जानिए उत्तराखंड के भुतहा गांव की हकीकत, जिन्हें संवारने का सरकार ने उठाया है बीड़ा
उत्तराखंड में पलायन की भयावह तस्वीर को खुद ग्राम्य विकास एवं पलायन आयोग की रिपोर्ट तस्दीक करती है।
केदार दत्त, देहरादून। पलायन का दंश झेल रहे उत्तराखंड में घोस्ट विलेज यानी निर्जन गांवों को फिर संवारने और पलायन थामने की राज्य सरकार के सामने एक बड़ी चुनौती है। निर्जन गांवों को ही लें तो अब तक इनकी संख्या 1702 पहुंच चुकी है। यही नहीं, हजारों की संख्या में ऐसे गांव हैं, जहां आबादी उंगलियों में गिनने लायक रह गई है। हालांकि, सरकार ने इस समस्या से निबटने को कवायद प्रारंभ कर दी है, मगर अभी सफर बहुत लंबा है। माना जा रहा कि सात व आठ अक्टूबर को देहरादून में होने वाले इन्वेस्टर्स समिट के जरिये भी इन गांवों को आबाद करने की राह खुल सकती है। बड़ी कंपनियां अथवा निवेशक यदि कुछेक निर्जन गांवों को ही गोद ले लें तो यह समिट की बड़ी सफलता होगी।
उत्तराखंड में पलायन की भयावह तस्वीर को खुद ग्राम्य विकास एवं पलायन आयोग की रिपोर्ट तस्दीक करती है। यह बताती है कि प्रदेश के सभी जिलों से पलायन का क्रम जारी है, लेकिन सर्वाधिक त्रस्त पर्वतीय जिले हैं। निर्जन हो चुके गांवों की ही बात करें तो वर्ष 2011 की जनगणना में यहां ऐसे गांवों की संख्या 968 थी। वर्ष 2011 के बाद इसमें 734 गांव और जुड़ गए। भौगोलिक लिहाज से प्रदेश के सबसे बड़े पौड़ी जिले में सबसे ज्यादा 517 गांव निर्जन हुए हैं।
आयोग की रिपोर्ट के मुताबिक मूलभूत सुविधाओं के अभाव के साथ ही बेहतर भविष्य के मद्देनजर लोग गांवों को अलविदा कह रहे हैं। नतीजा, निर्जन होते गांवों की बढ़ती संख्या के रूप में सामने आ रहा है। सूरतेहाल, इन गांवों को फिर से आबाद करना किसी बड़ी चुनौती से कम नहीं है। इससे सरकार से लेकर जनप्रतिनिधि और पलायन आयोग खासे चिंतित हैं। यही कारण है कि सबने अपने- अपने स्तर से इस स्थिति से निबटने के लिए कवायद प्रारंभ कर दी है।
पलायन आयोग के उपाध्यक्ष डॉ.एसएस नेगी बताते हैं कि पलायन की मार से त्रस्त गांवों के लिए आयोग कार्ययोजना तैयार करने में जुट गया है। घोस्ट विलेज फिर से आबाद करने की कार्ययोजना पर मंथन चल रहा है। इनमें पर्यटन, सामूहिक खेती, बागवानी, छोटे उद्यम समेत अन्य विकल्पों को अपनाने पर विचार हो रहा है। इसके तहत निर्जन गांवों में खंडहर हो चुके घरों, भूमि के आंकड़े जुटाने के साथ ही वहां कौन-कौन सी गतिविधियां संचालित हो सकती हैं, इसकी जानकारी जुटानी प्रारंभ कर दी है। उन्होंने बताया कि कार्ययोजना तैयार कर जल्द ही इसे सरकार को सौंपा जाएगा।
वहीं, जनप्रतिनिधियों का ध्यान भी वीरान हो चुके गांवों की तरफ गया है। इस कड़ी में राज्य सभा सदस्य अनिल बलूनी ने हाल में निर्जन हो चुके एक गांव को गोद लेकर इसे आबाद कराने की ठानी है। केंद्रीय मंत्रियों ने भी बलूनी की पहल की सराहना करते हुए इसमें अपने-अपने मंत्रालयों की तरफ से हरसंभव सहयोग का भरोसा दिलाया है।
केंद्रीय मंत्रियों के इस रुख से उम्मीद जगी है कि अब राज्य के वीरान हो चुके गांवों को आबाद करने में बड़ा संबल मिलेगा। यही नहीं, इस बीच सात व आठ अक्टूबर को देहरादून में होने वाले इन्वेस्टर्स समिट से भी उम्मीद बंधी है। ऐसे गांवों में सुविधाएं जुटाकर उन्हें पर्यटन, हर्बल समेत दूसरे सेक्टरों के जरिये नई पहचान दिलाई जा सकती है।
उत्तराखंड में निर्जन हो चुके गांव
जिला संख्या
पौड़ी 517
अल्मोड़ा 162
बागेश्वर 150
टिहरी 146
हरिद्वार 132
चंपावत 119
चमोली 117
पिथौरागढ़ 98
टिहरी 93
उत्तरकाशी 83
नैनीताल 66
ऊधमसिंहनगर 33
देहरादून 27
उत्तराखंड में पलायन की तस्वीर
-7950 गांवों का पलायन आयोग ने किया सर्वेक्षण
-118981 लोगों ने 10 वर्ष में 3946 गांवों से स्थायी रूप से किया पलायन
-383726 लोगों ने इस अवधि में 6338 गांवों से किया अस्थायी पलायन
