Exclusive: कर्तव्य समझकर कदम बढ़ाया तो बढ़ते ही चले गए : डॉ. वतवानी
डॉ. वतवानी ने अपने सार्थक प्रयास से एक राह दिखाई है। दैनिक जागरण से डॉ. वतवानी ने अपनी बातें साझा कीं।
नई दिल्ली, जेएनएन। डॉ. भरत वतवानी के प्रयासों को मैग्सेसे पुरस्कार से सम्मानित किया जाना न केवल भारत बल्कि विश्व में मानसिक स्वास्थ्य की गंभीर होती चुनौती और इसके सापेक्ष अपेक्षित समाधान को दुनिया के सामने प्रस्तुत करने का सबब है। डॉ. वतवानी ने अपने सार्थक प्रयास से एक राह दिखाई है। दैनिक जागरण से डॉ. वतवानी ने अपनी बातें साझा कीं। प्रस्तुत है मुंबई से ओमप्रकाश तिवारी की रिपोर्ट।
समाजसेवा तो दिल से ही हो सकती है। जब तक दिल में समाज के प्रति संवेदना न हो, किसी से जबरन कुछ नहीं करवाया जा सकता। ऐसी ही एक संवेदना जगी थी डॉ. भरत वतवानी के हृदय में, जब उन्होंने उलझे बालों एवं गंदे-फटे कपड़ोंवाले एक नौजवान को मुंबई में एक रेस्टोरेंट के बाहर नारियल के खोपरे में नाली का पानी पीते देखा।
डॉक्टरी के शुरुआती दिन थे। पत्नी स्मिता भी उन्हीं की तरह मानसिक चिकित्सक ही थीं। दोनों मिलकर पांच बेड का एक छोटा सा क्लीनिक चलाते थे। उस युवक को लाकर उसी क्लीनिक के एक बेड पर भर्ती कर लिया। इलाज शुरू हुआ। कुछ दिन में युवक ठीक हुआ तो पता चला कि वह पैथोलॉजिस्ट है। उसके पिता आंध्रप्रदेश में जिला परिषद के सुपरिनटेंडेंट थे। तब डॉ. वतवानी को अहसास हुआ कि सड़कों पर घूमते ऐसे मानसिक रोगी भिखारी नहीं होते। इनका इलाज करके इन्हें एक ठीकठाक जिंदगी दी जा सकती है। इन्हें इनके परिवार से मिलवाया जा सकता है। और यहीं से शुरू हुआ डॉ.भरत वतवानी एवं डॉ. स्मिता वतवानी के सड़कों पर घूमते मानसिक रोगियों का इलाज कर उन्हें उनके घरवालों से मिलवाने का सफर, जो आज डॉ. वतवानी को रेमन मैग्सेसे अवार्ड तक ले आया।
आज भी डॉ.वतवानी मुंबई की सड़कों पर चलते हुए अचानक ड्राइवर को गाड़ी रोकने और यूटर्न लेने को कहते हैं। क्योंकि सड़क चलते उनकी निगाहें किसी न किसी विक्षिप्त पर पड़ जाती हैं। यदि वह आसानी से चलने की स्थिति में होता है, तो गाड़ी में बैठा लेते हैं और वह पहुंच जाता है, मुंबई से करीब 100 किलोमीटर दूर कर्जत स्थित श्रद्धा पुनर्वसन केंद्र पर। डॉ. वतवानी ने इसकी शुरुआत 2006 में प्रसिद्ध समाजसेवी बाबा आमटे की प्रेरणा से की थी। यहां 120 रोगियों को रखने की क्षमता है। लेकिन रहते हमेशा उससे ज्यादा ही हैं। एक रोगी को सामान्य करने में औसतन दो माह तक लग जाते हैं। किसी-किसी को ज्यादा समय भी लग सकता है। सामान्य होने पर व्यक्ति से उसके घर-परिवार का पता पूछकर उसे उसके परिवार के पास भेज दिया जाता है।
डॉ. वतवानी बताते हैं कि 80 फीसद मामलों में परिवार बिछड़ गए अपने खून से मिलकर प्रसन्न ही होता है। कभी-कभार ही ऐसी स्थिति आती है कि पड़ोसियों, नाते-रिश्तेदारों या पुलिस की मदद से समझाने की जरूरत पड़े। डॉ. वतवानी के श्रद्धा पुनर्वसन केंद्र में स्वयं डॉ. दंपति के अलावा दो और चिकित्सकों सहित 30 लोगों का स्टाफ है। देश की लगभग सभी भाषाओं को जाननेवाले समाजसेवी कार्यकर्ता भी हैं, जो रोगियों से उनकी भाषा में बात करते हैं, और ठीक होने पर उन्हें उनके घर तक पहुंचाने में मददगार होते हैं। अब तक यह केंद्र करीब 7000 मानसिक रोगियों को ठीककर उनके परिवारों से मिलवा चुका है।
लेकिन डॉ. वतवानी की तो अपनी सीमाएं हैं। जबकि समस्या देशव्यापी है। ऐसा कौन सा नगर होगा, जहां आपको सड़कों पर घूमते दो-चार विक्षिप्त दिन भर में नजर न आ जाते हों। डॉ.भरत के अनुसार यह विक्षिप्तता (सिज़ोफ्रेनिया) भी डायबिटीज या ब्लडप्रेशर की तरह एक रोग मात्र है। यह किसी को भी हो सकता है। और इसे ठीक भी किया जा सकता है। मानसिक रोगियों के लिए देश में कुछ स्थानों पर अस्पताल भी हैं, लेकिन रोगियों की संख्या को देखते हुए ये पर्याप्त नहीं हैं। सरकारी या निजी अस्पतालों में तो किसी परिजन या परिचित द्वारा लाए गए रोगी ही आ सकते हैं।
लेकिन उनका क्या होगा, जो एक शहर से भटककर दूसरे शहर में जा पहुंचे हैं? उनके लिए तो श्रद्धा पुनर्वसन केंद्र जैसे अनेक पुनर्वसन केंद्रों की जरूरत है, जो संवेदनशील मनोचिकित्सकों के आगे आने से ही खड़े हो सकते हैं। डॉ. वतवानी कहते हैं कि उन्हें मिला सम्मान 'एक उद्देश्य' को मिला सम्मान है। इस सम्मान ने लोगों का ध्यान इस बीमारी की ओर खींचा है। हो सकता है समाज के प्रति अपना कर्तव्य समझकर कुछ और लोगों की संवेदनाएं जगें, और लोग इस श्रृंखला को आगे बढ़ाने के लिए आगे आएं। आम लोगों में भी इस बीमारी के प्रति संवेदनशील होने की जरूरत है। कर्जत से पहले जब डॉ. वतवानी मुंबई के दहिसर में यह केंद्र चलाने के लिए एक जगह ली, तो उन्हें पड़ोसियों के तगड़े विरोध का सामना करना पड़ा था।तब उन्हें दहिसर में यह केंद्र शुरू करने के लिए कोर्ट तक जाना पड़ा था।