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'कौन जाए जौक अब दिल्ली की गलियां छोड़के', अपनी बदहाली पर आंसू बहाता शाही शायर

जौक का जन्‍म 1789 में दिल्‍ली में ही हुआ था। उनके पिता शेख मोहम्‍मद रमजान मुगलों की फौज में सिपाही हुआ करते थे। जौक का बचपन काफी गरीबी में बीता और तालीम भी बस काम चलाऊ ही हुई।

By Kamal VermaEdited By: Published: Wed, 14 Nov 2018 11:56 AM (IST)Updated: Wed, 14 Nov 2018 12:17 PM (IST)
'कौन जाए जौक अब दिल्ली की गलियां छोड़के', अपनी बदहाली पर आंसू बहाता शाही शायर
'कौन जाए जौक अब दिल्ली की गलियां छोड़के', अपनी बदहाली पर आंसू बहाता शाही शायर

नई दिल्‍ली [जागरण स्‍पेशल]। कौन जाए जौक अब दिल्‍ली की गलियां छोड़के। मोहम्‍मद इब्राहिम जौक ने ये लाइनें क्‍या लिखी मानों अमर ही हो गए। दिल्‍ली के वाशिंदों के लिए उनकी लिखी यह लाइनें किसी अनमोल धरोहर से कम नहीं हैं। जौक की जितनी बात की जाए शायद कम ही होगी। शहंशाह बहादुर शाह जफर के शाही शायर होने के अलावा यदि वह किन्‍ही दो बातों के लिए याद किए जाते हैं तो उनमें एक अपने समकालीन शायर मिर्जा गालिब से अदावत के लिए तो दूसरा अपनी शायरी के लिए। गालिब से तो उनकी अदावत कुछ ऐसी थी कि उनको नीचा दिखाने का कोई मौका वह नहीं छोड़ते थे। हालांकि कभी कभी उनका यह दांव उलटा भी पड़ा। शायर और शायरी की बात करें तो गालिब की शायरी पर जौक जमकर दाद देने वालों में शुमार किए जाते थे।

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जैसी उनकी शायरी थी वैसे ही खुद जौक भी थे। यदि यूं कहा जाए कि उनका अक्‍स उनकी शायरी में बखूबी दिखाई देता है तो गलत नहीं होगा। जौक का जन्‍म 1789 में दिल्‍ली में ही हुआ था। उनके पिता शेख मोहम्‍मद रमजान मुगलों की फौज में सिपाही हुआ करते थे। जौक का बचपन काफी गरीबी में बीता और तालीम भी बस काम चलाऊ ही हुई। लेकिन हां इतिहास से उन्‍होंने काफी कुछ सीखा। जैसे-जैसे वो बड़े होते हुए उनका रुझान शायरी की तरफ बढ़ता चला गया। धीरे-धीरे वह इसमें काफी आगे निकल गए और महज 19 साल की उम्र में दिल्‍ली के तख्‍त पर बैठे बहादुर शाह जफर के दरबार के शाही शायर बन गए। जफर, जो कि खुद बेहतरीन शायर थे उन्‍होंने जौक का खकानी ए हिंद के खिताब से भी नवाजा। जौक का आलम ये था कि मुफलिसी में होने के बाद भी उनके वालिद ने उनकी तालीम का इंतजाम किया, लेकिन शायरी का शौक उन्‍हें इस तालीम से दूर लेता चला गया। आखिर में हुआ यूं कि वह मकतब भी पूरा नहीं कर पाए। जौक ने अपनी नज्‍म में क्‍या खूब लिखा है

बहरहाल, जौक की किस्‍मत में कुछ और ही लिखा था। यूं तो जौक के समकालीन कई दूसरे भी नामी शायर हुए। लेकिन इन सभी में जौक और गालिब कहीं आगे निकल गए थे। लेकिन बदलते दौर में गालिब को जो तरजीह मिली वह किसी दूसरे शायर को उतनी नहीं मिल सकी। नहीं तो पुरानी दिल्‍ली की उन्‍हीं गलियों में जहां गालिब का गरीबखाना था वहीं से कुछ दूरी पर जौक भी रहा करते थे। दिल्‍ली के पहाड़गंज में आज भी जौक की मजार बनी है। लेकिन आज इस पर लोगों की निगाह कम ही जाती है। पुरानी दिल्‍ली की यह गलियां उस दौर की गवाह हैं जब यहां पर शेरो-शायरी का दौर बेहद लंबा हुआ करता था। यह दौर वो था जब अंग्रेज हिंदुस्‍तान पर काफी हद तक काबिज हो चुके थे। जौक खुद अंग्रेजों से नफरत करते थे लेकिन सभी की तरह वह भी मजबूर थे।

जौक कभी सुल्‍तान के दरबार में महज चार रुपये माह की तन्‍खाह पर मुलाजिम हुआ करते थे। बाद में जब जफर सत्‍ता पर काबिज हुए तो उनकी तन्‍खाह चार रुपये से बढ़ाकर सौ रुपये कर दी गई थी। जिस वक्‍त देश में आजादी को लेकर पहली क्रांति जन्‍म ले रही थी उस वक्‍त तक जौक दरबार में बतौर शाही शायर रहे। जौक की शायरी की सबसे खास बात थी कि उनके हर कलाम में बेहद आम और हल्‍के फुल्‍के शब्‍द हुआ करते थे। यही वजह थी कि उन कलाम जल्‍द ही लोगों को समझ आ जाया करते थे। वो तुरंत गजल कहने के माहिर थे। 1854 में जौक इंतकाल फरमा गए और शायरी की दुनिया को बुलंद सितारा आसमान में कहीं खो गया। लेकिन उनकी लिखी हर नज्‍म आज भी शायरी के चाहने वालों की जुबान पर चढ़ी है। दिल्‍ली के नबी करीब में जहां उनकी मजार है उसको जिर्णोद्धार करने के आदेश दिए थे। बावजूद इसके आज भी यहां मजार की चाहरदिवारी तक लोगों के मकानों की दीवार पहुंच चुकी हैं।

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