मोसुल से हमें सबक सीखने की जरूरत, सवालों के भी तलाशने होंगे जवाब
बेरोजगारी के चलते भारतीय हिंसक इलाकों में भी काम करने के लिए तैयार हैं। सरकार ऐसे में यह तो सळ्निश्चित कर सकती है कि लोगों को बरगलाकर ले जाने वालों पर
नई दिल्ली [अभिषेक]। जून 2014 में इराक के मोसुल में इस्लामिक स्टेट द्वारा बंधक बनाए गए 39 भारतीयों की हत्या और फिर उनकी लगभग चार साल बाद हुई पुष्टि पर राजनीति तो काफी हुई, मगर दुर्भाग्य से जिन प्रश्नों पर एक गंभीर चर्चा होनी चाहिए थी वह विमर्श नहीं हो पाया। विपक्ष ने इस मसले पर तो काफी शोर मचाया की सरकार ने आखिर सूचना देने में इतनी देर क्यों की या कि जब पिछले वर्ष विदेश मंत्री ने संसद में खुद इन भारतीयों के जिंदा होने की बात की थी तो वह किस आधार पर की थी, मगर एक बात जो इस पूरे हंगामे के बीच दबी रह गई वह यह है आखिर वे कौन से कारण हैं कि यह जानते हुए भी कि वहां हालात सही नहीं है, फिर भी ये भारतीय मजदूर वहां क्यों गए और उन्हें किसने वहां पहुंचने में मदद की?
यह सवाल इस लिए भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि संघर्ष प्रभावित क्षेत्रों को छोड़कर भी पश्चिम एशिया में हालात उतने अच्छे नहीं हैं। यह जानते हुए भी एक बड़ी संख्या में भारतीय मजदूर हर साल खाड़ी देशों का रुख करते हैं और खाड़ी देशों में काम करने वाली यह बड़ी आबादी न सिर्फ भारत, बल्कि अमूमन सभी दक्षिण एशियाई देशों के खाड़ी देशों के साथ द्विपक्षीय संबंधों के निर्धारण में हमेशा एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। तेल समृद्ध इन देशों की आबादी बहुत बड़ी नहीं है, लिहाजा वहां कामकाज के लिए दक्षिण एशियाई लोगों की बड़ी संख्या है जो कि विभिन्न क्षेत्रों में काम करती है। इन अप्रवासियों ने न केवल खाड़ी देशों के विकास में योगदान दिया है, बल्कि वे अपनी कमाई का एक बड़ा हिस्सा बचा कर प्रेषण के रूप में धनराशि अपने घरों को भेजते है जो एक तरफ विदेशी मुद्रा के एक स्थिर स्नोत के तौर पर पूरे देश के आर्थिक विकास में योगदान करती है तो दूसरी तरफ इन धनराशियों का परिजनों द्वारा ज्यादातर उपयोग स्वास्थ्य और शिक्षा पर होता है जो कि देश में मानव संसाधन विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
बीते कुछ अरसे में प्रेषण के जरिये धनराशि हासिल करने में चीन को पछाड़कर भारत सिरमौर बन गया है तो इसमें खाड़ी देशों से धन भेजने वाले इन कामगारों की अहम भूमिका रही है। 1970 के दशक में जबसे खाड़ी देशों में मजदूरों की मांग बढ़ी तब दक्षिण एशिया से गए मजदूरों में से अधिकांश अकुशल और अर्धकुशल श्रेणी से संबंद्ध थे। ये भवन-निर्माण और आधारभूत संरचना के निर्माण से जुड़े, लेकिन वक्त के साथ इस मोर्चे पर भी बदलाव आता गया और आज निर्माण के साथ-साथ दक्षिण एशिया से जाने वाले लोग सेवा के क्षेत्र में भी एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। स्वास्थ्य के क्षेत्र में बात करे तो वहां काम करने वाली सबसे ज्यादा नर्स केरल और श्रीलंका से हैं। दक्षिण भारत और मुख्य रूप से केरल के मानव विकास में खाड़ी से आने वाले धन ने अहम भूमिका निभाई है। आज केरल के लगभग हर तीसरे घर में कोई न कोई व्यक्ति खाड़ी में काम कर रहा है और विदेशों से इन कामगारों द्वारा भेजे जाने वाले पैसे का केरल राज्य के सकल घरेलू उत्पाद में लगभग 35 प्रतिशत हिस्सा है।