-50 फीसद लोगों ने आजीविका व रोजगार की समस्या के चलते किया पलायन
-29 फीसद लोगों ने राज्य से बाहर और एक फीसद ने देश से बाहर किया पलायन
-70 फीसद लोग गांव से निकलकर राज्य के अन्य स्थानों पर हुए शिफ्ट
-565 गांव ऐसे हैं, जहां 2011 के बाद आबादी 50 फीसद घटी है।
-42 फीसद हैं 26 से 35 आयु वर्ग के पलायन करने वाले लोग। 35 से अधिक आयु वर्ग में 29 फीसद और 25 से कम आुय वर्ग में 28 फीसद ने किया पलायन
-43 फीसद लोगों का गांव में मुख्य व्यवसाय है कृषि
-33 फीसद लोग जुड़े हैं मजदूरी से।
(स्रोत: ग्राम्य विकास एवं पलायन आयोग की रिपोर्ट)व से निकलकर राज्य के अन्य स्थानों पर हुए शिफ्ट
-565 गांव ऐसे हैं, जहां 2011 के बाद आबादी 50 फीसद घटी है।
-42 फीसद हैं 26 से 35 आयु वर्ग के पलायन करने वाले लोग। 35 से अधिक आयु वर्ग में 29 फीसद और 25 से कम आुय वर्ग में 28 फीसद ने किया पलायन
-43 फीसद लोगों का गांव में मुख्य व्यवसाय है कृषि
-33 फीसद लोग जुड़े हैं मजदूरी से। (स्रोत: ग्राम्य विकास एवं पलायन आयोग की रिपोर्ट)
भारत-चीन सीमा पर कमजोर पड़ रही हमारी द्वितीय रक्षापंक्ति
सीमावर्ती क्षेत्रों के गांवों से बढ़ता पलायन चिंता का सबब बन रहा है। सीमा पर बसी आबादी को द्वितीय रक्षापंक्ति कहा जाता है, जो सीमा की सतत निगरानी में मददगार साबित होती है। सीमावर्ती गांवों के विकास के दावे की पोल खोलती एक रिपोर्ट। सीमावर्ती क्षेत्रों के गांवों से बढ़ता पलायन चिंता का सबब बन रहा है। सीमा पर बसी आबादी को द्वितीय रक्षापंक्ति कहा जाता है, जो सीमा की सतत निगरानी में मददगार साबित होती है। इन गांवों के निर्जन होते जाने से सीमा पर द्वितीय रक्षापंक्ति कमजोर पड़ती जा रही है।
सरकार सीमावर्ती गांवों के विकास के लाख दावे करे, घोषणाएं करे और योजनाएं बनाए, लेकिन जमीनी हकीकत संतोषप्रद नहीं है। इसकी बानगी है चमोली, उत्तरांखड के भारत-चीन सीमा से लगे जोशीमठ विकासखंड की द्वींग तपोण ग्राम पंचायत। स्वीकृति के नौ साल बाद भी यहां अदद सड़क नहीं पहुंच पाई। यह स्थिति तब है, जब इस पंचायत को अटल आदर्श ग्राम की श्रेणी में रख विकास को वरीयता देने का दावा किया गया था।
द्वींग तपोण गांव के लिए नौ वर्ष पूर्व सड़क मंजूर होने के बाद वनभूमि के हस्तांतरण की प्रक्रिया भी पूरी कर ली गई, लेकिन काम शुरू नहीं हो सका। मामला सैद्धांतिक स्वीकृति पर अटका हुआ है। नतीजा, गांव के प्रवेश मार्ग पर लगा अटल आदर्श ग्राम का बोर्ड मुंह चिढ़ाता नजर आता है। द्वींग तपोण ग्राम पंचायत को वर्ष 2009 में अटल आदर्श ग्राम का दर्जा मिला था। तत्कालीन मुख्यमंत्री रमेश पोखरियाल निशंक ने सात किमी लंबे लंगसी-द्वींग तपोण मार्ग का शिलान्यास भी कर दिया। साथ ही सड़क निर्माण के लिए 3.24 करोड़ रुपये की धनराशि भी लोक निर्माण विभाग को आवंटित कर दी गई, लेकिन सड़क नहीं बन सकी।
अगर सड़क का निर्माण हो गया होता तो 120 परिवारों वाली ग्राम पंचायत की 600 की आबादी को पैदल पगडंडियां नहीं नापनी पड़तीं। द्वींग तपोण की प्रधान रीना देवी बताती हैं कि सड़क को लेकर ग्रामीणों ने कई बार आंदोलन भी किए। यहां तक कि तहसील मुख्यालय जोशीमठ में बेमियादी अनशन पर भी बैठे। लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। इसी की परिणति है कि लोग धीरे-धीरे शहरों की ओर रुख करते गए। पलायन का सिलसिला जारी है।
सीमावर्ती गांवों से बढ़ता पलायन निश्चित रूप से चिंता का विषय है। द्वींग तपोण की ग्राम प्रधान रीना देवी कहती हैं कि आए दिन भारतीय सीमा में चीनी सैनिकों के घुसपैठ की सूचना मिलती रहती है। ऐसे में सीमा पर स्थित गांवों का आबाद रहना जरूरी है। हमें भूलना नहीं चाहिए कि कारगिल में पाकिस्तानी सेना की घुसपैठ की जानकारी भी सबसे पहले सीमा क्षेत्र के एक ग्रामीण ने ही भारतीय सेना को दी थी।