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तहजीब और अदब का शहर लखनऊ

भारतीय शास्त्रीय नृत्य ‘कत्थक’ को लखनऊ में एक नया रुप मिला। अवध के अंतिम नबाब वाजिद अली शाह कत्थक के आश्रयदाता तथा उस्ताद थे। लच्छू महाराज, बिरजू महाराज, अच्छन महाराज और शंभू महाराज ने इस परंपरा को जीवित बनाए रखा है।

By Gaurav TiwariEdited By: Published: Sun, 01 Jul 2018 08:52 PM (IST)Updated: Mon, 02 Jul 2018 12:16 AM (IST)
तहजीब और अदब का शहर लखनऊ

लखनऊ महज एक शहर नहीं बल्कि मिजाज है। लखनऊ की हवाओं में स्नेह भरा आमंत्रण है। यहां की फिजा में संगीत की सुमधुर स्वर लहरियां सुनाई देती हैं। यह दुनिया के उन चुनिंदा शहरों में से एक है जो गोमती नदी के दोनों किनारों पर आबाद है। लखनऊ की शाम तो विश्व प्रसिद्ध है। हजरतगंज का एक चक्कर लगा लीजिए, चोला मस्त हो जाएगा।

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लखनऊ के नवाब जहां अपनी नजाकत, नफासत के साथ ही स्थापत्य के लिए जाने गए। वहीं अंग्रेजों ने भी इल्म का परचम फहराने में पूरा जोर लगा दिया। बड़ा इमामबाड़ा, छोटा इमामबड़ा हो या चाहे भूलभुलैया या घंटाघर। नवाबी दौर की तमाम इमारतें अब भी तनकर खड़ी पर्यटकों को आमंत्रण देती दिखती हैं। लखनऊ की गलियों के तो क्या कहने, कंघी वाली गली से लेकर बताशे वाली गली तक यहां मौजूद हैं। यूं भी कह सकते हैं कि वह कौन सी गली है जो लखनऊ में मौजूद नहीं। जी हां, चोर वाली गली भी यहां।

लखनऊ सबसे ज़्यादा जाना जाता है खानपान के लिए। यहां का नॉनवेज दुनिया में मशहूर है। कबाब की एक से बढ़कर एक किस्में। यहां के नॉनवेज वाले चेहरा पढ़ना भी जानते हैं। ऐसा नहीं कि लखनऊ फकत नानवेज का शहर है। यहां की चाट भी ऐसी है कि बस चाटते ही रहो।

लखनऊ शायद अकेला ऐसा शहर है जहां हींग युक्त समोसे इसका जायका बढ़ा देते हैं। यह एक प्रयोगधर्मी शहर हैं। मिष्ठान के नित नूतन अन्वेषण होते रहते हैं यहां। मिजाज में नजाकत और अंदाज में नफासत। नफासत का नमूना यहां कि ‘पहले आप’ वाली संस्कृति है जो दुनियाभर में मशहूर है। इसीलिए तो लखनऊ वाले कहते हैं- हम फिदा-ए-लखनऊ, हैं किसमें हिम्मत जो छुड़ाए लखनऊ...

यहां की भाषा-संस्कृति-नृत्य या कला की हर विधा, परंपरा में यही एक बात है जो सबसे ज्यादा उभरकर नजर आती है। तहजीब और अदब से पेश आने की कला यहां से सीखते हैं लोग। अब लखनऊ बदल रहा है। शहरीकरण ने इसे भी आधुनिक जामा पहनाकर नए दौर की रंगत में ढालने की कोशिश की है।

गलावटी कबाब हो, नहारी-कुल्चा या फिर शाही कोरमा। अवधी कुजीन यानी व्यंजनों की शान हैं ये। इसकी खुशबू देश-विदेश हर जगह फैली हुई है। बादशाह नसीरुद्दीन हैदर के जमाने में ‘शीरमाल’ का चलन शुरू हुआ। दिल्ली, मुंबई सहित दुबई व सऊदी अरब आदि हर जगह ‘नहारी-कुल्चे’ का चलन है, यह लखनऊ की ही देन है।

