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पढ़िए- 18वीं सदी के इस युद्ध के बारे में, जिसमें जीतकर भी हारा अफगानिस्तान का 'हीरो'

Third Battle of Panipatअब्दाली को भी अपनी इस विजय की बहुत जबरदस्त कीमत देनी पड़ी। उसके इतने अधिक आदमी लड़ाई में काम आए और घायल हुए और वह अफगानिस्तान लौट गया।

By JP YadavEdited By: Published: Sat, 07 Dec 2019 10:57 AM (IST)Updated: Sat, 07 Dec 2019 11:20 AM (IST)
पढ़िए- 18वीं सदी के इस युद्ध के बारे में, जिसमें जीतकर भी हारा अफगानिस्तान का 'हीरो'
पढ़िए- 18वीं सदी के इस युद्ध के बारे में, जिसमें जीतकर भी हारा अफगानिस्तान का 'हीरो'

नई दिल्ली [नलिन चौहान]। शुक्रवार को रिलीज हुई ‘पानीपत’ शीर्षक वाली हिंदी फिल्म से पानीपत की तीसरी लड़ाई नए सिरे से चर्चा में है। वास्तविक अर्थ में भारतीय इतिहास की धारा को बदलने वाले वर्ष 1761 में हुए पानीपत के युद्ध के प्रति जनसाधारण का उदासीन रवैया इस त्रासदीपूर्ण घटना से अधिक दुखदायी है। ऐसे में इस लड़ाई की पृष्ठ भूमि को जानना बेहतर होगा।

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राजनीति में आया था नया मोड़

वर्ष 1752 में उत्तरी भारत की राजनीति में एक नया मोड़ आया, जब मराठों ने दोआब में प्रवेश किया और विदेशी अफगान हमलावर अहमद शाह अब्दाली ने पंजाब में। वर्ष 1752 और वर्ष 1761 के बीच का चरण वस्तुत: उत्तरी भारत के स्वामित्व के लिए मराठों और अब्दाली के बीच शक्ति परीक्षण का चरण था। मुगल बादशाह आलमगीर द्वितीय (1699- 1759) के समय में वजीर गाजीउद्दीन ने मराठों को सम्राट की सहायता के लिए दिल्ली बुलवाया था। उस समय के पेशवा ने अपने भाई रघुनाथ राव (राघोबा) को बादशाह की आज्ञा का पालन करने के लिए एक बड़ी सेना सहित दिल्ली भेजा। रघुनाथ राव ने अपनी सेना सहित और आगे बढ़कर अहमदशाह अब्दाली के नायब के हाथों से पंजाब विजय कर लिया और एक मराठा सरदार को दिल्ली बादशाह के अधीन वहां का सूबेदार नियुक्त कर दिया। किंतु इस अंतिम घटना ने उनके विरुद्ध अब्दाली का क्रोध भड़का दिया और वर्ष 1759 में एक जबरदस्त सेना लेकर वह पंजाब पर फिर से अपना राज कायम करने और मराठे का विध्वंस करने के लिए अफगानिस्तान से निकल पड़ा। ऐसा जानकर, उसने (पेशवा) अपने चचेरे भाई सदाशिव भाऊ को दिल्ली भेजने का निश्चय किया, जिससे वह अब्दाली को देश के बाहर खदेड़ दे। भाऊ लगभग दो लाख आदमी लेकर 14 मार्च को महाराष्ट्र के पतदूर से रवाना हुआ। भाऊ ने अगस्त 1760 को दिल्ली में प्रवेश किया।

मराठों की कूटनीतिक असफलता रही

वहीं, चंबल पार करने से पूर्व भाऊ ने राजस्थान के सरदारों, अवध के नवाब शुजाउद्दौला तथा अन्य प्रमुख व्यक्तियों को पत्र लिखे थे कि वे इस लड़ाई को देश की लड़ाई समझकर विदेशी अब्दाली को सिंधु के पार खेदड़ने में उसकी सहायता करें। किंतु मराठों की यह कूटनीति असफल रही। राजपूत, सिंधिया और होल्कर के अत्याचारों के कारण मराठों के शत्रु हो गए थे, अत: वे तटस्थ रहे। परंतु शुजाउद्दौला दोआब के अपने पड़ोसी रूहेलों को मराठों से अधिक शत्रु मानता था, अत: वह भाऊ का साथ देने के लिए राजी हो गया। जब यह बात अब्दाली को मालूम हुई तो उसने शुजाउद्दौला को अपने पक्ष में करने के लिए नजीबुद्दौला को लखनऊ भेजा।

