मुफ्त बिजली या फिर बिल में छूट के माध्यम से मतदाताओं को लुभाने की बढ़ती प्रवृत्ति
मुफ्त की राजनीति सिर्फ लालच भरी नहीं होती एक तरह से कुछ दिन या समय के लिए मनुष्य को सम्मोहित भी कर लेती है। किसी भी मुफ्त योजना के पीछे वोट का लेबल जरूर लगा रहता है। उस उत्पाद में छूट मुफ्त.. मुफ्त.. मुफ्त.. में पार्टी का ब्रांड होता है।
नई दिल्ली, मनु त्यागी। वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में गुजरात माडल देशभर में चर्चा में रहा और लोगों ने इसे हाथोंहाथ लिया। तब से लगभग हर पार्टी या फिर स्वयं को प्रधानमंत्री के उम्मीदवार के रूप में प्रस्तुत करने वाले या सपना देखने वाले मुख्यमंत्री चुनावी सफलता का शार्टकट माडल बनाने और उसके जरिये अपने वोटों का गणित बैठाने में जुटा है। इनमें से एक लोकलुभावन या फिर मुफ्तखोरी का माडल भी है। इसे वोटों की खरीद का माडल भी कह सकते हैं। लेकिन दिल्ली में सफलता के बाद अब हर राज्य में किसी न किसी बहाने मुफ्तखोरी का माडल प्रमोट करने की होड़ लग गई है। पंजाब, उत्तराखंड और गोवा के लिए 300 यूनिट मुफ्त बिजली की घोषणा हो गई। दिल्ली के बाद यही दांव अब दूसरे राज्यों में चला गया है। अच्छी बात है। जहां तक वोटरों में सियासी करंट दौड़ाने का सवाल है, तो इसकी घोषणा में भी करंट और तारतम्यता जरूरी है। ये सियासी करंट चुनाव के समय इन राज्यों में कितना हाइवोल्टेज ड्रामा उत्पन्न करेगा यह तो वक्त ही बताएगा।
फिलहाल एक राज्य से निकल केंद्र में सत्ता की बिसात तैयार करने को राज्य दर राज्य पैठ बनाने की रणनीति तेजी से चल रही है। हालांकि क्षेत्रीय राजनीतिक दलों का यह फार्मूला राष्ट्रीय राजनीति में अभी तक नाकाम ही रहा है। ऐसे लोकलुभावन वादों के दम पर राजनीति का शिखर फतह करने को छटपटा रहे दलों पर आज से तकरीबन 18 साल पहले भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी ने भी कटाक्ष किया था, ‘देशवासियों को देशहित में राष्ट्रीय दलों को ही वोट करना चाहिए। क्षेत्रीय दलों के मजबूत होने से केंद्र में मजबूत नहीं, बल्कि मजबूर सरकार बनती है।’ उनके इस बयान में आज की हकीकत भी साफ नजर आती है। आडवाणी ने हरियाणा के जिला पलवल की भूमि पर एक राजनीतिक आयोजन के दौरान यह बयान दिया था। हालांकि इसके बावजूद हरियाणा की भूमि से भी ऐसे ही बीज उपजे थे, जिन्होंने प्रदेश में पेंशन योजना को शुरू करने और किसानों के कर्ज माफी जैसी घोषणाओं के दम पर जनता का मन जीता था। यहां बात देवीलाल की हो रही है। जनता के प्रचंड बहुमत ने ऐसा हौसला बढ़ा दिया कि दांव केंद्र की राजनीति का लगा बैठे। लेकिन, ये जनता है सब जानती है, जो उसकी सुनता है उसे ही सालती है।