अवधी व्यंजनों में तरह-तरह के मसालों के साथ कई तरह की जड़ी बूटियों का भी प्रयोग होता है। ठंडाई के शौकीनों के लिए चौक में राजा की ठंडाई मशहूर है। चार पीढ़ियों से चल रही इस ठंडाई की दुकान पर पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी, साहित्यकार अमृतलाल नागर, भगवती शरण वर्मा, कुमुद नागर जैसे विद्वानों का जमावड़ा भी लगता था। लंदन, यूके, यूएसए, सउदी अरब, पाकिस्तान आदि देशों के लोग भी यहां की ठंडाई का मजा ले चुके हैं।

मशहूर पर्यटन स्थल

बड़ा इमामबाड़ा
इसे ‘आसिफी इमामबाड़ा के नाम से भी जाना जाता है। इसे लखनऊ के नबाव आसुफुद्दौला द्वारा बनवाया गया था। इस इमामबाड़े का निर्माण उन्होंने 1784 में अकाल राहत परियोजना के अंतर्गत करवाया था। यह विशाल गुंबदनुमा हॉल 50 मीटर लंबा और 15 मीटर ऊंचा है। परिसर में एक श्राइन, एक भूलभूलैया यानी भंवरजाल, एक बावड़ी (सीढ़ीदार कुंआ) और नबाव की कब्र भी है, जो एक मंडपनुमा आकृति से सुसज्जित है।

छोटा इमामबाड़ा
इसका वास्तविक नाम ‘हुसैनाबाद इमामबाड़ा’ है। इसे मोहम्मद अली शाह ने साल 1837 में बनवाया था। यह सआदत अली का मकबरा बेगम हजरत महल पार्क के समीप है। इसके साथ ही खुर्शीद जैदी का मकबरा भी बना हुआ है। यह मकबरा अवध वास्तुकला का शानदार उदाहरण हैं। मकबरे की शानदार छत और गुंबद इसकी खासियत हैं। ये दोनों मकबरे देखने में जुड़वां लगते हैं।

भूल-भुलैया
बड़ा इमामबाड़ा परिसर में ही भूलभूलैया है जिस कारण बड़ा इमामबाड़ा काफी मशहूर है। भूल भुलैया में कई भ्रामक रास्ते हैं जो एक दूसरे से जुड़े हुए हैं और इनमें कुल 489 दरवाजे हैं। यह माना जाता है कि यहां एक लंबा रास्ता भी था जो गोमती नदी की ओर जाता था। वर्तमान में इस रास्ते को बंद कर दिया गया है।

रूमी दरवाजा
बड़े इमामबाड़े के बाहर ही रूमी दरवाजा बना हुआ है। यहां की सड़क इसके बीच से निकलती है। इस द्वार का निर्माण भी अकाल राहत परियोजना के अंतर्गत किया गया था। नवाब आसुफुउद्दौला ने यह दरवाजा 1782 ई. में अकाल के दौरान बनवाया था ताकि लोगों को रोजगार मिल सके।

घंटाघर
लखनऊ का घंटाघर भारत का सबसे ऊंचा घंटाघर है। हुसैनाबाद इमामबाड़े के घंटाघर के समीप ही 19वीं शताब्दी में बनी एक पिक्चर गैलरी की है। यहां लखनऊ के लगभग सभी नवाबों की तस्वीरें देखी जा सकती हैं।

रेजीडेंसी
लखनऊ रेजीडेंसी के अवशेष ब्रिटिश शासन की स्पष्ट तस्वीर दिखाते हैं। 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के समय यह रेजीडेंसी ईस्ट इंडिया कंपनी के एजेंट का भवन था। यह ऐतिहासिक इमारत लखनऊ के दिल कहे जाने वाले हजरतगंज चौराहे से डालीगंज जाने वाली रोड पर शहीद स्मारक पार्क के करीब है।

