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राजनीति नहीं इस 'खेल' में मात खा गए केजरीवाल, देशभर में हो रही किरकिरी

दिल्ली सरकार खेल के प्रति सरकार इतनी उदासीन है कि एशियन खेल में पदक लाने वाली पहलवान दिव्या मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को फोन करती हैं और वो रिसीव नहीं करते।

By JP YadavEdited By: Published: Thu, 06 Sep 2018 12:36 PM (IST)Updated: Thu, 06 Sep 2018 12:53 PM (IST)
राजनीति नहीं इस 'खेल' में मात खा गए केजरीवाल, देशभर में हो रही किरकिरी
राजनीति नहीं इस 'खेल' में मात खा गए केजरीवाल, देशभर में हो रही किरकिरी

नई दिल्ली [नवीन गौतम]। एक खिलाड़ी घिस जाता है। पसीना बहाता है। जिंदगी-जज्बा-जुनून सब दाव पर लगाता है, तब जाकर पदक आता है। फिर पदक का रंग यदि तांबे का रह जाए तो उसे सोने में बदलने को, देश का मान बढ़ाने को जूझता है। पूरे देश की निगाहें उस पर टिकी हैं। खिलाड़ी ने पूरा समर्पण दिया। हाल ही में हुए एशियन खेल में पदक भी लाए। इस बार 15 स्वर्ण भी जीते लेकिन तालिका में फिर भी आठवें नंबर पर ही रहे। इसमें दिल्ली-एनसीआर के खिलाड़ी भी थे उन्होंने भी बेहतर खेला लेकिन दिल्ली सरकार ने, खेल विभाग ने क्या किया? यहां खेलों की सुविधाओं से खिलाड़ी मुतमइन नहीं है। आज भी खुद को तराशने के लिए प्रशिक्षण के लिए बाहर ही जाते हैं। नाम दिल्ली का ही करते हैं। जहां स्कूलों के स्तर पर ही खिलाड़ी तैयार होने चाहिए, वहां स्कूलों में महज 20 हजार ही बजट मिलता है। उसमें भी खेल के बजट में कितना खेल हो जाता है, यह स्कूल की सुविधाएं बयां कर देती हैं। जहां देश की राजधानी के नाते खेल में देश का मान बढ़ाने के लिए राज्य सरकार और खेल विभाग की सबसे अधिक तमहीद (भूमिका) होनी चाहिए वहां हम पदक जीतने वाले खिलाड़ियों का मान-सम्मान करने, उनका हौसला बढ़ाने तक की जहमत नहीं उठा रहे। बड़ा सवाल यह उठ रहा है कि आखिर सरकार खेलों के प्रति इतनी उदासीन क्यों हैं।

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पुरस्कार न रोजगार, ये है दिल्ली सरकार

दिल्ली में खेल के प्रति केजरीवाल सरकार कितनी सक्रिय है इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि एशियन खेल में पदक लाने वाली पहलवान दिव्या मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को फोन करती हैं और वो रिसीव नहीं करते। दिव्या ने नाराजगी जताते हुए उन्हें हरियाणा सरकार से सीख लेने की बात कही है। एक तरफ खिलाड़ी लंबे संघर्ष और जद्दोजहद के बाद पदक जीतकर लाते हैं तब भी इस तरह अनदेखी की जाती है तो उससे पहले सुविधाओं के प्रति इनकी कितनी सक्रियता होगी और खिलाड़ियों को तराशने के लिए सरकार ने कितनी पहल की होंगी।

देश की राजधानी तो खेल सुविधाओं के मामले में इतनी पिछड़ी हुई है कि यहां किसी भी स्टेडियम में विश्वस्तरीय सुविधाएं तो दूर, सही मायनों में बुनियादी खेल सुविधाओं का भी अभाव है और यह आलम इसलिए है, क्योंकि खेल के मैदान पर राजनीतिक चौपाल लगती है, खेल और खिलाड़ियों के नाम पर पुरस्कार राशि की घोषणा कर राज्य सरकारें अपनी राजनीति चमकाने में लगी हैं। खिलाड़ी अंतरराष्ट्रीय खेल प्रतियोगिताओं में हिस्सा लेने के लिए अपने स्तर पर चंदा जुटाकर खेलने जाते हैं। आम आदमी पार्टी की सरकार ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पदक जीतने वाले विजेताओं की पुरस्कार राशि बढ़ाकर राजनीतिक वाहवाही तो बटोर ली, लेकिन खिलाड़ियों को वह राशि मिली कहां? इसकी किसी को खबर नहीं। कई माह बीत जाने के बाद भी टेबल टेनिस में स्वर्ण पदक जीतने वाली मोनिका बत्र अपनी पुरस्कार राशि के लिए दर-दर भटक रही हैं, लेकिन राज्य सरकार अनजान बनी बैठी है।

