके हैं। वे टैंक पर गनर थे। इस कारण वे लगातार मशीनगन से दुश्मनों पर सीधा निशाना साधकर अपने जौहर खूब दिखाए।
उन्हें मलाल है कि वे पाकिस्तान के साथ हुए युद्ध में अपने टैंक के साथ लाहौर के करीब तक पहुंच गए थे। जब वे लाहौर से मात्र 11 किलोमीटर दूर थे तभी युद्ध विराम की घोषणा हो गई और युद्ध बंद कर दिया। युद्ध में जीता हुआ भाग दोबारा पाकिस्तान को दे दिया गया। वे कहते हैं यदि उस समय के जीते हुए भाग को नहीं लौटाते तो शायद पाकिस्तान कब का बर्बाद हो गया होता।
गोवा को भारत में शामिल करने के लिए करना पड़ा था हमला
प्रेम सिंह बताते हैं कि गोवा में पुर्तगाली रहते थे। पुर्तगालियों ने गोवा पर कब्जा नहीं छोड़ा था। इसे भारत में शामिल करने में वे बड़ी बाधा थे। गोवा को भारत में शामिल करने के लिए हमने हमला कर दिया। इस दौरान मेरी गोली सीधे उन्हें लगती थी। किसी को बताने की जरूरत नहीं होती थी कि गोली कहां मारनी है। गनर सीधा हमला करता है। हमने पुर्तगालियों को गोवा से खदेड़कर ही दम लिया और गोवा को भारत में शामिल कर लिया। तब भारत के प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू थे।
रैपिड फायर में हमारे सभी साथी शहीद हो गए थे
वे बताते हैं कि पाकिस्तान के साथ 1965 का युद्ध चल रहा था। 18 सितंबर की रात के अंधेरे में हम मोटरसाइकिलों के जरिये अंधेरी रात में भी लगातार भोजन की आपूर्ति कर रहे थे। तभी रैपिड फायर हुआ। इसमें हमारे सभी साथी शहीद हो गए। सिर्फ मैं बच गया। मैं रात के अंधेरे में कोहनियों और घुटनों के बल चलकर अपनी कंपनी में जाकर शामिल हुआ था। ये घटना बाघा बॉर्डर के नजदीक की है। घटनास्थल के पास शहीद-ए-आजम भगत सिंह, राजगुरु, सुखेदव की मूर्तियां लगी हुई हैं। पहले यह स्थान पाकिस्तान में पड़ता था। बाद में भारत ने शहीदों के समाधि स्थल को अपने देश में शामिल कर लिया। शहीदों के इस जमीन के बदले कुछ जमीन पाकिस्तान को दी गई थी। उस दिन को याद करते हुए उनकी आंखें आज भी नम हो जाती हैं।
वे बताते हैं कि 1971 में वे टैंक पर गनर थे। जिस गांव के अंदर वे घुसे थे, उसमें कोई व्यक्ति नहीं था और न ही कोई जानवर दिखाई दे रहा था। अचानक उनकी आंख एक मुर्गे पर पड़ी। मुर्गा देखने से विश्वास हुआ है कि यहां अवश्य कोई व्यक्ति है। उन्होंने देखा तो वहां पर एक बुजुर्ग पाकिस्तानी था। हमने उससे पाकिस्तानी सेना व अन्य जानकारी जुटानी चाही, लेकिन उसने कुछ नहीं बताया। उससे भारत मां की जय कहने के लिए कहा, लेकिन उसने ये भी नहीं कहा। जब वह कुछ भी कहने के लिए तैयार नहीं हुआ तो उसे पेड़ से बांधकर टैंक के गोले से उड़ा दिया गया। गोला से सिर्फ उसके हाथ बचे थे और पूरा शरीर जल कर राख हो गया।
मेरा बेटा सरजीत 12 वर्ष से कोमा है। उसकी 2009 गांव चंदावली के पास हुई सड़क दुर्घटना में सोचने-समझने की शक्ति चली गई। अब उसका ध्यान रखना पड़ता है। तब से लगातार शारीरिक और मानसिक रूप से गिरावट आती जा रही है। युद्धों की जंग तो जीत ली, लेकिन बेटे के जीवन की जंग में संघर्ष बना हुआ है।
-प्रेम सिंह, अटाली
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