युवाओं के लिए संदेश- कर्मठता की राह से होकर जाती है तरक्की
करीब सवा पांच साल आइआइटी रुड़की के डायरेक्टर रहे प्रो. एस.सी. सक्सेना अभी नोएडा स्थित जेपी इंस्टीट्यूट ऑफ इंफॉर्मेशन टेक्नोलोजी के वाइस चांसलर हैं।
नई दिल्ली, जेएनएन। उत्तर प्रदेश के शाहजहांपुर के गांव के उस बच्चे को अपने सफर के बारे में कुछ भी पता नहीं था, लेकिन पूरी तरह कर्म में विश्वास रखते हुए वे बढ़ते रहे। टेक्निकल पढ़ाई करने के बाद इंजीनियरिंग की कई नौकरियां करते हुए अंतत: अपने मन के काम टीचिंग में आए और करीब सवा पांच साल आइआइटी रुड़की के डायरेक्टर रहे। कर्मठता की राह पर चलते हुए आज वे नोएडा स्थित जेपी इंस्टीट्यूट ऑफ इंफॉर्मेशन टेक्नोलॉजी (डीम्ड टु बी यूनिवर्सिटी) के वाइस चांसलर हैं। जी हां, हम बात कर रहे हैं प्रो. एस.सी. सक्सेना की। आज उन्हीं से जानते हैं उनके बचपन से अब तक के सफर के बारे में, जिससे युवाओं को भी तरक्की के कई संदेश मिलते हैं...
...हनुमान चालीसा पढ़ते हुए लगाते थे दौड़
मेरा जन्म उत्तर प्रदेश के एक गांव में 22 मार्च, 1949 को हुआ था। शाहजहांपुर जिले में गंगा के किनारे के एक गांव नरौरा में। मेरे पिता पटवारी थे। दादाजी के जल्दी निधन के बाद उन्हें यह नौकरी मिली थी। पिताजी की पदोन्नति कानूनगो पद पर और फिर तहसीलदार पद पर हुई। जब वे कानूनगो थे, तो उनका स्थानांतरण होता रहता था। उनके साथ हम भी मूव करते रहते थे। मैंने पांचवीं तक की पढ़ाई गांव में रहकर की। स्कूल 5 किलोमीटर दूर था। पैदल जाना पड़ता था। बैठने के लिए चटाई लेकर जाते थे। रास्ते में एक तालाब पड़ता था। कहते थे कि वहां एक भूत रहता है। हम बच्चे वापसी में जब वहां पहुंचते थे, तो हनुमान चालीसा पढ़ते हुए वहीं से घर तक दौड़ लगाते थे। चप्पल हाथ में लेकर।
रैगिंग के चलते 15-20 दिन में ही लौट आए घर
उसके बाद पांचवीं से लेकर बारहवीं तक मुरादाबाद में पढ़ाई की। उस समय मुझे इंजीनियरिंग के बारे में कुछ भी पता नहीं था। उस दौरान पिता बुलंदशहर में कानूनगो थे। एक दिन गांव में हमारे घर के बाहर कई पटवारी बैठे थे। उनमें से एक जागरूक पटवारी ने पिताजी से पूछा, बाबूजी आपका बेटा क्या कर रहा है? उन्होंने बताया कि अभी इंटर किया है और आगे बीएससी करेगा। फिर टीचर वगैरह बन जाएगा। उसी ने कहा कि आजकल इंजीनियरिंग का बड़ा क्रेज है, क्यों नहीं इसे इंजीनियरिंग ही करा देते। पिताजी ने कहा, मुझे तो कुछ नहीं पता, तुम देख लो। पटवारी साहब ने ही तीन जगह के रीजनल इंजीनियरिंग कॉलेज का फॉर्म भरवा दिया। गोरखपुर के मदन मोहन मालवीय इंजीनियरिंग कॉलेज से बुलावा आ गया। वहां दाखिला भी मिल गया। पर वहां रैगिंग बहुत होती थी। इस कारण मैं 15-20 दिन बाद ही वहां से लौट आया।
यूं मिला बीटेक में प्रवेश
पिताजी ने काफी समझाया और फिर वहां छोड़ गए। उसी दौरान इलाहाबाद के मोतीलाल नेहरू इंजीनियरिंग कॉलेज (अब एनआइटी) से भी बुलावा आ गया। मैं पिताजी के साथ वहां गया। वहां बताया गया कि प्रिंसिपल से मिल लो। अगर वह जगह होने के बारे में लिखकर दे देंगे, तो दाखिला हो जाएगा। हम इक्के से संगम के किनारे रहने वाले प्रिंसिपल साहब के घर पहुंचे। वहां पिताजी ने उनसे बात की। उन्होंने लिखकर दे दिया कि जिसमें सीट खाली हो, उसमें प्रवेश दे दिया जाए। फीस काउंटर पर क्लर्क ने बताया कि इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग में जगह है। अंतत: उसी में बीटेक में प्रवेश ले लिया। वहां चार साल पढ़ाई की। सेशन 6 माह लेट गया, क्योंकि वहां हड़ताल बहुत होती थी। इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग के लोगों को तब नौकरी जल्दी नहीं मिलती थी। हालांकि मुझे जेई/ओवरसियर की नौकरी मिल गई।
इलाहाबाद से रुड़की