इस बीच कार्यक्षेत्रों में परिवर्तन के साथ एक और महत्वपूर्ण बदलाव जो आया है वह यह है कि आज खाड़ी देशों की ओर रुख कर रहे श्रमिक सिर्फ दक्षिण भारतीय राज्यों से ही नहीं, बल्कि पूरे देश से जा रहे हैं और इसमें अव्वल क्षेत्रों की बात करें तो बीते कुछ वर्षो में पूर्वी उत्तर प्रदेश और पश्चिमी बिहार के अल्पविकसित क्षेत्रों ने दक्षिणी राज्यों की जगह ले ली है। 1रोजगार की तलाश में या ज्यादा सही कहें तो बेहतर रोजगार की तलाश में श्रमिकों का एक देश से दूसरे देश में जाना एक स्वाभाविक प्रक्रिया है, ऐतिहासिक तौर पर यूरोप के लोग दुनिया के लगभग हर क्षेत्र में गए और ये लोग किसी कमी के वक्त यूरोप से बाहर नहीं गए, बल्कि तब गए जब यूरोप पूरी दुनिया पर राज कर रहा था। भारत से बाहर जाने वाले श्रमिकों की परिस्थितियां यूरोप से बाहर गए लोगों से भिन्न हैं, इस बात में कोई दो राय नहीं है, मगर फिर भी दो बातें ध्यान रखनी होंगी।
पहली, रोजगार के लिए श्रमिकों का एक देश से दूसरे देश में प्रवास, जैसा वैश्विक एजेंसियां भी मानती हैं, मानव विकास में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है और सरकारों को इसमें अनावश्यक अवरोध नहीं पैदा करना चाहिए। सामान्य तौर पर श्रम अधिशेष वाले देशों की सरकारें श्रमिकों के मुक्त आवागमन के पक्ष में ही होती हैं, क्योंकि यह उन देशों में बेरोजगारी की समस्या को कम करने में सहायक होता है। वहीं बेरोजगारी की समस्या है तो यह पिछले तीन-चार वर्षो में नहीं बनी। यानी इसके लिए अकेली मौजूदा सरकार ही जिम्मेदार नहीं है। मोसुल की घटना में एक बार मजदूरों के फंस जाने के बाद सरकार के पास करने को कुछ ज्यादा ही नहीं था। श्रमिकों के आवागमन में सरकारों की भूमिका एक नियामक की होती है और इस लिहाज से जो महत्वपूर्ण बात सामने आई है वह यह है कि मोसुल में मारे गए लोगों को इराक में नहीं, बल्कि तुर्की में काम दिलाने का वादा किया गया था और अगर इन लोगो को सच्चाई का पता होता तो शायद वे कभी इराक जाते ही नहीं।
यानी कि भले ही उनकी मौत एक दुर्घटना थी, मगर इस दुर्घटना के पीछे खाड़ी देशों में श्रमिकों को भेजने वाले दलालों के नेटवर्क की भूमिका थी और सरकार को यह जिम्मेदारी लेनी ही होगी को वह इन दलालों के नेटवर्क पर अंकुश नहीं लगा सकी है। यहां एक बात ध्यान में रखनी चाहिए कि ऐसा नहीं है कि इन पर अंकुश लगाने के लिए सरकार के पास मजबूत कानून का अभाव हो। 1983 का इंडियन एमिग्रेशन एक्ट अपने आप में एक सक्षम कानून है। इसके अतिरिक्त खाड़ी के देशों के साथ भारत सरकार ने कई समझौते भी कर रखे हैं, मगर जमीन पर हालात ऐसे हैं कि कई अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं ने अपनी रिपोर्ट में कई बार यह माना है कि बात चाहे बाहर जाने की हो या प्रेषण की दक्षिण एशिया में अनौपचारिक माध्यमों के प्रयोग काफी ज्यादा होता है। इन बातों को यहां कहने का मतलब इसलिए बनता है, क्योंकि अगर मोसुल की इस घटना को राजनीतिक मुद्दे के तौर पर लेने के बजाय पूरी प्रणाली के लिए एक सबक के तौर पर लिया जाए तो निस्संदेह इस हालत को बदला जा सकता है। इसके लिए अब प्रयास किए जाने चाहिए।
(लेखक जेएनयू में शोधार्थी हैं )