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पूरी दुनिया की जुबान पर है फांग शब्‍द, हम सभी की जिंदगी से है इसका ताल्‍लुक, जानें- आखिर ये है क्‍या

अमेरिका की दिग्गज प्रौद्योगिकी कंपनियों का दुनिया के अनेक देशों में दबदबा कायम है। भारत में भी इन कंपनियों का व्यापक वर्चस्व कायम है। भारतीय अर्थव्यवस्था में भी इनका इतना दखल है कि बिना इनका देसी विकल्प तैयार किए आत्मनिर्भरता के सही अर्थो को हासिल नहीं किया जा सकता।

By Kamal VermaEdited By: Published: Fri, 12 Feb 2021 01:55 PM (IST)Updated: Fri, 12 Feb 2021 01:55 PM (IST)
पूरी दुनिया की जुबान पर है फांग शब्‍द, हम सभी की जिंदगी से है इसका ताल्‍लुक, जानें- आखिर ये है क्‍या
फांग शब्‍द एक गढ़ा हुआ शब्‍द है।

शंभु सुमन। आज की तारीख में फांग (एफएएएनजी) एक गढ़ा हुआ नया शब्द पूरी दुनिया पर राज कर रहा है। अंग्रेजी के इस शब्द में एफ फेसबुक, ए एप्पल और दूसरा ए अमेजन तथा एन नेटफ्लिक्स और जी गूगल (अल्फाबेट का प्रोडक्ट) को दर्शाता है। इसे सीएनबीसी की मैड मनी के होस्ट जिम क्रैमरे ने साल 2013 में गढ़ते हुए वैश्विक शेयर बाजार के संदर्भ में एक भविष्यवाणी की थी। उन्होंने कहा था कि इन अमेरिकी टेक कंपनियों का दुनिया भर में प्रभाव तेजी से बढ़ेगा। अगस्त 2020 आते-आते ये स्टॉक वल्र्ड की बड़ी कंपनियां बन गईं। आज बाजार में इनकी पूंजी 56 खरब डॉलर से भी अधिक है और इनमें तेज बढ़ोतरी जारी है। भारत में भी इनकी पकड़ मजबूत हो गई है।

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हमारे हर किस्म के संसाधनों, चाहे वह बौद्धिक कौशलता की हो या फिर दूसरे किस्मों में प्राकृतिक, आíथक, साहित्यिक, ऐतिहासिक एवं विशिष्ट विविधताओं वाले बड़े जनसमूह से मिले परोक्ष लाभ की हो, उनका बखूबी इस्तेमाल कर हमें ही नए नए उत्पादों के रूप में परोसा और बेचा जा रहा है। उनका इस्तेमाल व्यापक तौर पर होने से भारतीय अर्थव्यवस्था भी इससे प्रभावित हुई है। राजस्व का एक बड़ा हिस्सा उनकी जेब में जा रहा है। कमीशन के जरिये उनकी कमाई 35 से लेकर 70 फीसद तक हो चुकी है। मुनाफे का एक बड़ा हिस्सा इन कंपनियों को हमारे समृद्ध और विविधता लिए हुए बौद्धिकता से भरे असाधारण संसाधानों के जरिये मिल रहा है।

सवाल है कि कोई भारतीय कंपनी अभी तक क्यों नहीं ऐसा मजबूत प्लेटफॉर्म बना पाई है? क्या मजबूरी रही है कि सरकार भी इस क्षेत्र में कोई पहल करती नजर नहीं आ रही है? जबकि डिजिटल इंडिया अभियान को पांच साल से अधिक हो चुके हैं। ब्रॉडबैंड की तकनीक भी हमारे पास है। सॉफ्टवेयर डेवलपर की फौज है। संचार के संसाधन हैं। इंटरनेट को गति देने और उसे धारदार बनाने के वास्ते 5जी दरवाजे पर आ चुका है और उसके इस्तेमाल में आने से पहले ही संबंधित गैजेट्स बाजार में आने लगे हैं। तमाम आइटी कंपनियों से लेकर तकनीकी शिक्षण संस्थानों में स्किल की कमी नहीं है। तमाम विषयों पर हमारे पास कंटेंट का समुद्र है।

विकसित देशों के सैटेलाइट लांच करने की क्षमता रखने से लेकर मून मिशन और मंगल मिशन की पहल के बावजूद सोशल नेटवìकग साइट और सशक्त सर्च इंजन या कोई अपना ब्राउजर तक क्यों नहीं विकसित कर पा रहे हैं हम। उनके जैसी बहुराष्ट्रीय कंपनी बनने लायक किसी भी इंडियन स्टार्ट-अप में क्षमता क्यों नजर नहीं आ रही है?

