नक्सलियों की गोली का जख्म सीने पर लिए 13 साल तक हौसले से जी जिंदगी, अब मिली शहादत
तेरह साल तक सीने पर नक्सलियों की गोली का जख्म लिए जीते रहे बसंत ने आखिरकार बुधवार को दम तोड़ दिया।
धमतरी (छत्तीसगढ़), राज्य ब्यूरो। 11 जून 2006 का दिन था। छत्तीसगढ़ में घुर नक्सल प्रभावित दंतेवाड़ा जिले के तारलामुड़ा-नालापल्ली तिराहे से होकर पुलिस पार्टी गुजर रही थी। इसी दौरान वहां घात लगाकर बैठे नक्सलियों ने उन पर हमला कर दिया। नक्सलियों और पुलिस पार्टी के बीच जबरजस्त मुठभेड़ हुई। इस मुठभेड़ में कुछ नक्सली भी मारे गए। इसी मुठभेड़ के दौरान एक जवान बसंत नेताम को तीन गोलियां लगीं। सीने में गोली लगने के बाद भी बसंत ने हिम्मत टूटने नहीं दी और मोर्चे पर डटे रहे। मुठभेड़ खत्म होने के बाद वहां रेस्क्यू पार्टी पहुंची और फिर बसंत को वहां से हेलीकॉप्टर के जरिए इलाज के लिए अस्पताल लाया गया। इस दौरान जवान बसंत का जिस्म खून से पूरी तरह लथपथ था।
उन्हें अस्पताल तक लाने वाले वाले साथी जवानों की आंखें नम थीं और उनके हाथ कांप रहे थे। घटना के बाद जवान का बचना नामुमकिन था। वे कोमा में चले गए थे, लेकिन उनके अंदर का हौसला उन्हें जिंदा रखना चाहता था। लंबे समय तक कोमा में रहने के बाद बसंत ने आत्मबल से जिंदगी में वापसी की। तीन गोलियों ने उनके शरीर को अंदर से छलनी कर दिया था, लेकिन एक वीर सिपाही के अंदर का हौसला कहता था कि पीछे नहीं हटना है। जिंदगी को अभी आगे और जीना है। तेरह साल तक सीने पर नक्सलियों की गोली का जख्म लिए जीते रहे बसंत ने आखिरकार बुधवार को दम तोड़ दिया। इस तरह एक और वीर जवान को शहादत हासिल हुई।
मेरा बेटा बचपन से बहादुर था
जवान की शहादत पर गर्व महसूस करते हुए उनकी बुजुर्ग मां हठियारिन बाई ने कहती हैं कि मेरा बेटा बचपन से बहादुर था। वह किसी चीज से नहीं डरता था। तीन गोली लगने के बावजूद जिंदगी जीने उसमें गजब का उत्साह था। अगर शासन-प्रशासन समय पर मदद दे देता तो उपचार मिलने से उसकी जान बच सकती थी। अक्टूबर 2019 के शुरूआती दिनों में मेरा पोता डिकेश एसपी कार्यालय और पुलिस लाइन मदद की गुहार लगाने के लिए गया था। लेकिन कोई मदद नहीं मिली। वहां से जवाब मिला था कि कॉल कर आगे की जानकारी दी जाएगी। वह पुलिस विभाग के कॉल आने का इंतजार करता रहा, लेकिन कॉल नहीं आया।
नक्सलवाद का खात्मा ही थी अंतिम इच्छा
शहीद की पत्नी जानकी नेताम ने बताया कि नक्सल मोर्चे पर ड्यूटी के पहले दिन से ही वे काफी खुश थे। उन्हें इस बात पर गर्व होता था कि उन्हें नक्सल उन्मूलन के उद्देश्य से वहां तैनात किया गया है। जब वे छुट्टियों में घर आते तो अपने अभियानों की कहानी बच्चों और दोस्तों को बताते। घटना के बाद जब उन्हें होश आया तो भी वे यही कहते थे कि जल्दी ठीक होकर नक्सल मोर्चे पर लौटूंगा, लेकिन उनकी हालत ऐसी नहीं थी कि मोर्चे पर वापसी हो सके। उनका हौसला उन्हें अंदर से हमेशा हिम्मत देता रहा।
इस तरह संघर्ष में बीते दिन
धमतरी जिले के ग्राम सलोनी निवासी पुलिस आरक्षक शहीद बसंत नेताम के पुत्र डिकेश नेताम ने बताया कि वर्ष 1992 में उनके पिता पुलिस में भर्ती हुए। 11 जून 2006 को दंतेवाड़ा जिले के तारलामुड़ा नालापल्ली तिराहे में पुलिस पार्टी पर नक्सलियों ने हमला कर दिया। जवाब में पुलिस ने भी गोलियां चलाई। हमले में बसंत नेताम को तीन गोलियां लगीं। नक्सलियों की एक गोली किडनी और एक गोली आंत को चिरते हुए पार हो गई। एक गोली आंत से होकर सीने में जाकर फंस गई थी। इस वजह से वे कोमा में चले गए थे।
उपचार के दौरान डॉक्टरों ने उनकी एक किडनी निकाल दी थी। किसी तरह हालत सुधरने पर उन्हें घर लाया गया। तब से लेकर आठ अक्टूबर 2019 तक उनका जीवन संघर्ष में बीता। इस दौरान तीन बार उनका ऑपरेशन किया गया। उनके शरीर का पाचन तंत्र पूरी तरह क्षतिग्रस्त हो चुका था। शरीर में रक्त नहीं बनता था। इसलिए हर छह-सात महीने में शरीर का खून बदलना पड़ता था। सितंबर के आखिरी पखवाड़े में उनकी तबीयत ज्यादा बिगड़ गई। इसके बाद आखिरकार वे दुनिया छोड़कर चले गए।
रिश्तेदारों से मदद लेकर कराते थे इलाज
शहीद जवान की पत्नी ने बताया कि कई घटना के बाद उपचार के लिए आर्थिक तंगी का लगातार सामना करना पड़ा। शासन-प्रशासन से मदद नहीं मिली। बार इलाज में मोटी रकम खर्च करनी पड़ती थी। ऐसी स्थिति में रिश्तेदारों से रकम लेकर इलाज कराना पड़ा। पति के दोस्तों ने भी इस दौरान उनकी बहुत मदद की। मौत के बाद उनके नाम से अब सरकार की ओर से 50 हजार रुपये की सहायता राशि मिली है। इसके साथ ही उन्हें सरकार की ओर से शहीद का दर्जा दिए जाने की घोषणा की गई है।