पॉवेल की विदाई का रहस्य बरकरार
भारत में अमेरिकी राजदूत नैंसी पॉवेल के अचानक इस्तीफे पर रहस्य बरकरार है। वैसे अमेरिका ने अपने राजदूत के त्यागपत्र को सेवानिवृत्ति करार दिया है। भारत में आम चुनावों के बीच यकायक हुए पावेल के इस्तीफे पर अपनी स्थिति ढंकने में लगे अमेरिकी निजाम ने इसके पीछे भारत के साथ रिश्तों के किसी नए समीकरण से भी इन्कार ि
नई दिल्ली, जागरण ब्यूरो। भारत में अमेरिकी राजदूत नैंसी पॉवेल के अचानक इस्तीफे पर रहस्य बरकरार है। वैसे अमेरिका ने अपने राजदूत के त्यागपत्र को सेवानिवृत्ति करार दिया है। भारत में आम चुनावों के बीच यकायक हुए पावेल के इस्तीफे पर अपनी स्थिति ढंकने में लगे अमेरिकी निजाम ने इसके पीछे भारत के साथ रिश्तों के किसी नए समीकरण से भी इन्कार किया है। अमेरिकी राजदूत पॉवेल के इस्तीफे को भारत में नई सरकार की आमद से पहले संबंधों में नई शुरुआत की तैयारी के तौर पर देखा जा रहा है।
अमेरिकी राजदूत के सोमवार रात अचानक अपने त्यागपत्र की सूचना उजागर करने के बाद विदेश विभाग की प्रवक्ता मैरी हर्फ ने कहा कि 37 साल की सेवा के बाद पावेल सेवानिवृत्त हो रही हैं। उन्होंने इस बात पर भी जोर दिया कि इसका न तो भारत-अमेरिका रिश्तों से कोई संबंध है और न ही इसे किसी नीतिगत बदलाव के तौर पर देखा जाना चाहिए। पावेल के इस्तीफे को भारत में विपक्ष के पीएम प्रत्याशी नरेंद्र मोदी के साथ संबंध सुधार की पहल में सुस्ती दिखाने का परिणाम दिखाने वाली अटकलों को भी हर्फ ने खारिज किया।
हालांकि, अमेरिकी विदेश मंत्रालय की प्रवक्ता इस बारे में चुप रहीं कि आखिर राजदूत ने भारत में चुनावों से ऐन पहले अचानक इस्तीफे का एलान क्यों किया। इस बारे में पूछे जाने पर हर्फ के मुताबिक पावेल ने यही वक्त क्यों चुना, इसके बारे में वह कुछ वहीं कह सकतीं। वैसे चुनावी मौसम में अमेरिकी राजदूत के इस्तीफे को भारत में चुनावी हवा के रुख में बदलाव के साथ जोड़कर देखा जा रहा है।
सूत्रों के अनुसार, गत 13 फरवरी को गांधीनगर में गुजरात के मुख्यमंत्री और भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के साथ मुलाकात में भी रिश्तों की बर्फ अधिक नहीं पिघल सकी। महत्वपूर्ण है कि इस मुलाकात के लिए भी पावेल को न केवल काफी इंतजार करना पड़ा बल्कि स्थान का चुनाव भी मोदी ने ही किया। बताया जाता है कि पॉवल और मोदी के बीच सामान्य शिष्टाचार संवाद और विकास योजनाओं पर चर्चा से आगे कोई खास गर्मजोशी नहीं थी।
उल्लेखनीय है कि 2002 गुजरात दंगों के बाद से अमेरिका मोदी से दूरी और संवादहीनता बनाए हुए था। भारत में मोदी के बढ़ते कद के मद्देनजर ब्रिटेन समेत यूरोपीय संघ के अन्य मुल्कों ने तो संवाद के पुल खोल दिए। वहीं अमेरिका अपने नजरिये को बदलने में काफी पीछे रह गया। इसके अलावा नरेंद्र मोदी के प्रति रुख के बदलाव में भी दूतावास की बजाए पर्दे की कूटनीति और भारतवंशी आबादी के नेताओं की भूमिका बड़ी थी।