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National Education Policy 2020: बच्चों की स्कूल वापसी, आसान नहीं होगी राह

National Education Policy 2020यूनेस्को की रिपोर्ट बताती है कि भारत में लॉकडाउन के कारण करीब 0.32 बिलियन बच्चे प्रभावित हुए हैं। इनमें ग्रामीण क्षेत्रों के 84 प्रतिशत बच्चे शामिल ह

By Vinay TiwariEdited By: Published: Sun, 02 Aug 2020 11:44 AM (IST)Updated: Sun, 02 Aug 2020 11:58 AM (IST)
National Education Policy 2020: बच्चों की स्कूल वापसी, आसान नहीं होगी राह
National Education Policy 2020: बच्चों की स्कूल वापसी, आसान नहीं होगी राह

नई दिल्‍ली [अंशु सिंह]। नई शिक्षा नीति (एनईपी) में स्कूल से बाहर करीब दो करोड़ बच्चों को वापस मुख्यधारा में लाने का प्रस्ताव है। लेकिन इसे क्रियान्वित करने में कम चुनौतियां नहीं होंगी, क्योंकि कोविड-19 के कारण दुनिया भर के 91 फीसद से अधिक बच्चे प्रभावित हुए हैं। अकेले भारत में प्रभावित बच्चों की संख्या 0.32 बिलियन के आसपास है। 

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यूनेस्को की रिपोर्ट बताती है कि भारत में लॉकडाउन के कारण करीब 0.32 बिलियन बच्चे प्रभावित हुए हैं। इनमें ग्रामीण क्षेत्रों के 84 प्रतिशत बच्चे शामिल हैं, जिनमें 70 प्रतिशत बच्चे सरकारी स्कूलों में पढ़ाई करते हैं। जबकि 2015 की एक रिपोर्ट के मुताबिक, सेकंडरी स्कूलों में औसतन ड्रॉपआउट रेट करीब 17.6 फीसद थी। बच्चों के स्कूल जाने की एक प्रमुख वजह मिड डे मिल भी होती है।

लॉकडाउन के कारण वह बंद हो चुकी है, जिससे ड्रॉपआउट की दर के और बढ़ने का अंदेशा है। जानकारों की मानें, तो बच्चे अगर ज्यादा समय तक स्कूल नहीं जाते हैं, तो उनकी ड्रॉपआउट रेट और बढ़ सकती है। क्योंकि फिर पैरेंट्स उन्हें विभिन्न प्रकार के जीविकोपार्जन में लगा देते हैं। 

आसान नहीं होगी मुख्यधारा में वापसी 

रांची के करीब ब्रांबे स्थित एचएच हाईस्कूल के निदेशक शादाब हसन कहते हैं कि पहले से ड्रॉपआउट्स को मुख्यधारा में लाना आसान नहीं होगा। स्टूडेंट्स की संख्या को देखते हुए इंफ्रास्ट्रक्चर की समस्या, शिक्षकों की उपलब्धता, इनोवेशन की संस्कृति विकसित करना बड़ी चुनौती होगी।

वर्तमान समय की चुनौतियों का हवाला देते हुए शादाब बताते हैं, ‘हमारे स्कूल में आसपास के कई गांवों से गरीब तबके के काफी बच्चे पढ़ने आते हैं, जिनके अभिभावक मजदूरी जैसे कार्य में संलग्न होते हैं। लेकिन स्कूल बंद होने के बाद से उनसे संपर्क करना भी मुश्किल हो गया है। क्योंकि अधिसंख्‍य अभिभावक हर दो से तीन महीने पर अपना नंबर बदल लेते हैं। कइयों को तो मैसेज पढ़ना भी नहीं आता।‘

इनकी मानें, तो हर साल बुआई के सीजन में गांव के बच्चों की पढ़ाई यूं ही छूट जाती है। क्योंकि उन्हें माता-पिता के साथ खेतों में हाथ बंटाना पड़ता है। लड़कियों के साथ तो और भी मुश्किल होती है। एक बार पढ़ाई छूटने पर उनकी शादी करा दी जाती। ऐसे में देखना होगा कि जमीनी स्तर पर स्कूल ड्रॉपआउट्स को वापस स्कूलों तक पहुंचाने की योजना के क्रियान्वयन में क्या रणनीति अपनायी जाती है। 

राज्य सरकारों को लेनी होगी जिम्मेदारी 

इसमें दो मत नहीं कि कोविड-19 ने देश ही नहीं, वैश्विक शिक्षा व्यवस्था को पूरी तरह चरमरा दिया है। ह्यूमन राइट्स वॉच की एक रिपोर्ट के अनुसार, विश्व के 188 देशों में करीब 1.5 बिलियन यानी 91 प्रतिशत से अधिक बच्चे स्कूल से बाहर हैं। पैरेंट्स की नौकरी या काम नहीं रहने के कारण उनके सामने आर्थिक असुरक्षा की ऐसी स्थिति उत्पन्न हो गई है कि वे बच्चों को वापस स्कूल भेज पाने में असमर्थ हैं।

