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बाणासुर का किला, मायावती आश्रम और रीठासाहिब, घुमंतुओं के दिल में बसता है चंपावत

उत्तराखंड के कुमाऊं अंचल में समुद्र तल से तकरीबन 5500 फीट की ऊंचाई पर चम्पावत जिले में स्थित है लोहाघाट कस्बा। इस मौसम में कुदरत की यह खूबसूरत कृति आपको लुभा लेगी।

By Monika MinalEdited By: Published: Thu, 20 Jun 2019 02:46 PM (IST)Updated: Thu, 20 Jun 2019 04:31 PM (IST)
बाणासुर का किला, मायावती आश्रम और रीठासाहिब, घुमंतुओं के दिल में बसता है चंपावत
बाणासुर का किला, मायावती आश्रम और रीठासाहिब, घुमंतुओं के दिल में बसता है चंपावत

 नई दिल्‍ली [विनय कुमार शर्मा]। मानसून यानी बारिश के दिनों में पहाड़ों की ओर रुख करना अमूमन थोड़ा जोखिम भरा माना जाता है, पर आप इस मौसम में लोहाघाट का रुख कर सकते हैं। बारिश के मौसम में यह स्थान अन्य पहाड़ी स्थलों की तुलना में सुरक्षित माना जाता है। हालांकि विशेषज्ञों की मानें तो अभी इस स्थान के प्रचार-प्रसार की जरूरत है, ताकि यहां अधिक पर्यटक आएं। पहाड़ों के अनछुए इलाकों की सैर की बात ही कुछ और है। यहां हिमालय को करीब से देखने के साथ इतिहास के पन्नों को जीवंत रूप में महसूस कर सकते हैं। पहाड़ों की संस्कृति का अनूठा रंग देखना हो, तो लोहाघाट कर रहा है आपका इंतजार।

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चंपावत जिले में बसा है यह खूबसूरत कस्‍बा

उत्तराखंड के कुमाऊं अंचल में समुद्र तल से तकरीबन 5500 फीट की ऊंचाई पर चम्पावत जिले में स्थित है लोहाघाट कस्बा। इस मौसम में यदि पहाड़ घूमने का ख्याल आता है तो कुदरत की यह खूबसूरत कृति आपको लुभा लेगी। राफ्टिंग और अन्य साहसी खेलों के शौकीनों को भी खूब भाएगा लोहाघाट। यहां आसपास भी बिखरा हुआ है सांस्कृतिक वैभव का खजाना।

एबट माउंट पर पहली किरण के साथ देखें दमकती चोटियां

लोहाघाट से करीब सात हजार फीट की ऊंचाई और 13 किलोमीटर की दूरी पर है एबट माउंट। ब्रिटिश शासन के दौरान अंग्रेज अधिकारी जॉन हेराल्ड एबट ने इस पर्वत की खोज की थी, इसलिए उन्हीं के नाम पर इसका नाम एबट माउंट पड़ा। यहां से हिमालय की नंदा देवी, त्रिशूल और नंदाघुती जैसी चोटियों का विहंगम नजारा दिखाई देता है। अधिक ऊंचाई पर होने की वजह से एबट माउंट का तापमान काफी कम रहता है। वर्ष 1930 में एबट ने यहां चर्च भी बनवाया था।

ऋषेश्वर मंदिर

लोहावती नदी के तट पर स्थित भगवान शिव का यह मंदिर कभी कैलास मानसरोवर यात्रा का पड़ाव था। ऋषेश्वर महादेव मंदिर लोहाघाट के लोगों की आस्था का बड़ा केंद्र है। इस मंदिर के पीछे बड़ी दिलचस्प कहानी है। पूर्व में काली गांव से देव डांगर शिवालय आते थे। कहा जाता है कि एक अंग्रेज ने मीना बाजार में देव डांगरों के रास्ते में लोहे का गेट बनवाकर ताला लगा दिया। देवडांगरों ने जब अक्षत व फूल छिड़के तो ताला खुल गया। देवताओं की शक्ति देखकर अंग्रेज ने मंदिर में चांदी का छत्र चढ़ाया। ऋषेश्वर महादेव के दर्शन के बिना लौटने पर लोहाघाट की यात्रा अधूरी मानी जाती है।

मानेश्वर मंदिर

इस मंदिर का उल्लेख स्कंदपुराण में भी मिलता है। यह भी शिव का धाम है। इसका निर्माण चंद वंशीय राजा निर्भयचंद ने आठवीं शताब्दी में कराया था। यह मंदिर लोहाघाट से तकरीबन 6 किमी. दूर स्थित है। मान्यता है कि जब पांडव पुत्र अपनी माता के साथ अज्ञातवास के दौरान इस जगह पर भ्रमण कर रहे थे तो उसी दौरान आमलकी एकादशी के दिन राजा पांडू के श्राद्ध की तिथि थी और कुंती ने प्रण किया था कि वह श्राद्ध मानसरोवर के जल से ही करेंगी। कुंती ने यह बात युधिष्ठिर को बताई। उन्होंने अर्जुन से माता के प्रण को पूरा करने को कहा। अर्जुन ने गांडीव धनुष से बाण मारकर उसी स्थान पर मानसरोवर की जलधारा पैदा की। इसे आज भी यहां देखा जा सकता है।

