'लॉकअप' एक ऐसे शख्स की जेल डायरी जिसने बिना जुर्म किए काटी लंबी सजा
यह पुस्तक एक आम इंसान की आपबीती के जरिए देश की कानून व्यवस्था और न्यायपालिका के आंखों देखे सच को उद्घाटित करती है।
ब्रज बिहारी। सत्ता विरोधी राजनेताओं, लेखकों, दार्शनिकों और विचारकों की जेल-यात्र पर लिखी गई कृतियां विश्व साहित्य में विपुल मात्र में उपलब्ध हैं। इस दृष्टि से रूसी साहित्यकार अलेक्सांद्र सोल्शेनीत्सिन और वियतनाम के क्रांतिकारी नेता हो ची मिन्ह के जेल अनुभव पर लिखी गई किताबें उल्लेखनीय हैं। अपने देश की बात करें तो स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान जवाहरलाल नेहरू और महात्मा गांधी से लेकर भगत सिंह तक को जेल की यातनाएं सहनी पड़ीं।
अपनी जेल यात्र के दौरान नेहरू ने ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ और गांधी ने ‘माइ एक्सपेरीमेंट्स विद ट्रुथ’ जैसी कृतियों की रचना की। हालांकि ये सभी लोग राजनीतिक कैदी थे और इस नाते उन्हें जेल में भी कई सहूलियतें हासिल थीं, लेकिन जब एक आम आदमी को बिना किसी अपराध के जेल में डाल दिया जाता है, तो उस पर जो बीतती है, उसका विवरण पुस्तक के रूप में बहुत कम देखने को मिलता है। इस मायने में एम चंद्रकुमार की कृति ‘द प्रिजन डायरी ऑफ एन ऑर्डिनरी मैन’ अलग नजर आती है। एम चंद्रकुमार इस पुस्तक के जरिए उन बेजुबानों की आवाज बने हैं, जिनकी कोई नहीं सुनता है।
चंद्रकुमार ने ऐसी बिताई अपनी जिंदगी
कोयंबटूर में जन्मे चंद्रकुमार ने दसवीं पास करने के बाद पढ़ाई छोड़ दी थी। ब्रूस ली एवं एमजी रामचंद्रन जैसे फिल्मी सितारों के आकर्षण और साम्यवादी आंदोलनों से प्रभावित होकर वे अपने तीन दोस्तों रवि, मोइदीन और नेल्सन के साथ आवारगी भरे दिन बिताने लगे। कभी रेस्तरां में तो कभी किसी दुकान पर, जहां जो काम मिला कर लिया। जो खाना मिला खा लिया और जहां जगह मिली वहीं सो गए। समय मिला तो सिनेमा देखने पहुंच गए।
चंद्रकुमार अचानक दोस्तों संग हुए गिरफ्तार
इन चार दोस्तों की इस बेलौस और बेखौफ जिंदगी में एक ऐसा तूफान आया, जिससे उनका इस व्यवस्था पर से ही भरोसा उठ गया। एक दिन एक दुकान का शटर तोड़कर किसी ने कुछ टेपरिकॉर्डर और घड़ियां चुरा लीं। पुलिस जांच करने आई और इन चारों को इस चोरी के आरोप में उठाकर लॉकअप में बंद कर दिया। इसके बाद इनके साथ पुलिसिया बर्बरता का जो नंगा खेल शुरू हुआ, वह रोंगटे खड़े कर देने वाला था। पुलिस उनसे एक ही बात कहती थी कि अपना जुर्म कुबूल कर लो और उनकी जिद थी कि जो अपराध उन्होंने किया ही नहीं, उसे क्यों मान लें। उनके हर इन्कार के बाद पुलिसिया अत्याचार की डिग्री बढ़ जाती।
जेल में रहकर लिखी किताब 'लॉकअप'
इन अमानवीय यातनाओं को आधार बनाकर चंद्रकुमार ने ‘लॉकअप’ नामक पुस्तक की रचना की, जिस पर तमिल में फिल्म भी बन चुकी है। लॉकअप में रहने के दौरान दारुण दुख ङोलते हुए भी इन चारों के दिलों-दिमाग के एक कोने में यह उम्मीद जिंदा थी कि उन्हें न्यायपालिका से जरूर इन्साफ मिलेगा। हवालात के बाद उन्हें जेल भेज दिया गया। जेल में कोर्ट की तारीख का इंतजार करते हुए पांच महीने बीत गए। जेल के अंदर चंद्रकुमार और उनके दोस्तों का सामना एक ऐसी दुनिया से हुआ, जिसके बारे में वही जान सकता है, जो खुद भुक्तभोगी हो। यहां उन्हें महसूस हुआ कि बाहर की अव्यवस्थित दुनिया से ज्यादा व्यवस्था और आजादी तो जेल के अंदर है।
जुर्म किए बिना किया कुबूल
कैदियों के बीच एक दूसरे का दुख-सुख बांटने और किसी के खिलाफ हो रहे अन्याय का दृढ़ प्रतिकार करने की प्रवृत्ति को देखकर उनके अंदर मानवतावाद के नए नजरिये ने जन्म लिया। उन्हें महसूस हुआ कि बुरे लोग कहकर हम जिनका तिरस्कार करते हैं, वे जेल के बाहर के उन लोगों से कई गुना बेहतर हैं, जो खुद को सभ्य-सुसंस्कृत कहते हैं। चंद्रकुमार और उनके साथी कैदियों को तब सबसे बड़ा झटका लगा, जब उन्हें पांच महीने की जेल यातना के बाद कोर्ट में पेश किया गया। उम्मीद थी कि जज साहब जरूर उन्हें रिहा कर देंगे, पर अदालत में उन्हें पता चला कि पुलिस के आगे न्यायपालिका भी बेबस है। क्योंकि जज ने भी उनसे वही कहा जो पिछले पांच महीने से पुलिस कह रही थी कि अपना जुर्म कुबूल कर लो तो जल्दी छूट जाओगे। उन चारों ने जज के सामने अपना अपराध स्वीकार कर लिया। इस अपराध की जितनी सजा हो सकती थी, वे चारों उससे ज्यादा समय जेल में बिता चुके थे। इस आधार पर जज ने उन्हें रिहा कर दिया।
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