National Handloom Day: आइये मिलते हैं ऐसे ही कुछ हुनरमंदों से जिनके हुनर को दुनिया करती है सलाम
बीते दिनों PM मोदी ने देश से अपील की थी कि हमें हैंडलूम की अपनी समृद्ध परंपरा और हुनरमंद बुनकरों के हुनर को दुनिया के सामने लाना चाहिए।
नई दिल्ली, जेएनएन। आज राष्ट्रीय हथकरघा दिवस है। बीते दिनों प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश से अपील की थी कि हमें हैंडलूम की अपनी समृद्ध परंपरा और हुनरमंद बुनकरों के हुनर को दुनिया के सामने लाना चाहिए, ताकि इस विधा को अपेक्षित गति मिल सके...। आइये मिलते हैं ऐसे ही कुछ हुनरमंदों से जिनके हुनर को दुनिया सलाम करती है।
दुनिया में जलवा बिखेर रहे बलविंदर के बनाए उत्पाद
लुधियाना के बलविंदर सिंह के हाथों खड्डियों पर बनाए गए शॉल और मफलर की गर्माहट विदेश तक पहुंच गई है। 32 सालों के अपने इस सफर में वह आज बेहतरीन उत्पाद तैयार करने के साथ ही 70 से अधिक युवाओं को रोजगार भी दे रहे हैं। बलविंदर के शॉल और मफलरों के लिए अब उनका गांव मानकवाल अपनी अलग पहचान रखता है। बलविंदर सिंह खुद आठवीं पास हैं पर खड्डी चलाकर सालाना 25 से 30 लाख रुपये कमा रहे हैं। उनके पास कोई रजिस्टर्ड कंपनी नहीं है, जिसकी वजह से वह प्रत्यक्ष तौर पर निर्यात नहीं कर पा रहे हैं, लेकिन दुनिया के अलग-अलग देशों में उनके मफलर और शॉल की डिमांड है। अमेरिका, कनाडा, इंग्लैंड, आस्ट्रेलिया आदि देशों से आने वाले एनआरआई उनसे यह उत्पाद लेकर जाते हैं। उनके पास अपनी 16 खड्डियां हैं और 50 अन्य खड्डियों से कांट्रेक्ट पर माल तैयार करवाते हैं।
देश-विदेश में सिर की शान बनी बुशहरी टोपी
शिमला, हिमाचल प्रदेश के रामपुर की बुशहरी टोपी देश-विदेश में लोगों के सिर की शान बन रही है। बाजार में बुशहरी टोपी 150 से लेकर 500 रुपये के बीच मिल जाती है। इन टोपियों की आर्पूति देशभर में स्थित हिमाचल इम्पोरियम नाम से चलने वाले शोरूम से होती है। शोरूम में सप्लाई रामपुर से होती है, जहां से इन्हें विदेश में भी भेजा जाता है। रामपुर उपमंडल में करीब 100 परिवार टोपियां बनाकर घर चलाते हैं। अब पावरलूम पर भी काम होने लगा है। बुशहरी टोपी भेड़ की ऊन से बनती है। ऊन की गुणवत्ता के हिसाब से इनका दाम तय होता है। ऊन को कातने के बाद खड्डी में पट्टी बनाकर टोपी बनाई जाती है। बुशहर दिव्यांग सिलाई कढ़ाई केंद्र के अध्यक्ष रत्न दास कश्यप कहते हैं, हम तीन तरह की टोपियां बनाते हैं, जिनकी अच्छी मांग रहती है।
चमक बिखेर रहे चौपान
श्रीनगर के बारामूला के चकूरा क्षेत्र निवासी अब्दुल खालिक चौपान 27 वर्षों से कालीन बनाने के पेशे से जुड़े हैं। चौपान के हाथ का बुना कालीन 50 लाख तक में बिक चुका है। चौपान कहते हैं कि 16-17 साल पहले यह पेशा उफान पर था। कालीन कारीगर अच्छा कमाते थे। चीन व ईरान के कालीन मार्केट में आने से काफी संख्या में कारीगर पेशा छोड़ने पर मजबूर हो गए। चौपान को कश्मीर में बेहतरीन कालीन कारीगरों में गिना जाता है। बड़गाम में कालीन पेशे में सबसे अधिक कारीगर हैं। हर गांव में हर दूसरे-तीसरे घर में कालीन का हथकरघा लगा होता है। र्सिदयों में कालीन के कारीगर सुबह से शाम तक फिरन में कांगड़ी तापते हुए कालीन बुनने में व्यस्त रहते हैं। कश्मीरी कालीन की कला 1500 वर्ष पुरानी है। कालीन कला को विकसित कराने के लिए केंद्र सरकार ने घाटी में कई केंद्र स्थापित किए हैं।
लुभा रही सैफ के हाथों बुनी चादर
गोरखपुर के मोहम्मद सैफ ने कटवर्क का ऐसा बेडशीट तैयार किया है, जिसकी सफाई मशीन को भी मात देती है। उन्हें बीते वर्ष कटक में सर्वश्रेष्ठ बुनकर का पुरस्कार भी मिला है। 23 वर्षीय मोहम्मद सैफ यूं तो गोरखपुर में बीटेक कर रहे हैं, लेकिन महज 12 वर्ष की उम्र से पिता का हाथ बंटाने लगे थे। वह चौथी पीढ़ी के बुनकर हैं। सैफ ने वर्ष 2014 से कटवर्क की बेडशीट बनानी शुरू की तो देखते ही देखते बाजार में उनका हुनर बोलने लगा। पता ही नहीं चलता है कि मशीन से बनी है या हाथ से। अब नामी कंपनियां हैंडलूम इंडिया और फैब इंडिया इनके उत्पाद देश-विदेश में बेच रही हैं। रसूलपुर के रहने वाले मोहम्मद सैफ ने दम तोड़ते हथकरघा उद्योग से 150 परिवारों को रोजगार देकर मिसाल पेश की।