नजीबुद्दौला ने मेहंदी-घाट स्थान पर नवाब-वजीर से मिलकर उसे स्वार्थ और महजब के नाम पर अब्दाली का साथ देने के लिए राजी कर लिया। शुजाउद्दौला, नजीबुद्दौला के आग्रह से अनूप शहर के खेमे में अब्दाली से मिला और उसने उसका हार्दिक स्वागत किया। मराठों पर एक तो अब्दाली और शुजाउद्दौला के मिल जाने की चोट पड़ी और दूसरी राजा सूरजमल जाट के रूठकर दिल्ली से भरतपुर चले जाने की।

कहा जाता है कि सूरजमल ने भाऊ को सलाह दी थी कि वह युद्ध सामग्री, तोपखाना और स्त्रियों को भरतपुर में सुरक्षित छोड़कर मराठों की पुरानी छापामार नीति को अपनाए और अब्दाली की रसद रोक दे हिंदु किंतु भाऊ ने इस सलाह को ठुकराकर खुले मैदान में डटकर लड़ाई लड़ना ही उचित समझा था। अब अब्दाली ने मराठा सेना के चारों ओर गारद बिठाकर दोआब, दिल्ली और राजपूताने से उसके रसद और यातायात को रोक दिया। मराठों के लिए केवल उत्तर का मार्ग खुला रह गया किन्तु अब्दाली ने शीघ्र ही कुंजपुरा पर अधिकार करके मराठों का पंजाब से भी यातायात रोक दिया। इस परिस्थिति के कारण मराठा शिविर पर बड़ा भारी संकट छा गया। भाऊ को न तो कहीं से रसद ही मिल सकी और न वह दो महीने तक पानीपत से दक्खिन को ही कोई समाचार भेज सका। 14 जनवरी 1761 को दिल्ली से करीब 97 किलोमीटर दूर, पानीपत के प्रसिद्ध मैदान में इनका (अफगान-मराठों) युद्ध हुआ।

अब्दाली ने मराठों के रसद-पानी की आपूर्ति के रास्ते रोक दिए और उन्हें खाली पेट लड़ने के लिए मजबूर कर दिया। इस लड़ाई में मराठों की जान-माल की भारी क्षति हुई। सदाशिव और विश्वास राव, दोनों मैदान में काम आए। विजय अहमदशाह की ओर रही। लड़ाई में रोहिल्लों और अवध के शुजाउद्दौला मुस्लिम शक्तियों का समर्थन उसे (अब्दाली) मिला।

एचआर गुप्ता की पुस्तक, ‘मराठा एवं पानीपत’ के अनुसार, मराठों को लगभग 28,000 सैनिकों का नुकसान हुआ, जिसमें 22,000 मारे गए और बाकी के युद्धबंदी बना लिए गए। शहीद हुए फौजियों में सेना की टुकड़ियों के दो सरदार-भाऊ राव और पेशवा बालाजी राव का बड़ा लड़ाका विश्वास राव भी थे। इस युद्ध के एकमेव प्रत्यक्षदर्शी शुजाउद्दौला के दीवान काशी राज के विवरण (बाखर) के अनुसार, युद्ध के एक दिन बाद लगभग 40,000 मराठा कैदियों की क्रूरता पूर्वक हत्या कर दी गई। किंतु अब्दाली को भी अपनी इस विजय की बहुत जबरदस्त कीमत देनी पड़ी। उसके इतने अधिक आदमी लड़ाई में काम आए और घायल हुए कि आगे बढ़ने का इरादा छोड़कर उसे फौरन अफगानिस्तान लौट आना पड़ा।

(लेखक दिल्ली के अनजाने इतिहास के खोजी हैं)

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