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लकड़ी के पारंपरिक भारतीय खिलौनों को बचाने की जुगत में लगे हैं 73 वर्षीय भोला सिंह

73 वर्षीय भोला सिंह इस उम्र में भी भारत के लकड़ी के पारंपरिक खिलौने बचाने की जुगत में लगे हुए हैं। वह चाहते हैं इसका महत्‍व अन्‍य भी जानें।

By Kamal VermaEdited By: Published: Sun, 19 Jan 2020 04:32 PM (IST)Updated: Mon, 20 Jan 2020 08:06 AM (IST)
लकड़ी के पारंपरिक भारतीय खिलौनों को बचाने की जुगत में लगे हैं 73 वर्षीय भोला सिंह
लकड़ी के पारंपरिक भारतीय खिलौनों को बचाने की जुगत में लगे हैं 73 वर्षीय भोला सिंह

बठिंडा [सुभाष चंद्र]। बठिंडा, पंजाब निवासी 73 वर्षीय भोला सिंह लकड़ी के खिलौने बनाने के कार्य में आज भी पूरी तल्लीनता से लगे रहते हैं। यह जुगत वह रोजी-रोटी के लिए नहीं, बल्कि पारंपरिक खिलौनों को बचाने के लिए है। कहते हैं, आज भी जब मैं वह गाना सुनता हूं- लकड़ी की काठी, काठी पे घोड़ा, घोड़े की दुम पे जो मारा हथौड़ा..., तो सोच में पड़ जाता हूं कि समय कितना कुछ बदल देता है, पीछे रह जाती हैं तो बस यादें।

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अमरपुरा बस्ती में भोला की छोटी सी दुकान है, जहां वे लकड़ी के खिलौने बनाते दिख जाएंगे- पूरी लगन और तन्मयता के साथ। कहते हैं, दो दशक पहले तक भी लकड़ी के खिलौने चलन में थे, सस्ते, टिकाऊ और हानिरहित। लेकिन आज प्लास्टिक के आधुनिक खिलौनों के आगे लकड़ी के ये खिलौने फीके पड़ गए हैं। मैं चाहता हूं कि आज के बच्चे देश की संस्कृति से जुड़े इन पारंपरिक खिलौनों को देख सकें, इसलिए इन्हें बनाता हूं। संतोष इस बात का है कि इन खिलौने के चंद कद्रदान आज भी मेरी दुकान पर पहुंच जाते हैं। भोला सिंह अपनी इस छोटी से दुकान में बैठकर लकड़ी के अनेक खिलौने गढ़ते हैं। ट्रैक्टर-ट्रालियां, बैलगाड़ियां, रथ, गाड़ी, गाय, भेड़, बकरी, शेर, हिरण, गड़ारी..., उनकी दुकान में वे सारे खिलौने मिल जाएंगे, जो पुराने दौर की याद दिलाते हैं। आज बेशक छोटे बच्चों को चलना सिखाने के लिए वाकर ने जगह ले ली है, लेकिन भोला सिंह आज भी पुराने जमाने में चलन में रही गड़ारी बनाते हैं।

भोला सिंह का कहना है कि वाकर में वो बात कहां जो लकड़ी की इस गड़ारी में है। वास्तव में छोटे बच्चे गड़ारी से ही सही ढंग से चलना सीखते हैं। यह बच्चों को खड़े होना भी सिखाता है। इससे उनका संतुलन बेहतर बनता है। ग्राहकों के बारे में कहते हैं, शहरी तो नहीं, लेकिन ग्रामीण महिलाएं आज भी अपने बच्चों के लिए इसे खरीदकर ले जाती हैं। रोज कोई न कोई ये खिलौने खरीदने के लिए आ ही जाता है। ये खिलौने बेचकर मैं रोजाना तीन-चार सौ रुपये की कमाई कर लेता हूं। इस शौक के बारे में उन्होंने बताया कि बरसों पहले जब मैं अपने गांव मैहणा में रहा करता था तो खिलौनों के साथ-साथ खेती से संबंधित औजार और घर की रसोई में काम आने ली वस्तुएं खुद बना लिया करता था। फिर परिवार के बच्चों के लिए बनाने लगा। इस काम में मुझे सुकून मिलता।

याद आ जाता है बचपन...

भोला सिंह कहते हैं मैं यह काम रोजीरोटी के लिए नहीं, शौकिया तौर पर कर रहा हूं। मेरे तीन बेटे हैं, जो अपना-अपना काम करके अच्छी कमाई कर रहे हैं। बच्चों के खिलौने बनाने में मुझे बेहद आनंद आता है। बचपन की यादें भी ताजा हो जाती हैं। चाहता हूं कि नई पीढ़ी भी इन्हें जाने, समझे और अपनाए।

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