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प्रदूषण कम करने के लिए कागजों पर बनती हैं योजनाएं, गंभीरता से नहीं हो रहा अमल, सांस लेना मुश्किल

दिल्ली-एनसीआर में प्रदूषण का अपेक्षित स्तर कम नहीं होना चिंताजनक है। तीन वर्ष से किए जा रहे प्रयास के बावजूद दिल्ली में कमोबेश हर नागरिक प्रदूषित हवा में ही सांस लेने को मजबूर है। योजनाएं तो बहुत हैं लेकिन गंभीरता से उन पर अमल नहीं हो पा रहा है।

By Vinay TiwariEdited By: Published: Wed, 04 Nov 2020 03:55 PM (IST)Updated: Wed, 04 Nov 2020 03:55 PM (IST)
प्रदूषण कम करने के लिए कागजों पर बनती हैं योजनाएं, गंभीरता से नहीं हो रहा अमल, सांस लेना मुश्किल
दिल्ली-एनसीआर में प्रदूषण का अपेक्षित स्तर कम नहीं होना चिंताजनक है। (फाइल फोटो)

नई दिल्ली [संजीव गुप्ता]। ग्रेडेड रिस्पांस एक्शन प्लान (ग्रेप) लागू हो जाने के तीन साल बाद भी दिल्ली-एनसीआर में प्रदूषण का अपेक्षित स्तर कम नहीं होना चिंताजनक है। तीन वर्ष से किए जा रहे प्रयास के बावजूद दिल्ली में कमोबेश हर नागरिक प्रदूषित हवा में ही सांस लेने को मजबूर है। ऐसा नहीं है कि इससे निपटने के लिए योजनाएं नहीं हैं। योजनाएं तो बहुत हैं, लेकिन गंभीरता से उन पर अमल नहीं हो पा रहा है। यह अलग बात है कि बीते कुछ सालों में विभिन्न वजहों से दिल्ली के प्रदूषण में कुछ कमी अवश्य आई है। 

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दरअसल प्रदूषण से जंग में ईमानदारी और गंभीरता दोनों अनिवार्य हैं। सरकारी सक्रियता भी बहुत मायने रखती है। केंद्र सरकार कार्य योजना तैयार करती है, जबकि उन पर अमल करने की जिम्मेदारी राज्य सरकारों की होती है। प्रदूषण पर राजनीति ही नहीं, अमीर और गरीब का भेद खत्म करना भी जरूरी है। इसके अलावा दीर्घकालिक उपायों को गति देनी होगी। निगरानी और जन जागरूकता के साथ-साथ सख्त रवैया भी अपनाना होगा।

राज्य सरकारें नहीं है गंभीर :

दिल्ली-एनसीआर में प्रदूषण बढ़ने की वजह ग्रेप के क्रियान्वयन में हीलाहवाली है। विभाग द्वारा नियम-कायदे तो बना दिए गए हैं, मगर उन पर क्रियान्वयन करने वाली एजेंसियां निष्क्रिय नजर आ रही हैं। डीजल जेनरेटर पर प्रतिबंध सुनिश्चित करने को लेकर हर साल हरियाणा, उत्तर प्रदेश और राजस्थान सरकार हाथ खड़े कर देती है। ग्रेप के नियम लागू करने के लिए राज्य सरकार से लेकर स्थानीय निकाय में आपस में ही कोई तालमेल नहीं है।

हरियाणा, उत्तर प्रदेश और राजस्थान सरकार में से कोई एनसीआर की बिगड़ती आबोहवा को लेकर गंभीर नहीं है। इसका सबसे बड़ा प्रमाण यही है कि नवंबर 2016 से लेकर कुछ दिन पहले तक पर्यावरण संरक्षण एवं प्रदूषण नियंत्रण प्राधिकरण यानी ईपीसीए ने अनगिनत बैठकें कीं, लेकिन दिल्ली को छोड़ कोई भी राज्य अपने यहां की आबोहवा में सुधार नहीं कर पाया है। यहां तक कि बेहतर ढंग से वायु प्रदूषण की निगरानी तक नहीं हो पा रही है।

विभाग भी हैं लापरवाह :

ईपीसीए द्वारा तैयार किए गए ग्रेप के केंद्र में मूलतया राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र था, जबकि प्रदूषण की समस्या दिल्ली से लगते एनसीआर के जिलों से भी जुड़ी है। क्षेत्रीय वाहन भी राजधानी के प्रदूषण में अहम रोल अदा करता है। मसलन, दिल्ली में सार्वजनिक वाहन सिर्फ सीएनजी से ही चल सकते हैं, लेकिन दूसरे राज्यों के डीजल वाहन भी यहां धड़ल्ले से दौड़ते रहते हैं। ग्रेप के पालन में सख्ती का अभाव हमेशा खटकता रहा है। सख्ती न होने के कारण ही विभिन्न राज्यों में सामंजस्य नहीं रहता। नतीजा, हर साल लोगों को प्रदूषण का सामना करना पड़ता है।

विडंबना यह कि केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) की पेट्रोलिंग टीमें विभिन्न इलाकों का दौरा कर जो रिपोर्ट तैयार करती हैं, उसे कार्रवाई के लिए प्रदूषण बोर्ड को भेज दी जाती है। दिल्ली प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड इस रिपोर्ट को नगर निगमों के पास अग्रसारित कर देता है, जबकि नगर निगम की ओर से न तो उस पर कार्रवाई होती है, और न ही वापस जवाब भेजा जाता है। 

ग्रेप के पालन में राज्य सरकारें जहां राजनीतिक राग द्वेष भी साथ लेकर चल रही हैं, वहीं प्रदूषण बोर्ड स्वयं को अधिकार विहीन बताते हुए लाचार महसूस कर रहे हैं। यही वजह है कि किसी को कोई भय नहीं। पंजाब और हरियाणा में पराली जलाने की घटनाएं अभी भी सामने आ रही हैं। 

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