बेमिसाल शिल्प की नगरी है 'महाबलीपुरम', जो बनेगा इतिहास का गवाह
7वीं शताब्दी में चीनी यात्री ह्वेनसांग ने पल्लवों की राजधानी कांचीपुरम का भ्रमण किया। सैकड़ों साल बाद कल चीन के राष्ट्रपति शी चिनफिंग पीएम मोदी से यहीं मिलेंगे।
[डॉ. कायनात काजी]। तमिलनाडु का शहर महाबलीपुरम, इतिहास का गवाब बनने वाला है। दुनिया के दो बड़े देशों और एशिया की महाशक्तियों में शुमार भारत और चीन के राष्ट्राध्यक्ष की यहां मुलाकात होने वाली है। पीएम मोदी और चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग की यहां मुलाकात होगी। इस शहर का इतिहास काफी पुराना है, जो इसे और खास बनाता है।
सातवीं शताब्दी में चीनी यात्री ह्वेनसांग ने पल्लवों की राजधानी कांचीपुरम का भ्रमण किया था। सैकड़ों साल बाद कल चीन के राष्ट्रपति शी चिनफिंग प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से शिखर वार्ता के लिए पल्लवों की शिल्प-नगरी रहे और यूनेस्को की विश्व विरासत सूची में शामिल महाबलीपुरम (मामल्लपुरम) आ रहे हैं। इस मौके पर आज डॉ. कायनात काजी के साथ चलते हैं चेन्नई के पास स्थित इस शहर के सफर पर..
महाबलीपुरम की बात की बात करें तो चेन्नई शहर से निकल जब ईस्ट कोस्ट एक्सप्रेस वे पकड़ते हैं तो फिजा में जैसे सुकून की खुशबू-सी घुलने लगती है। आपके साथ दक्षिण-पूर्वी तटरेखा जिसे कोरोमंडल तट कहते हैं, किसी साथी की तरह निरंतर चलती रहती है। इसका सही नाम चोलमंडलम था, लेकिन चूंकि यहां आने वाले पुर्तगाली इसका उच्चारण नहीं कर पाते थे, इसलिए इसे कोरोमंडल कहा जाने लगा।
चोलमंडलम यानी वह स्थान, जिसे चोल शासकों ने बसाया। चेन्नई से मात्र 60 किलोमीटर की दूरी तय करने पर चेंगलपट्टू जिले में एक छोटा-सा कस्बा महाबलीपुरम या मामल्लपुरम पड़ता है, जिसका समृद्ध सांस्कृतिक इतिहास है। यह बंगाल की खाड़ी के किनारे स्थित एक ऐसे स्थान के रूप में जानी जाती है, जहां मंदिरों के समूह स्थित हैं। इसी कारण इसे यूनेस्को की विश्व धरोहर सूची में शामिल किया गया है।
इसे महाबलीपुरम और मामल्लपुरम के अलावा कई अन्य नामों से भी जाना जाता है, जैसे-कादल, मल्लै, अर्थसेथू, मल्लावराम, मल्लाई और ममल्लई आदि। इस जगह का उल्लेख प्राचीन संगम साहित्य की किताब ‘पथ्थुपाट्टु’ में भी मिलता है। यहां के मंदिर अपनी नक्काशियों के लिए मशहूर हैं। यहां पत्थरों को तराश कर बनाई गई चट्टानें देखने योग्य हैं। इनमें से ज्यादातर एक ही पत्थर को काटकर बनाई गई हैं। इस खूबसूरत शहर को मंदिरों की नगरी के नाम से भी जाना जाता है। इसे पल्लव राजवंश के प्रतापी राजा महेंद्र वर्मन प्रथम (शासनकाल 600-630 ई.) ने 7वीं सदी में बसाया था। उनके उत्तराधिकारी नरसिंहवर्मन प्रथम (630-668 ई.) को एक ‘महामल्ल’ या 'मामल्ल’की उपाधि दी गई थी। उनके नाम पर इसे मामल्लपुरम नाम दिया गया था।
कलाप्रेमी शासक
महाबलीपुरम पल्लव काल में प्रमुख समुद्री बंदरगाह था। वैसे तो पल्लवों की राजधानी कांचीपुरम हुआ करती थी, लेकिन महाबलीपुरम को पल्लव अपनी दूसरी राजधानी की तरह महत्व देते थे। यहां उन्होंने पांचवीं से आठवीं सदी के बीच शासन किया था। उत्तरी तमिलनाडु से लेकर दक्षिणी आंध्र प्रदेश तक पल्लव साम्राज्य का विस्तार था। अत्यंत वैभवशाली होने के नाते पल्लव साम्राज्य के विदेश से भी व्यापारिक संबंध थे। यहां से प्राप्त चीन और यूरोपीय देशों के तीसरी और चौथी सदी के सिक्कों से प्रमाणित होता है कि महाबलीपुरम उस समय एक बड़ा व्यापारिक केंद्र था। प्राप्त शिलालेखों के अनुसार, महाबलीपुरम के स्मारकों को पल्लव राजा महेंद्र वर्मन ने बनवाया, जिसे बाद में उनके पुत्र नरसिंह वर्मन ने और परिष्कृत किया। इस वंश में और भी कई कलाप्रेमी शासक हुए।