सुविधाओं से वंचित स्टेडियम

दिल्ली के विभिन्न क्षेत्रों में आठ स्टेडियम / खेल परिसर सरकारी हैं। लेकिन सभी में गिनी चुनी सुविधाएं उपलब्ध हैं। इससे ज्यादा हास्यास्पद और क्या हो सकता है कि स्कूली खेलों की सूची में 100 से ज्यादा खेल शामिल किए गए हैं, जबकि एक भी स्टेडियम या खेल परिसर में 12 खेलों की भी सुविधा नहीं हैं। ऐसे में खिलाड़ी या तो निजी स्तर पर रुपया खर्च कर अपनी तैयारी करते हैं या फिर भारतीय खेल प्राधिकरण (सांई) के स्टेडियमों का सहारा लेते हैं। विडंबना है कि दिल्ली में अलग से खेलों का कोई विभाग भी नहीं है और शिक्षा निदेशालय के अधीन ही खेल विभाग काम कर रहा है। स्टेडियमों और खेल परिसरों में सुविधाएं बढ़ाने की योजना एक सतत प्रक्रिया है। फिलहाल भले ही हर जगह सारी सुविधाएं उपलब्ध न हों, लेकिन हम इसके लिए प्रयासरत हैं। जहां तक खिलाड़ियों को नौकरी देने का सवाल है तो यह निर्णय दिल्ली सरकार के अधिकार क्षेत्र में आता है। 

रोजगार के मामले में भी दिल्ली जीरो

अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पदक जीतने वाले खिलाड़ियों को हरियाणा, पंजाब, मध्य प्रदेश, केरल, छत्तीसगढ़, तमिलनाडू और तेलंगाना जैसे राज्यों में सरकारी नौकरी दी जाती है। लेकिन दिल्ली में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है। रोजगार से जुड़े नहीं होने के कारण ही दिल्ली से बहुत सारे खिलाड़ी नहीं निकल पाते।

महज कागजी सुविधा

एक दशक पहले दिल्ली में राजीव गांधी स्पोर्ट्स स्कूल खोलने की घोषणा की गई थी। पश्चिमी दिल्ली में इसकी आधारशिला भी रख दी गई, लेकिन आज तक उस पर कुछ भी नहीं हुआ।

नेताओं की सोच, मेडल से भी बरसे वोट

हुनर की तलाश मां की गोद से ही होने लगती है। तभी तो मां-बाप पैदा होते ही बच्चे पर इंजीनियर, डॉक्टर, आइएएस, पीसीएस ऑफिसर बनने की मुहर लगा देते हैं। कोई ये नहीं कह पाता मेरे बच्चे खिलाड़ी बनेंगे। खेलों के प्रति अभिभावकों का यह अविश्वास वाजिब है। कड़ी चुनौतियों, संघर्षों की माटी में तराशे जाने के बाद भी मंजिल मिलेगी या नहीं इसकी विश्वसनीयता नहीं होती। ये अविश्वास पैदा करने वाली सरकार और खेल प्रशासन हमेशा खिलाड़ी के जीतने के बाद उसे प्रोत्साहन राशि की आड़ में राजनीतिक वोट बैंक को पोषित करने पहुंच जाते हैं। लेकिन उससे पहले खेल सुविधाओं पर, आर्थिक रूप से कमजोर प्रतिभाओं पर किसी स्तर पर ध्यान नहीं दिया जाता। आज भी एशियाई खेलों में पदक तालिका में नीचे पद पर होने के बाद भी हम पीठ थपथपा रहे हैं लेकिन अपनी नाकामियों पर गौर नहीं कर रहे। आश्चर्य की बात तो यह है कि खेलों को बढ़ावा देने का दंभ केंद्र सरकार से लेकर राज्य सरकार तक भरती रही हैं, लेकिन एशिया खेलों में भारत का 8वां स्थान देखकर ऐसा लग रहा है कि केंद्र और राज्य सरकार द्वारा खेलों को बढ़ावा देने की बात महज कागजों तक ही सिमट कर रह गई है। हां, खेल के नाम पर धन की बंदरबांट से राजनेता, खेल संगठन और अधिकारी जरूर फल-फूल रहे हैं। दिल्ली और उससे सटे एनसीआर में भी खेलों का यही हाल है। कोई खिलाड़ी जब राष्ट्रीय या अंतरराष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा में पदक जीत कर आता है तो राज्य सरकारें अपनी प्रशंसा में कसीदे गढ़ने लगती हैं। खिलाड़ियों के लिए कुछ राशि की घोषणा कर दी जाती है, लेकिन उस प्रतिस्पर्धा में भाग लेने से पहले की सारी तैयारियां खिलाड़ियों को अपने ही बूते ही करनी होती हैं, उसमें सरकार का योगदान बहुत कम ही होता है। अंतरराष्ट्रीय स्तर की तैयारी के लिए खिलाड़ियों को जिस तरह की सुविधाएं मिलनी चाहिए, वह सरकारी तंत्र द्वारा आमतौर पर उन्हें उपलब्ध नहीं हो पातीं। बावजूद इसके खिलाड़ी देश और राज्य का नाम रोशन करते हैं।