सतखांडा पैलेस
यह इमारत हुसैनाबाद इलाके में स्थित है। अवध के तीसरे बादशाह मुहम्मद अली शाह ने सन् 1842 में इसे बनवाया था। यह इमारत इटली में बनी ‘पीसा की झुकी मीनार’ की झलक पेश करती है। सतखंडा पैलेस के निर्माण के दौरान इसके चार खंड ही बन पाए थे कि इस बीच 16 मई, सन् 1842 में मुहम्मद अली शाह का निधन हो गया। बादशाह की कई इमारतें अधूरी रह गईं, जिनमें सतखांडा या नौखंडा पैलेस, जुम्मा मस्जिद और बारादरी प्रमुख थीं।

जुम्मा मस्जिद को ‘खुदा का घर’ मानकर बादशाह की बेगम मलका ने पूरा करवाया, लेकिन दूसरी इमारतों को अगले बादशाह ने भी पूरा नहीं करवाया, क्योंकि उस वक्त का दस्तूर था कि वह इमारतें मनहूस मानी जाती थीं, जिनके निर्माण के दौरान बनवाने वाले की मौत हो जाए। यही कारण है कि सतखांडा पैलेस भी तब से आज तक वैसे ही अधूरा पड़ा है।

रोशन-उद-दौला की कोठी
कैसरबाग बस अड्डा के सामने स्थित जिस बिल्डिंग में आज पुरातत्व निदेशालय का ऑफिस है, वह भी लखनऊ की धरोहरों में से एक है। इस इमारत को आज भी ‘रोशन-उद-दौला की कोठी’ के नाम से ही जाना जाता है।

करीब पौने दो सौ साल पुरानी इस इमारत का निर्माण सन् 1827 से 1837 के बीच लखनऊ के दूसरे बादशाह नसीरुद्दीन हैदर ने करवाया था। लखनऊ आने वाले पर्यटक इस इमारत को देखना पसंद करते हैं क्योंकि यहां स्थित लाइब्रेरी में उन्हें लखनऊ से जुड़ी बहुत सी जानकारियां भी मिलती हैं।

सिकंदर बाग
अवध के अंतिम नवाब वाजिद अली शाह (1847-56 ई.) ने अपनी प्रिय बेगम सिकंदर महल के नाम पर सिकंदरबाग का निर्माण कराया था। उस वक्त इसके निर्माण में कुल पांच लाख रुपए खर्च हुए और करीब एक साल का समय लगा था। इसके सबसे महत्वपूर्ण अंश, प्रवेश द्वार के दोनों पार्श्वों में पैगोडा शैली में निर्मित आयताकार गुंबद हैं। इनसे मिले हुए दो वृत्ताकार गुंबद हैं और मछलियों के दो जोड़े राजचिन्ह के रूप में दिखते हैं।

दादा मियां की मजार
लखनऊ से 32 किमी. की दूरी पर बाराबंकी जिले के देवां शरीफ में हजरत वारिस अली शाह की दरगाह है। इसे लोग दादा मियां की दरगाह भी कहते हैं। करीब 130 फीट ऊंची दरगाह की दिव्यता देखते ही बनती है। पर्यटन के लिहाज से इस दरगाह की प्रसिद्धि दूर-दूर तक है। हर साल कार्तिक महीने में यहां एक विशाल मेला लगता है, जिसमें दूर-दूर से लोग आते हैं।

कत्थक और बेगम अख्तर की गायकी
भारतीय शास्त्रीय नृत्य ‘कत्थक’ को लखनऊ में एक नया रुप मिला। अवध के अंतिम नबाब वाजिद अली शाह कत्थक के आश्रयदाता तथा उस्ताद थे। लच्छू महाराज, बिरजू महाराज, अच्छन महाराज और शंभू महाराज ने इस परंपरा को जीवित बनाए रखा है।

अवध से कई पटकथा लेखक व गीतकार हुए हैं। नौशाद, मजरूह सुलतानपुरी, कैफी आजमी, जावेद अख्तर, अली रजा, भगवती चरण वर्मा, डॉ. कुमुद नागर, डॉ. अचला नागर (निकाह, बागवान), वजाहत मिर्जा (मदर इंडिया व गंगा जमुना के लेखक), अमृतलाल नागर, अली सरदार जाफरी और के.पी. सक्सेना (आमिर खान की फिल्म ‘लगान’ के लेखक) ने भारतीय सिनेमा को अपनी प्रतिभा से धनी बनाया।

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