चीन से प्राचीन कनेक्शन
आज चीन के राष्ट्रपति हमारे प्रधानमंत्री के साथ अनौपचारिक शिखर वार्ता के लिए यहां आ रहे हैं, तो इसमें हैरत नहीं होनी चाहिए, क्योंकि इसका चुनाव संभवत: इसीलिए किया गया है, क्योंकि प्राचीन काल में भी इस शहर का चीन के साथ रिश्ता था। जी हां, यह रिश्ता रक्षा और व्यापार से जुड़ा था, जिसकी गवाही देते हैं यहां पर मिलने वाले चीनी सिक्के, शिलालेख और प्राचीन लिपियां। चीन ने पल्लव वंश के राजाओं के साथ कई संधियां की थीं। 7वीं शताब्दी में चीनी यात्री ह्वेनसांग भारत आया था। वह पल्लव वंश के शासनकाल में कांचीपुरम पहुंचा था। उस वक्त चीन और तमिलनाडु दोनों के प्रतिनिधिमंडल एक-दूसरे के यहां आया-जाया करते थे।
महाबलीपुरम के स्मारक
यहां के सबसे अच्छे स्मारकों के समूह को यूनेस्को की विश्व विरासत सूची में शामिल किया गया है। इन्हें देखकर ऐसा लगता है, जैसे इसे किसी जादू से बनाया गया हो। विशाल शिलाओं को तराश कर उनमें जान डाली गई हो। इन स्मारकों के हर पन्ने पर एक कहानी लिखी है, जिसका संबंध महाभारत और तमिल संगम साहित्य से है। इन स्मारकों को मुख्य रूप से चार श्रेणियों में बांटा गया है- रथ, मंडप, गुफा मंदिर, संरचनात्मक मंदिर और विशाल चट्टानें।
शोर मंदिर
यहां एक भव्य मंदिर है, जिसे ‘शोर मंदिर’ यानी समुद्र तट का मंदिर भी कहा जाता है। इसका निर्माण राजा नरसिंह वर्मन ने करवाया था। वास्तुशिल्प कला के इस अद्भुत नमूने में खूबसूरत बहुभुज गुंबद के साथ मंदिर में भगवान विष्णु और शिव की मूर्तियां सजी हैं। यह इतना मजबूत कि यहां आई सुनामी की ऊंची लहरों और तूफानी हवाएं भी इसका कुछ नहीं बिगाड़ सकीं।
पंच पांडव रथ स्मारक
आपने भारत में कहीं भी ऐसे मंदिर नहीं देखे होंगे, जिन्हें चट्टानों को खोदकर उकेरा गया हो। ये मोनोलिथिक यानी एक ही पत्थर या चट्टान को तराशकर बनाई गई संरचनाएं हैं। ये रथ के आकार के मंदिर हैं। इन्हें महाभारत के नायकों के नाम पर पंच पांडव रथ भी कहा जाता है। इन पांच रथों को धर्मराज रथ, भीम रथ, अजरुन रथ, द्रौपदी रथ, नकुल और सहदेव रथ के नाम से जाना जाता है। इनका निर्माण बौद्ध विहार शैली तथा चैत्यों के अनुसार किया गया है। अपरिष्कृत तीन मंजिल वाले धर्मराज रथ का आकार सबसे बड़ा है। पांच रथों में से चार एक पंक्ति में खड़े हैं। द्रौपदी के नाम से भी एक छोटा रथ मौजूद है। इसके अलावा, भगवान विष्णु, मुरुगन, शिव आदि देवताओं की कई मूर्तियां शामिल हैं। रथों की दीवारों पर कृष्ण और बाहरी हिस्सों में नंदी, हाथी आदि की मूर्तियां हैं।
वंडर बॉल
यहां एक गेंद के आकार की विशाल चट्टान एक पहाड़ी पर कुछ इस तरह टिकी हुई है, जैसे अभी लुढ़क जाएगी। यह चट्टान गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत को फेल करती जान पड़ती है। यह आज भी वैज्ञानिकों के लिए एक पहेली बनी हुई है। 45 डिग्री पर झुकी इस विशाल शिला को लोग ‘वंडर बॉल’ भी कहते हैं। इसे भगवान कृष्ण के लिए बड़े शिलाखंड से लटकी मक्खन की बूंद माना जाता है।
अजरुन तपस
यहां 43 फीट लंबी और 96 फीट ऊंची एक विशाल चट्टान को तराश कर असंख्य चित्रों के माध्यम से अजरुन की तपस्या का चित्रंकन किया गया है। इसे अजरुन से संबंधित दुनिया में सबसे अनोखा स्थापत्य माना जाता है।
वराह गुफा मंदिर
मां लक्ष्मी, दुर्गा और विष्णु के वराह अवतार को समर्पित यह गुफा भी पल्लव राजवंश शासकों के मूर्तिकला प्रेम को बखूबी दर्शाती है। बाहर से साधारण दिखने वाली इस गुफा के भीतर की दीवारें खूबसूरत मूर्तिकला से सुसज्जित हैं। इस गुफा के खंभे भगवान नरसिंह के मजबूत बाजुओं पर टिके हैं।