बाणासुर का किला

लोहाघाट से करीब 7 किमी. की दूरी पर विशुंग क्षेत्र में है बाणासुर का किला। पर्वतीय शैली में निर्मित इस किले में पत्थरों का उपयोग किया गया है। इसकी बनावट प्राकृतिक मीनार की तरह है। बाणासुर के किले से लोहाघाट नगर का शानदार नजारा दिखता है। माना जाता है कि इस स्थान पर किले का निर्माण चंद राजाओं ने अपनी सीमा की निगरानी के लिए कराया था। इससे नेपाल व अन्य स्थानों से होने वाले आक्रमणों की पूर्व-सूचना मिल जाती थी। एबट माउंट की तरह यहां से भी आप हिमालय की चोटियों का दीदार कर सकते हैं।

हिंगला देवी के दर्शन

बांज के घने जंगल और पर्वत के शिखर पर स्थित हिंगला देवी मंदिर प्राचीन मंदिरों में से एक माना जाता है। लोहाघाट से 12 किलोमीटर दूर चंपावत आएंगे तो यहां तक आप आसानी से पहुंच सकते हैं। लोक मान्यता है कि इस स्थान से मां भगवती अखिल तारणी चोटी तक झूला (हिंगोल) झूलती थीं। इसी कारण इसे ‘हिंगला देवी’ कहा गया। मान्यता यह भी है कि माता के इस मंदिर के पास एक बड़ी शिला के पीछे खजाना छिपा है और इस खजाने की चाबी मां हिंगला देवी के पास है। यह मंदिर ऐसी जगह पर है, जहां से प्राकृतिक सौंदर्य का प्रत्यक्ष दीदार होता है।

रीठासाहिब

रीठासाहिब गुरुद्वारा कुमाऊं का सबसे प्रसिद्ध गुरुद्वारा है। यह इलाका मीठे रीठे के लिए जाना जाता है। यहां सिखों के पहले गुरु गुरुनानक देव अपने प्रिय शिष्य बाला तथा मरदाना के साथ आए थे। मान्यता है कि मरदाना को भूख लगी तो गुरुनानक ने उसे यहां निवास कर रहे गुरु गोरखनाथ के शिष्यों से भोजन मांगकर खाने को कहा। मरदाना ने उनसे भोजन का आग्रह किया तो साधुओं ने उनकी तौहीन की। गुरुनानक ने शांत भाव से मरदाना को सामने खड़े रीठे के पेड़ से फल खाने को कहा। रीठा स्वभाव से कड़वा होता है, पर जैसे ही मरदाना ने फल खाए तो वह मीठा लगने लगा। तब से यहां के गुरुद्वारे का नाम रीठासाहिब पड़ गया। रीठासाहिब तक पहुंचने के लिए लोहाघाट से करीब 65 किमी. की दूरी तय करनी होती है।

ऐतिहासिक स्मारक बालेश्वर धाम

चंपावत नगर में स्थित है ऐतिहासिक बालेश्वर धाम। यहां मंदिरों के समूह को देखकर आप अचरज में पड़ जाएंगे कि कैसे सातवीं सदी में बना यह मंदिर समूह आज तक इतनी खूबसूरती से खड़ा है। यह इस नगर का गौरव है। सातवीं सदी में चंद्रवंश के पहले राजा सोमचंद ने इस मंदिर समूह को बनवाया था। भारतीय पुरातत्व विभाग ने इसे संरक्षित स्मारक घोषित कर रखा है।

योग साधना का महत्वपूर्ण केंद्र

लोहाघाट से 9 किमी. दूर बांज व बुरांश के घने जंगलों के बीच स्थित है अद्वैत मायावती आश्रम। यह योग साधना का बड़ा केंद्र है। इस आश्रम की स्थापना स्वामी विवेकानंद के अंग्रेज शिष्य जेएच सेवियर और उनकी धर्मपत्नी सीई सेवियर ने 3 मार्च, 1899 को की थी। स्वामी विवेकानंद 3 जनवरी, 1901 को खुद आश्रम आए और 15 दिन तक यहां रुके। इसके पास ही माई माता मंदिर होने के कारण आश्रम का नाम अद्वैत मायावती आश्रम रखा गया। मायावती आश्रम स्वामी विवेकानंद द्वारा बेलूर में स्थापित श्री रामकृष्ण मठ का ही एक शाखा केंद्र है। यह योग साधना के लिए भी मशहूर है। यहां आप न केवल कुदरत की निकटता का बोध कर सकते हैं, बल्कि शहरों की कोलाहल से दूर शांति और सुकून भी मिलेगा।