मैंने नौकरी तो कर ली थी, पर मुझे इससे संतोष नहीं था। मुझ से लोग कहते थे कि जहां से शुरू करोगे, उतना ही ऊपर जाओगे। यह सोच कर मैंने नौकरी छोड़ दी और रुड़की इंजीनियरिंग कॉलेज से एमटेक के लिए चल पड़े। पंजाब मेल प्रतापगढ़ से मिलती थी। मेरे पास एक टिन का बक्सा और बेडरोल था। रुड़की छोटी जगह थी। रात दो-ढाई बजे वहां ट्रेन पहुंची, तो वहां स्टेशन पर लालटेन जल रही थी। लोगों ने रात में बाहर जाने से मना किया। सुबह हॉस्टल पहुंचे। उसी बीच इलाहाबाद में भी एमटेक शुरू हो गया था, तो वहां चले गए। लेकिन फिर वापस रुड़की आ गए।
इंजीनियरिंग की नौकरियों में नहीं रमा मन
एमटेक पूरा करने के बाद मुझे चार नौकरियां मिलीं। पहली नौकरी दुर्गापुर स्टील प्लांट में मिली। वहां एमटेक को काफी पढ़ा-लिखा माना जाता था। हम पीजी ट्रेनी थी। वहां देशभर के लोग मिलते थे। पर वहां भी मन नहीं लगा। इसके बाद भेल, हरिद्वार में नौकरी मिली। इसके बाद यूपी इलेक्ट्रिसिटी बोर्ड में एई पद पर चयन हो गया। जब लखनऊ के सरोजनी नगर में ट्रेनिंग के लिए पहुंचे तो वहां अपने से कमजोर लोगों को बड़े पद पर देखा। फिर उसे भी छोड़ दिया।
टीचिंग बना टर्निंग प्वाइंट
लखनऊ के बाद सीधे पहुंच गए रुड़की। वहां अपने जानकार एचओडी से मिले। उनसे आग्रह किया कि मुझे किसी भी तरह पढ़ाने के लिए रख लीजिए। उन्होंने कहा कि अच्छा एक एप्लीकेशन लिख दो। डायरेक्टर से मिलकर बात करता हूं। आखिर मुझे वहां एडहॉक रख लिया गया। मैंने 1976 में पीएचडी कर ली। मैंने बायोमेडिकल इंजीनियरिंग में पीएचडी की। इसके आधार पर प्रमोशन मिल गया, जिससे मैं वहां पहले से पढ़ा रहे अध्यापकों से काफी आगे हो गया। यह मेरी टीचिंग लाइफ का टर्निंग प्वाइंट था। उसी दौरान मैं रीडर हो गया। हालांकि मैंने खुद को टीचिंग तक ही सीमित नहीं रखा। मैं प्रशासनिक कार्य भी संभालता रहा। इस दौरान वार्डन, डीन आदि भी रहा। 1983 में जब इराक में युद्ध अपने चरम पर था, तो मैं वहां के मिलिट्री कॉलेज में भी पढ़ाने के लिए गया। बगदाद से तीन साल बाद लौटकर फिर रुड़की आया। तब भी मैं रीडर ही था। इसके बाद मैंने आइआइटी
रुडकी से ली वॉलंटरी रिटायरमेंट
बॉम्बे में प्रोफेसर पद के लिए आवेदन किया। वहां मिलने के लिए बुलाया गया। उसी दौरान मंडल आंदोलन शुरू हो गया था। जगह-जगह आगजनी हो रही थी। ट्रेने रद हो रही थीं। मैं स्टेशन आकर ट्रेन का इंतजार कर रहा था। उस समय दिमाग में आया कि मैं यहां इतने समय से हूं। सबको जानता हूं। सब मुझे जानते हैं। वहां जाने पर फिर जीरो से शुरुआत करनी होगी। यह सोचकर मैंने जाने का इरादा छोड़ दिया। 1994 में मुझे एआइसीटीई में सलाहकार बनने का प्रस्ताव मिला, जिसे मैंने स्वीकार कर लिया। पर मेरा परिवार रुड़की में रहा। मैं वहां से सोमवार को सुबह आता और फिर शुक्रवार शाम को जाता। इस बीच मेरी अनुपस्थिति में बेटी काफी बीमार रहने लगी। इसके बाद मैं दो साल का अवकाश लेकर पंजाब के थॉपर कॉलेज में डायरेक्टर बनकर चला गया। फिर मैंने रुड़की से वालंटरी रिटायरमेंट ले लिया।
चार साल बाद वहां डायरेक्टर की जगह खाली हुई। मुझ से आवेदन के लिए कहा गया। मैंने किया और 2006 में मुझे डायरेक्टर चुन लिया गया। इस पद पर मैं वहां सवा पांच साल रहा। इसी बीच इसे आइआइटी का दर्जा भी मिल गया। तब वहां चेयरमैन जयप्रकाश गौड़ साहब थे। उनका भी गांव गंगा के इस छोर पर था। उनसे मेरी गहरी छनती थी। वह मुझे पहले से ही काफी सम्मान देते थे। रुड़की से रिटायर होने के बाद उन्होंने मुझे जेपी ग्रुप के संस्थानों को निदेशक और वीसी के रूप में संभालने का प्रस्ताव दिया। मैंने 2011 में इसे स्वीकार कर लिया और तब से यहां के सभी संस्थानों का मार्गदर्शन कर रहा हूं।
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