नहीं हो रही कोई पहल

दिल्ली देहात के गांवों की बात करें तो यहां से निकले खिलाड़ियों ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर दिल्ली का नाम रोशन कर अपनी काबिलियत साबित की, बावजूद इसके सरकार खिलाड़ियों की प्रतिभा को उभारने के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठा रही है। यही वजह है कि आज उभरती खेल प्रतिभाएं बेहतर खेल परिसर, योग्य प्रशिक्षक और सुविधाओं के अभाव में दम तोड़ती जा रही है। दिल्ली देहात के नरेला, बांकनेर, निजामपुर व कुतुबगढ़ जैसे गांवों के विद्यार्थियों ने कुश्ती, वॉलीबाल व हॉकी जैसे कई खेलों में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर दमखम दिखाया। उसके बाद इन इलाकों में स्टेडियम, खेल परिसर व स्पोर्ट्स कांप्लेक्स बनाने की योजना बनी, लेकिन वह आज तक पूरी नहीं हो पाई।

खिलाड़ी खुद साफ कर रहे मैदान

विश्व कैडेट कुश्ती चैंपियनशिप के स्वर्ण पदक विजेता अनिल मान का कहना है कि कुश्ती के साथ-साथ अन्य सभी खेलों में दिल्ली के खिलाड़ियों की विशेष रुचि रही है। मगर मैदानों के अभाव में खिलाड़ी डीडीए के खाली पड़े भूखंडों को स्वयं साफ करवा कर खेलने को मजबूर हैं। विभिन्न सरकारों द्वारा खेलों को प्रोत्साहित तो किया जाता है, लेकिन बजट की कमी खेल संस्थानों में निरंतर बनी रहती है।

चाहिए पदक पर बजट की झोली खाली

राजधानी दिल्ली के सरकारी स्कूलों में खेल उपकरणों के नाम पर सिर्फ खानापूरी की जा रही है। दिल्ली में तकरीबन एक हजार से अधिक सरकारी स्कूल हैं। इन स्कूलों में 16 लाख से अधिक विद्यार्थी पढ़ते हैं, लेकिन खेल सुविधाएं विकसित करने के लिए प्रत्येक स्कूल को सालाना महज 20 हजार का बजट आंवटित किया जाता है। जिसमें से 10 हजार रुपये खेल उपकरणों के लिए निर्धारित किए गए हैं, जबकि 10 हजार रुपये प्रतियोगिता की स्थिति में खिलाड़ियों के यात्रा व भोजन भत्ता के लिए निर्धारित है। खेल शिक्षकों का कहना है कि दस हजार का बजट खेल उपकरणों के लिए अपर्याप्त है। उनका कहना है कि वर्तमान में एक फुटबाल की कीमत एक हजार रुपये से अधिक है, ऐसे में साल भर फुटबाल की पर्याप्त संख्या बनाए रखने व अन्य उपकरणों की खरीदारी करने के लिए 10 हजार रुपये की राशि अपर्याप्त है। 

स्कूल से ही हो हुनर की परवरिश

पढ़ोगे लिखोगे तो बनोगे नवाब, खेलोगे कूदोगे तो होगे खराब..हमारी पीढ़ी इसी जुमले को सुन-सुनकर बड़ी हुई है। मां-बाप के लिए मानों खेलकूद में कुछ नहीं रखा, सिर्फ पढ़ाई में ही सब कुछ है इसलिए सिर्फ पढ़ाई की नसीहत दी जाती थी। लेकिन अब देखो पदकों के रंग बदलते हैं, संख्या बढ़ती है, हर खेल में नाम रोशन होता है, वैश्विक पटल पर देश का मान बढ़ता है। शहरों से, कस्बों से, गांवों से, झुग्गियों से खेल का हुनर निकल कर आया है। मिथक टूटे हैं। पहलवान सुशील कुमार का कहना है कि अब लोगों की सोच भी बदलने लगी है और सरकार भी पहले के मुकाबले खेलों पर ध्यान केंद्रित कर रही है। लेकिन उसके बावजूद भी अभी हालात बिलकुल ठीक नहीं है। खिलाड़ियों ने अपना प्रदर्शन बेहतर किया है तभी तो एशियन खेल में नतीजे पहले से बेहतर रहे हैं। सरकार खेलों में सुधार के लिए कई कदम उठा रही है लेकिन अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपना प्रदर्शन सुधारने के लिए अभी बहुत चुनौतियां बाकी हैं। प्रतिद्वंद्वी टीमें काफी सशक्त होती हैं। उनकी तकनीक मजबूत होती हैं क्योंकि उनके पास बेहतर संसाधन होते हैं।

