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India Independence Day 2020: आइए याद करें ऐसी कुछ वीरांगनाओं को जिन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया...

India Independence Day 2020 सत्यवती देवी महिलाओं को पर्दे से निकालकर स्वतंत्रता की लड़ाई में साथ देने के लिए प्रेरित किया करतीं थीं।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Published: Thu, 13 Aug 2020 08:58 AM (IST)Updated: Thu, 13 Aug 2020 09:32 AM (IST)
India Independence Day 2020: आइए याद करें ऐसी कुछ वीरांगनाओं को जिन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया...
India Independence Day 2020: आइए याद करें ऐसी कुछ वीरांगनाओं को जिन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया...

राजगोपाल सिंह वर्मा। 74 Independence Day 2020 देश को ब्रिटिश उपनिवेशवाद से जो आजादी मिली, वह न जाने कितने बलिदानों, संघर्षों, और सामाजिक चेतना के विद्रोही स्वरों के मळ्खर होने की परिणति थी। पळ्रुषों ने जहां इन संघर्षों को गति दी, वहीं महिलाएं भी पीछे नहीं रहीं। आइए याद करें ऐसी कुछ वीरांगनाओं को जिन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया...

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ब्रिटिश हुकूमत से प्रतिशोध: ऊदादेवी लखनऊ के उत्तर-पूर्व में गोमती पार के उजरियांव गांव की वासी थीं। पति मक्का पासी अवध के नवाब वाजिद अली की सेना में तोपची थे। सन् 1857 के जून माह में विद्रोहियों ने युद्ध में विजय प्राप्त की, पर ऊदादेवी के पति की चिनहट के इस युद्ध में शहादत हुई थी। पति की रक्तरंजित लाश देखकर उन्होंने ब्रिटिश हुकूमत से प्रतिशोध लेने और विदेशी शासकों की कमर तोड़ने का प्रण किया। वह अवसर ऊदादेवी को नवंबर 1857 में सिकंदर बाग, लखनऊ की लड़ाई में मिला। ऊदादेवी ने इस घटना में दो बड़े अफसरों सहित ब्रिटिश सैन्य बल के कई सिपाहियों को मौत के घाट उतार दिया था। मळ्ठभेड़ में ऊदादेवी वीरगति को प्राप्त हुईं। तब लंदन के कई अखबारों ने उनकी वीरता के किस्से प्रकाशित किए थे।

विरोधस्वरूप चलाई गोली: 14 वर्ष की सळ्नीति चौधरी ने अपनी साथी शांति घोष के साथ दिसंबर 1931 में कोमिला के जिला मजिस्ट्रेट और कलेक्टर चाल्र्स जॉफ्रे बकलैंड स्टीवेंस पर उसी के कार्यालय परिसर में गोलियां चला दी थीं। कलेक्टर की मौके पर ही मौत हो गई। यह घटना शहीद भगत सिंह को फांसी की सजा सुनाए जाने के विरोधस्वरूप अंजाम दी गई थी। किसी महिला क्रांतिकारी द्वारा एक ब्रिटिश अधिकारी की हत्या भारत के औपनिवेशिक इतिहास में पहली घटना थी। सुनीति चौधरी को आजीवन कारावास की सजा मिली। कुछ वर्षों बाद जन दबावों में आकर देश के राजनीतिक कैदियों की सजा में कमी करने का निर्णय लिया गया। इसका लाभ सुनीति को भी मिला। बाद में उन्होंने चिकित्सक बनकर समाजसेवा करने का प्रण लिया और वाकई ऐसा कर दिखाया। सळ्नीति का जन्म तत्कालीन बंगाल प्रोविंस में कोमिला जनपद (अब बांग्लादेश) में हळ्आ था।

घटनाक्रम की जिम्मेदारी ली: बीना दास ने बंगाल के तत्कालीन गवर्नर जैक्सन पर दीक्षांत समारोह में गोलियां चलाई थी, लेकिन वे बच गए थे। मेधावी बीना उन छात्राओं में शामिल थीं जिन्हें गवर्नर के हाथों मेडल और डिग्री प्रदान की जानी थी। गोली चलाने के आरोप में बीना को गिरफ्तार कर लिया गया। उन्हें नौ वर्ष के सश्रम कारावास की सजा सुनाई गई। बीना की जिंदगी का दुखद पहलू यह रहा कि उनकी मृत्यु ऋषिकेश शहर में लावारिस रूप में हुई। 26 दिसंबर 1986 को उनकी क्षत-विक्षत देह एक सूनी सड़क के किनारे मिली। उनका अज्ञात महिला के रूप में अंतिम संस्कार कराया गया। बीना का जन्म बंगाल प्रोविंस में कृष्णानगर में हळ्आ था।