दरअसल, यहां देवीलाल यह भूल बैठे कि जनता ने उन्हें अपने लिए आगे बढ़ाया है। जन सवरेपरि सरोकार है, लेकिन यह भी सर्वविदित है कि सत्ता मिलते ही स्वार्थ की राजनीति हावी हो जाती है। तभी तो देवीलाल ने 1989 में केंद्र का रुख किया। केंद्र की सत्ता तक पहुंचे भी। उप-प्रधानमंत्री बने भी, लेकिन हरियाणा छूट गया। हालात ऐसे बने कि तीन साल बाद प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लागू हो गया। हरियाणा की जनता उन्हें भूल गई। आज उस पार्टी का हरियाणा में अस्तित्व तलाशने पर भी नहीं मिलता। आज इंडियन नेशनल लोकदल (इनेलो) का एक भी विधायक नहीं बचा है। हां, उनका प्रपौत्र जरूर जननायक जनता पार्टी (जजपा) के दम पर हरियाणा सरकार में हिस्सेदारी बनाए हुए है। देश में सबसे अधिक आबादी वाले राज्य उत्तर प्रदेश के ही क्षेत्रीय दलों को देख लीजिए। उनकी छटपटाहट भी कम नहीं रही। समाजवादी पार्टी ने छात्रों को मुफ्त लैपटाप और बेरोजगारी भत्ता बांटकर युवा और अभिभावकों को वोट के लिए सम्मोहित किया।
मुफ्त की राजनीति सिर्फ लालच भरी नहीं होती, एक तरह से कुछ दिन या समय के लिए मनुष्य को सम्मोहित भी कर लेती है। किसी भी मुफ्त योजना के पीछे वोट का लेबल जरूर लगा रहता है। उस उत्पाद में छूट, मुफ्त.. मुफ्त.. मुफ्त.. में पार्टी का ब्रांड होता है। इसकी बंदरबांट में जनहित, सामाजिक सरोकार, मौलिक सिद्धांत को छोड़ सबकुछ होता है। कमोबेश आजकल लगभग सभी पार्टयिां ऐसा करती हैं, लेकिन क्षेत्रीय पार्टयिों ने इसे फार्मूले की तरह अपनाया हुआ है, ताकि इसके जरिये राज्य या एक खास क्षेत्र से निकलकर केंद्र तक पहुंचा जा सके। बिलकुल वैसे ही जैसे क्रिकेट में रणजी टूर्नामेंट खेलने के बाद हर खिलाड़ी नेशनल टीम में शामिल होने का सपना देखने लगता है। यह जरूरी है, और देखना भी चाहिए, लेकिन हर कोई वहां चल पाए यह भी तो संभव नहीं। और यहां तो राजनीति का चौसर है। अब एकमात्र मुफ्तखोरी के फार्मूले के साथ अपने राज्य या फिर क्षेत्र की जनता कितने दिन आपको सिर आंखों पर बैठाएगी? आप वहां से गए तो समङिाए कि उस राज्य में आपको अपना अस्तित्व बचाए रखने में बड़ी मुश्किलों का सामना करना पड़ सकता है। पार्टी सिमटती, सिकुड़ती चली जाएगी। कम से कम अभी तक तो क्षेत्रीय राजनीतिक दलों का इतिहास यही दर्शाता है। समाजवादी पार्टी की ‘लैपटाप वाली तस्वीर’ से मुलायम सिंह यादव भी वर्ष 2014 के चुनाव में तीसरे मोर्चे के बूते केंद्र में मुंगेरी लाल की तरह हसीन सपने ही देखते रह गए थे। सिर्फ मुलायम ही नहीं, हर क्षेत्रीय दल का वरिष्ठ नेता प्रधानमंत्री बनना चाहता था।
निश्चित ही आम आदमी पार्टी के सपने भी कुछ ऐसे ही हैं, लेकिन क्या दिल्ली से किए वादे पूरे हो पाए हैं। जिन वादों की नींव अब दूसरे राज्यों में डाली जा रही है, जिनके बूते उत्तराखंड, पंजाब, गुजरात, गोवा और उत्तर प्रदेश में खुद को स्थापित करने का प्रयास किया जा रहा है, उनकी हकीकत दिल्ली जानती है। चाहे शिक्षा का माडल हो या मोहल्ला क्लीनिक और बात चाहे 200 यूनिट मुफ्त बिजली की हो, दिल्ली सब जानती है। राष्ट्रीय राजनीति का एजेंडा सिर्फ और सिर्फ विकास और विचारधारा का हो सकता है।