बचपन से ही देना होगा ध्यान

हमें खेल की नींव शुरुआत से यानी स्कूल से ही मजबूती के साथ रखनी होगी। हमें स्कूलों में बच्चों को बेहतर प्रशिक्षण, आहार व फिटनेस की सुविधा देनी होंगी। अभी इनका सभी जगह अभाव दिखता है। बहुत सारे स्कूल तो अभी भी ऐसे हैं जहां खेल के मैदान भी नहीं है। साथ ही बच्चों को प्रशिक्षण देने के लिए पर्याप्त संख्या में कोच भी होने चाहिए। इसके अलावा खिलाड़ियों के लिए शारीरिक व मानसिक रूप से चुस्त-दुरुस्त रखना भी जरूरी है। फिटनेस के लिए बचपन से ही आहार पर विशेष ध्यान रखने की आवश्यकता है। खाने में प्रोटीन युक्त चीजों का इस्तेमाल होना चाहिए। लेकिन दुख की बात है कि खिलाड़ियों के आहार पर अक्सर सवाल उठते रहे हैं। इसके अलावा शारीरिक फिटनेस के लिए फिजियोथेरेपी के विशेषज्ञों की भी जरूरत होती है, जिसकी भारत में बहुत कमी है।

दिल्ली सरकार के दावों की खुली पोल
भाजपा का कहना है कि केजरीवाल सरकार अपने साढ़े तीन वर्ष के कार्यकाल में खेलों के लिए प्रभावकारी नीति बनाने में विफल रही है। खिलाड़ियों को प्रतिभा निखारने के लिए सरकार न पर्याप्त सुविधाएं उपलब्ध कराती हैं और मदद। सरकार दावा तो बहुत करती है, लेकिन सच्चाई कुछ और है। दिव्या काकरान ने भी दिल्ली सरकार के दावों की पोल खोल दी है। दिल्ली विधानसभा के नेता प्रतिपक्ष विजेंद्र गुप्ता ने कहा कि काकरान ने मुख्यमंत्री केजरीवाल को वास्तविकता का आईना दिखाया है। दिव्या के अनुसार, यदि केजरीवाल सरकार ने सही समय पर उनकी सहायता की होती तो वह स्वर्ण पदक जीत सकती थीं। उनकी व्यथा केजरीवाल सरकार की खिलाड़ियों के प्रति रवैये को बयां करती है। उन्होंने कहा कि सरकार की बेरुखी का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि खेल के लिए अलग से कोई भी विभाग नहीं है। यह गतिविधि शिक्षा विभाग के अंतर्गत आती है, जिसका मुख्य ध्यान स्कूली खेलों तक सीमित है। राजधानी में खेल और खिलाड़ियों को प्रोत्साहित करने के लिए कोई विशेष आधारभूत ढांचा नहीं है । 

कहां तक पहुंचेंगी सुविधाएं

खेल प्रतिभाओं को निखारने के लिए हमें प्राथमिक शिक्षा की तरह ही पहल करनी होगी। इस दिशा में दिल्ली सरकार ने दो अहम फैसले किए हैं। जिसके तहत जोनल स्तर पर प्रतिभावान खिलाड़ियों का चयन कर उनके बेहतर प्रशिक्षण की व्यवस्था की जाएगी। हर जोन में कमेटी बनाई जाएगी। उस कमेटी का दायित्व खेल प्रतिभाओं की पहचान करना होगा। ताकि खेल प्रतिभाएं उपेक्षा के कारण दम न तोड़ सके। उम्मीद है कि इस पहल से खेलों की स्थिति में सुधार होगी। जोनल स्तर पर चयनित खिलाड़ियों के आहार और सेहत पर पूरा ध्यान दिया जाएगा। इसके अलावा सभी स्कूलों में खेल सुविधाओं के विकास के लिए भी कदम उठाए गए हैं। जिन स्कूलों में खाली जमीन पड़ी थीं, उसका इस्तेमाल खेल के मैदान के रूप में होगा। इसका फायदा यह है कि बच्चों को स्कूल में ही खेल का मैदान मिल सकेगा। यह बात समझनी होगी कि खेल सिर्फ पदक के लिए जरूरी नहीं है, बल्कि खेल बच्चों के शारीरिक व मानसिक विकास के लिए भी बेहद जरूरी है। बच्चे घरों से बाहर निकलकर खेलेंगे तो शारीरिक और मानसिक रूप से मजबूत होंगे।


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