यूरोपियन क्लब पर हमला: तत्कालीन बंगाल प्रोविंस के चटगांव (अब बांग्लादेश) में जन्मीं थीं कल्पना दत्त। सितंबर 1931 में कल्पना दत्त को प्रीतिलता वादेदार के साथ मिलकर चटगांव के ‘यूरोपियन क्लब’ पर हमला करना था। वह हमले को मूर्त रूप देतीं इससे पहले ही गुप्तचर इकाई को इसकी भनक लग गई। परिणामस्वरूप, कल्पना दत्त गिरफ्तार कर ली गईं। सरकार अभियोग सिद्ध करने में असफल रही इसलिए उन्हें रिहा करना पड़ा, पर उनके घर पर पहरा बिठा दिया गया। वह पहरेदारों की आंखों में धूल झोंककर फरार हो गर्इं। अगले दो साल तक कल्पना भूमिगत रहकर क्रांतिकारी आंदोलनों में सक्रिय रहीं। मई 1933 में एक दिन मुठभेड़ के बाद कल्पना दत्त को गिरफ्तार कर लिया गया। उन्हें उम्र कैद की सजा सुनाई गई। तब कल्पना की उम्र मात्र 21 वर्ष थी। कल्पना ने चार साल की सजा काट ली थी, जब सन् 1937 में जन आंदोलनों के दबाव में आकर देश के विभिन्न प्रांतों में जेलों में बंद तमाम क्रांतिकारियों को रिहा कर दिया गया, कल्पना दत्त भी उनमें से एक थीं।

सिख युवक बनकर लगाया बम: सन् 1932 में चटगांव के ‘यूरोपियन क्लब’ पर हमला करने वाली एक अन्य कम उम्र वीरांगना का नाम था प्रीतिलता वादेदार। प्रीतिलता तत्कालीन बंगाल प्रोविंस के चटगांव (अब बांग्लादेश) में जन्मीं थीं। सिख युवक के रूप में सितंबर 1932 की एक रात प्रीतिलता ने यूरोपीय क्लब परिसर में बम लगा दिए। जश्न में डूबे क्लब के वातावरण में अचानक धमाके के बाद चीखें सुनाई देने लगीं। कई अंग्रेज घायल हो गए और एक यूरोपीय महिला मारी गई। अंग्रेजों की जवाबी गोलीबारी में प्रीतिलता को एक गोली लगी। वह घायल अवस्था में क्लब से भागीं। प्रीतिलता को लगा कि वह पुलिस के हाथों पकड़ी जाएंगी, इसलिए उसने साथ लाया विष खा लिया। 21 वर्षीया जुनूनी युवती उसी क्षण निर्जीव हो गई।

अंतत: फहराया तिरंगा: ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ का तब तक देशभर में व्यापक प्रभाव हो चुका था। सितंबर 1942 में असम के तेजपुर क्षेत्र के गोहपुर उपनगर पुलिस थाने पर तिरंगा फहराने का निर्णय लिया गया था। लगभग चार हजार आंदोलनकारी एकत्रित हळ्ए। असम के दरांग जिले में जन्मीं कनकलता बरुआ ने 17 वर्ष की उम्र में इस आंदोलन का नेतृत्व किया। रोके जाने पर कनकलता ने कहा कि आप लोग बंदूक से मेरे शरीर की हत्या कर सकते हैं, आत्मा की नहीं। जैसे ही तिरंगा लेकर वह कुछ कदम आगे आईं, जुलूस पर गोलियों की बौछार हो गई। पहली गोली कनकलता को लगी। वह घायल होकर गिर पड़ीं। निहत्थे आंदोलनकारियों पर पुलिस की गोलियों का चलना जारी रहा, पर आंदोलकारियों का जुनून बना रहा। झंडा अब दूसरे, फिर तीसरे आंदोलनकारी ने संभाला और अंतत: तिरंगा फहरा दिया गया। कनकलता ने प्राण त्याग दिए। ये चंद जुनूनी महिलाओं के उदाहरण हैं जिन्होंने देश को आजाद कराने को जीवन का लक्ष्य बनाया। इस स्वतंत्रता दिवस पर उन्हें हृदय से नमन करें।

नमक आंदोलन में सक्रिय भूमिका: सत्यवती देवी महिलाओं को पर्दे से निकालकर स्वतंत्रता की लड़ाई में साथ देने के लिए प्रेरित किया करतीं थीं। नमक आंदोलन में सक्रिय भूमिका के लिए उनको दो वर्ष की सजा सुनाई गई। दिल्ली की महिलाओं में सबसे पहले आंदोलन में जेल जाने का यश बहन सत्यवती के नाम अंकित है। जब उन्होंने गिरफ्तारी दी तो उन्हें अपनी बच्ची को लेकर जेल जाना पड़ा था। पंद्रह वर्षों में सत्यवती ग्यारह बार जेल गईं। वह देर रात तक गांव-गांव जनचेतना जागृत करने के लिए भटकती रहीं। लोग उत्पीड़न के भय से सत्यवती को आश्रय नहीं देते थे। समय के साथ सत्यवती बहुत बीमार हो गईं, उनके दोनों फेफड़े तपेदिक ग्रस्त हो गए। निरंतर बीमारी और अत्यधिक परिश्रम से उनका शरीर जर्जर हो गया था। बेटी के असामयिक देहावसान ने उनकी बची खुची जिंदगी को दुखद बना दिया। जब वह फिर से जेल में थीं, उन्हें प्रस्ताव दिया गया कि यदि वे राजनीतिक कार्यों में भाग न लेने का वचन दें तो उन्हें रिहा किया जा सकता है। बहन सत्यवती ने अपनी घातक बीमारी की परवाह न करते हुए इस शर्त को स्पष्ट रूप से ठुकरा दिया। सन् 1945 में मात्र 41 वर्ष की आयु में उनका निधन हो गया।


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