सबसे ज्यादा कृषि विकास दर, फिर भी आंदोलन को मजबूर किसान
किसानों ने इन 10 दिनों में शहर की दुकानों, शोरूम और सुपर बाजार का रुख नहीं करने का भी अहम निर्णय लिया है।
भोपाल [नईदुनिया स्टेट ब्यूरो]। विधानसभा चुनाव से ठीक पहले मप्र में एक बार फिर किसान आंदोलन प्रदेश की भाजपा सरकार की मुश्किलें बढ़ा सकता है। पिछले साल मंदसौर गोलीकांड के बाद भाजपा की मुश्किलें बढ़ गई थीं और इसे लेकर नाराजगी भी बढ़ गई थीं। हालांकि मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने पूरे मामले को संभाल लिया। इस बार सरकार और भाजपा पहले से ज्यादा सतर्क है। हालांकि इस बार कांग्रेस इस आंदोलन का सियासी फायदा लेने की पूरी कोशिश कर रही है।
पिछले एक साल में सरकार अपने बजट का लगभग दस प्रतिशत यानी करीब 20 हजार करोड़ स्र्पए सिर्फ किसानों तक विभिन्न योजनाओं के जरिए पहुंचाने का दावा कर रही है। भावांतर भुगतान योजना, फसल खरीदी पर प्रोत्साहन राशि, पिछले साल की फसल पर इस साल बोनस जैसी योजनाओं के बावजूद यदि किसान खुश नहीं है और उसे आंदोलन के लिए मजबूर होना पड़ रहा है तो सवाल उठना लाजमी है कि कहीं मप्र का कृषि मॉडल फेल तो नहीं हो गया?
जिस राज्य के मुख्यमंत्री को किसानों की आय दो गुना करने का उपाय खोजने वाली कमेटी का अध्यक्ष बनाया गया हो। जिस राज्य के कृषि विकास का ढिंढोरा पूरे देश में पीटा जाता हो, जिस राज्य की कृषि विकास दर देश के औसत से कई गुना ज्यादा (औसतन 18 प्रतिशत) हो, उस कृषि प्रधान राज्य में इस तरीके के हालात पूरे देश के लिए भी चिंता का कारण बन सकते हैं। मप्र में कृषि के आंकड़ों पर नजर डालें तो पाएंगे कि कृषि के ऊपर आबादी की निर्भरता 1960 के मुकाबले सिर्फ 9 प्रतिशत घटी है, लेकिन राज्य के सकल घरेलू उत्पाद(जीडीपी) में कृषि का योगदान 32 प्रतिशत घट गया है। 1960 में जीडीपी में कृषि का योगदान 60 प्रतिशत था और कुल 79.3 प्रतिशत आबादी खेती पर निर्भर थी। जबकि 2014-15 में कृषि का जीडीपी में योगदान 28.6 प्रतिशत पर आ गया और खेती पर निर्भरता 70 प्रतिशत आबादी की है।
कर्ज लेने वाले किसान पर साल भर में बढ़ गया एक लाख का बोझ
कृषि विशेषज्ञ जीएस कौशल के मुताबिक मप्र में कर्ज लेने वाले किसानों के ऊपर साल भर में एक लाख स्र्पए का बोझ बढ़ गया है। उन्होंने कहा कि 2015-16 में किसानों ने 60 हजार 977 करोड़ स्र्पए का लोन उठाया था। 2016-17 में बढ़कर यह राशि 33 प्रतिशत बढ़कर 81हजार करोड़ से ज्यादा हो गई।
16 लाख किसानों ने छोड़ दी खेती
कौशल के मुताबिक 2001 से 2011 तक 16 लाख किसानों ने खेती छोड़ दी। जबकि 47 लाख कृषि मजदूर बढ़ गए। यानी जो जमीन के मालिक थे वे मजदूर बन गए।
योजना का फायदा किसानों ने नहीं व्यापारियों ने उठाया
कृषि विशेषज्ञ जीएस कौशल के मुताबिक सरकार की भावांतर भुगतान जैसी योजना का फायदा किसानों की बजाय व्यापारियों ने उठाया। जब भावांतर योजना शुरू होती है तो फसल का दाम जमीन पर आ जाता है और सरकार से पैसे मिलने के बावजूद किसान फसल की लागत नहीं निकाल पाता। जबकि खरीदी बंद होते ही फसल के दाम आसमान छूते हैं। व्यापारी स्टॉक करके रखते हैं और बाद में वे ही फायदा कमाते हैं। किसान और उपभोक्ता दोनों ही पिसते हैं। प्याज, लहसुन में यही हो रहा है। सरकार दो साल में प्याज के लिए कोल्ड स्टोरेज नहीं बनवा सकी है।
सरकार ने पैसा दिया, लेकिन छोटी-छोटी समस्या दूर नहीं हुई
भारतीय किसान संघ के क्षेत्रीय संगठन मंत्री शिवकांत दीक्षित के मुताबिक राज्य सरकार ने किसानों को पैसा तो बांटा, लेकिन उसकी छोटी-छोटी समस्याएं दूर नहीं की। सरकारी प्रक्रिया में उलझने से किसान को बहुत दिक्कत होती है। मंडियों में फसल समय पर नहीं तुलना, लंबी-लंबी लाइन से किसान आंदोलित होता है।
किसानों पर इस तरह पैसा बांटना दूरदर्शिता नहीं
मप्र के पूर्व मुख्य सचिव केएस शर्मा किसानों पर एक साल में 20 हजार करोड़ की राहत राशि बांटने के फैसले को दूरदर्शी नहीं मानते हैं। शर्मा के मुताबिक किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य और उस पर कुछ प्रोत्साहन राशि देना तो सही है, लेकिन प्याज खरीदी जैसे फैसले सही नहीं है। किसान किसी भी तरह से नाराज न हों, इसके लिए सरकार कई अन्य तरीकों से भी पैसा बांट रही है। जो राज्य की वित्तीय स्थिति के हिसाब से ठीक नहीं है। यह फैसले बताते हैं कि सरकार कृषि विकास के लिए नहीं बल्कि सिर्फ किसानों की नाराजगी रोकने के लिए काम कर रही है।