प्राकृतिक झील श्यामलाताल

नैनीताल और भीमताल की तरह यहां भी एक प्राकृतिक झील है श्यामलाताल। इसे यहां के पहाड़ की सबसे खूबसूरत झील माना जाता है। समुद्र तल से करीब 1500 मीटर की ऊंचाई पर स्थित श्यामलाताल के चारों तरफ बांज, चीड़, देवदार, बुरांश सहित कई प्रकार की वनस्पतियों ने अपनी आभा बिखेरी है। यहां भी स्वामी विवेकानंद की ध्यान स्थली आश्रम है, जिसकी स्थापना वर्ष 1913 में खुद स्वामी विवेकानंद ने की थी। इस आश्रम में स्वास्थ्य केंद्र, पुस्तकालय भी है। पूरे वर्ष यह झील अपने एक समान रूप में रहती है। सूखीढांग से ठीक पहले आप इस झील का दीदार कर सकते हैं।

कटकी का लाजवाब स्वाद

लोहाघाट के बाराकोट मोटर मार्ग पर गलचौड़ा की बंद-कटकी नहीं खाई तो समझिए आपने कुछ नहीं खाया। कटकी का स्वाद ही ऐसा है कि लोग यहां खिंचे चले आते हैं। कटकी गाय व भैंस के शुद्ध दूध को खूब पकाकर बनाई जाती है। गलचौड़ा क्षेत्र में बनने वाली बंद कटकी इस जिले में ही नही, बल्कि पूरे कुमाऊं में प्रसिद्ध है। एक किलो कटकी की कीमत अमूमन 250 रुपये होती है, जबकि बंद-कटकी मात्र दस रुपये में एक मिलती है।

सूखीढांग का अचार

लोहाघाट से टनकपुर की तरफ निकलने पर आता है सूखीढांग क्षेत्र। यह इलाका लाजवाब अचार के लिए प्रसिद्ध है। यहां नींबू, आम, मिर्च, लहसुन, अदरक, बांस समेत कई प्रकार के अचार बनाए जाते हैं। यही नहीं अचार के साथ जैम, जेली को भी लोग खूब पसंद करते हैं। सबसे खास अचार है बांस का। सूखीढांग होकर जाने वाला हर व्यक्ति अचार के रूप में चम्पावत जिले की शानदार सौगात अपने साथ ले जाना नहीं भूलता।

होम स्टे में रहने का अलग आनंद

वैसे तो लोहाघाट-चम्पावत क्षेत्र में दो दर्जन से अधिक होटल हैं, पर इस क्षेत्र में होम स्टे में रहने का अपना ही आनंद है। यहां चम्पावत में एक, लोहाघाट में दो, पाटी व बाराकोट में एक एक होम स्टे हैं। पर्यटन विभाग के चार पर्यटक आवास गृह भी हैं। इसमें चम्पावत व लोहाघाट में एक-एक, जबकि दो टनकपुर व भैरव मंदिर में हैं।

वाराही धाम: पाषाण युद्ध की धरती

वाराही धाम देवभूमि उत्तराखंड का अद्भुत अलौकिक धाम है। यह पाषाण युद्ध के लिए प्रसिद्ध है। यहां हर साल रक्षाबंधन के दिन पाषाण युद्ध खेला जाता है। वाराह के दर्शन के लिए आपको लोहाघाट से देवीधुरा रोड पर 45 किलोमीटर का सफर तय करना होगा। मान्यता है कि जब हिरण्याक्ष्य पृथ्वी को पाताल लोक ले जा रहा था तो पृथ्वी की पुकार सुन भगवान विष्णु ने वाराह रूप धारण किया और पृथ्वी को अपने बाएं अंग में लेकर उसे डूबने से बचाया। देवीधुरा के खोलीखांड़ दुबाचौड़ में वालिक, लमगडिय़ा, चम्याल और गहड़वाल खामों यानी दलों के लोग दो भागों में बंटकर पाषाण युद्ध खेलते हैं। 

काफी हद तक सुरक्षित हैं यहां की धरोहर

यहां आदिकाल से जो चीजें जैसी थीं, आज भी काफी हद तक वैसी ही हैं। चाहे बाणासुर किला हो या फिर मायावती, देवीधुरा वाराही मंदिर, रीठा साहिब गुस्द्वारा, एबट माउंट, ऋषेश्वर महादेव मंदिर, कांतेश्वर आदि। बस प्रचार-प्रसार की कमी के चलते यहां के पर्यटन में कमी आई है। आए दिन नैनीताल क्षेत्र में लाखों की संख्या में पर्यटक आते हैं वे अल्मोड़ा, कौसानी की तरफ रुख कर जाते हैं जबकि वे चम्पावत जिले में भी आ सकते हैं। अब ऑलवेदर यानी हर मौसम के लिए सड़क के निर्माण के साथ यात्रियों की आवाजाही बढ़ सकती है। पर्यटन को पंख लग सकते हैं।

- दया किशन चतुर्वेदी, पर्यावरणविद, छमनियां, लोहाघाट

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