इससे बाल मजदूरी, बाल विवाह, यौन शोषण, घरेलू हिंसा जैसे अन्य अपराध बढ़ने की आशंका बढ़ गई है। बच्चों के मुद्दों एवं अधिकारों को लेकर काम करने वाली संस्था बड्स फाउंडेशन की संस्थापक दिव्या वैष्णव कहती हैं, शिक्षा हर बच्चे का अधिकार है। नए परिदृश्य में यह और भी जरूरी हो जाता है। क्योंकि हजारों की संख्या में प्रवासी मजदूर अपने-अपने गांव लौटे हैं।

उन्हें मालूम कि बच्चे आगे स्कूल जा पाएंगे कि नहीं। ऐसे में यह राज्य सरकारों की जिम्मेदारी बनती है कि वे इन मजदूरों के बच्चों को पठन सामग्री उपलब्ध कराने से लेकर उनका स्कूलों में नामांकन कराएं। अच्छी बात यह है कि नई शिक्षा नीति में शुरुआती वर्षों से ही वोकेशनल एजुकेशन को स्कूली पाठ्यक्रम में शामिल करने की बात कही गई है। इससे उन बच्चों का आत्मविश्वास बढ़ेगा, जो पढ़ाई छोड़ चुके हैं। 

इंफ्रास्ट्रक्चर का विकास होगा जरूरी 

जहां तक राज्य सरकारों द्वारा मदद पहुंचाने का सवाल है, तो केरल, तेलंगाना, कर्नाटक एवं आंध्र प्रदेश जैसे राज्यों में आंगनबाड़ी के अलावा बच्चों को सूखा अनाज उनके घर तक पहुंचाया गया है। इसके अलावा, स्टूडेंट्स को डाटा पैकेज, टीवी ब्रॉडकास्ट क्लास एवं नियमित एसएमएस द्वारा एक्टिविटीज करायी जा रही हैं। इसके अलावा, मिरेकल फाउंडेशन, प्रोत्साहन जैसी अनेक स्वयंसेवी संस्थाएं भी ऐसे बच्चों को शिक्षा मुहैया कराने में लगी हुई हैं।

वॉलंटियर्स की मदद से बच्चे घर बैठे पढ़ाई कर पा रहे हैं। लेकिन जब भी स्कूल खुलते हैं, तो उन्हें नए हालात से एडजस्ट करने में समय लग सकता है। बाल उत्पीड़न एवं शिक्षा को लेकर काम करने वाली 'प्रोत्साहन' संस्था की संस्थापक सोनल कपूर कहती हैं, ‘आने वाले समय में क्लासरूम का माहौल बदला हुआ होगा। शारीरिक दूरी का ध्यान रखकर बैठने की व्यवस्था आदि करनी होगी।

ऐसे में ड्रॉपआउट स्टूडेंट्स को मुख्यधारा में लाने के लिए पहले समुचित इंफ्रास्ट्रक्चर का विकास करना होगा। मैं नई नीति की मंशा पर सवाल नहीं खड़े कर रही है। लेकिन आखिर इस योजना को कैसे लागू किया जाएगा, इसे लेकर स्पष्टता आनी बाकी है।‘

बच्चों की सुरक्षा को देनी होगी प्राथमिकता 

विशेषज्ञों ने नई शिक्षा नीति में स्कूलों में काउंसलर्स एवं प्रशिक्षित सोशल वर्कर्स की सेवाएं लेने के प्रस्ताव का स्वागत किया है। सामाजिक संगठनों ने उपेक्षित वर्गों एवं क्षेत्रों के लिए जेंडर इंक्लूजन फंड एवं स्पेशल एजुकेशन जोन्स की स्थापना को भी सकारात्मक दिशा में उठाया गया कदम बताया है। लेकिन सोनल कहती हैं,’बाल भवन खोलने का फैसला तो अच्छा है।

जहां बच्चों को डे टाइम बोर्डिंग के साथ लाइफ स्किल में प्रशिक्षित करने की व्यवस्था की जाएगी। लेकिन हाल के दिनों में शेल्टर होम्स में घटी घटनाओं को देखते हुए ऐसे केंद्रों के सुरक्षा इंतजाम को देखना, उसकी सोशल ऑडिटिंग करना भी आवश्यक होगा। इसके लिए सरकार एवं नागरिक समाज को मिलकर काम करना होगा।‘ 


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