दूसरी तरफ सामान्य से लेकर खास नागरिक तक डिजिटलाइजेशन की जद में आ चुका है। कई मोर्चे पर बने ऑनलाइन और लाइव कार्यक्षेत्र के माहौल में मशीनी जिंदगी जीने वाले इंसान की इलेक्ट्रॉनिक और ऑटोमेटिक मशीनों के साथ बेहतर तालमेल बिठाने की जद्दोजहद भी है। ऐसे में किसी भी इंसान के लिए फांग के बगैर कोई काम निपटाना आसान नहीं रह गया है। उनमें आने वाली कुछ समय की रुकावटों से ही सांसें थमने जैसी स्थितियां पैदा हो जाती हैं। उनकी उपयोगिता के कारण हमारी निर्भरता उन पर बढ़ती जा रही है।

सभी फॉर्मेट यानी टेक्स्ट, वीडियो और ऑडियो से लेकर बड़े-बड़े डॉक्युमेंट्स के आदान-प्रदान करने वाले प्लेटफॉर्म जीमेल और वाट्सएप रोजमर्रा की जिंदगी में शामिल हो चुके हैं। तकनीक के इस स्वरूप से हमें पेपरलेस पारदर्शिता की कार्यशैली विकसित करने में अवश्य मदद मिली है। हम ऑटोमेशन की तरफ बढ़ चले हैं। इसी तरह ई-कॉमर्स की दुनिया में वर्चस्व कायम कर कारोबार को ऑनलाइन की रफ्तार दे चुके अमेजन पर कंज्यूमर, एंटरटेनमेंट, वॉलेट, बुक्स, गेम्स, क्लाउड कंप्यूटिंग, सॉफ्टवेयर, इंटरनेट प्रोवाइडर आदि की अनगिनत सुविधाएं उपलब्ध हैं। गूगल हर जरूरत का समाधान लिए रास्ता दिखाने से लेकर राह बनाने तक की सहूलियत दे रहा है।

अमेरिका के ऑनलाइन वीडियो शेयरिंग प्लेटफॉर्म यूट्यूब की न केवल रोजगार के कई क्षेत्र में दखल बढ़ी है, बल्कि हमारी उस पर निर्भरता बन गई है। एंटरटेनमेंट की दुनिया ओटीटी प्लेटफार्म पर जा टिकी है। अब बात करें कोरोना काल के दौरान शिक्षा और स्वास्थ्य सेक्टर समेत परिवहन से लेकर ई-गवर्नेस और ई-कॉमर्स तक की, तो क्या इनके बगैर उनमें गतिशीलता की कल्पना की जा सकती थी? पहले लॉकडाउन और फिर अनलॉक के दौरान भी आपदा में अवसर की पहचान एवं उस तक पहुंच बनाने में उसकी भूमिका को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। दरअसल हमारी आत्मनिर्भरता तब तक कामयाब नहीं हो पाती जब तक हम उनके प्लेटफॉर्म पर नहीं होते। अर्थात हमारी बड़ी आत्मनिर्भरता की सफलता दूसरे पर ही निर्भर थी। नतीजा हमें उनकी हर दादागीरी भी सहन करनी पड़ रही है।

ताजा उदाहरण फेसबुक के उत्पाद वाट्सएप द्वारा यूजर्स पर डाटा शेयरिंग नीति थोपने को लेकर है। लिहाजा यूजर्स अपनी डाटा की सुरक्षा को लेकर चिंतित हैं। वे चाहकर भी इसका इस्तेमाल बंद नहीं कर सकते, कारण उसकी टक्कर का मजबूत विकल्प मौजूद नहीं है। गूगल भी कुछ कम नहीं है, जिसने अपने प्लेस्टोर के नियमों में बदलाव करते हुए एप डेवलपर्स के लिए अपने बिलिंग सिस्टम को अनिवार्य करते हुए 30 प्रतिशत कमीशन की शर्त रख दी है। साथ ही उसके द्वारा तय किया गया शुल्क भी अधिक बताया जा रहा है, जिसे लेकर भारतीय इंटरनेट उद्योग के करीब 150 स्टार्ट-अप्स के संस्थापकों ने नाराजगी जताते हुए आरोप लगाया है कि गूगल अपने प्रभुत्व का दुरुपयोग कर रहा है।

गूगल प्लेस्टोर को बाइपास करना बेमानी लगता है, क्योंकि उसने डिजिटल इंडिया में निवेश कर भारत सरकार पर वर्चस्व बना रखा है। वैकल्पिक एप स्टोर बनाने को लेकर फिलहाल कोई ठोस पहल नहीं की गई है, क्योंकि यह आसान भी नहीं है। यदि ऐसा करने की सरकारी स्तर पर भी कोशिश की गई तो भारतीय आइटी कंपनियों समेत उपभोक्ता तक के लिए परेशानी बढ़ सकती है। दरअसल भारत में बिकने वाले अधिकतर स्मार्टफोन गूगल के एंड्रॉयड प्लेटफॉर्म पर चलते हैं। लोकल स्टार्ट-अप्स के लिए गूगल से इतर सोचना आसान नहीं होगा, जिसकी पहुंच लगातार बढ़ रही है। जुलाई 2020 में उसने भारत में आगामी सात वर्षो में दस अरब डॉलर निवेश का वादा किया है। इसी के बूते डिजिटल इंडिया में बड़े सहयोग की महत्वाकांक्षा बनी है।

जितनी आसानी से हमने चीन के एप और ब्राउजर पर पाबंदी लगाई, उतनी सरलता से अमेरिकी कंपनियों का विकल्प बनाना सहज नहीं। जबकि आत्मनिर्भरता की राह में आई अड़चनों को हटाने के लिए वैसी सियासी ताकतों की भी जरूरत है, जिनमें जरूरत के मुताबिक बदलाव को लेकर नीतिगत बहस-विरोध हो, ताकि हम वैश्विक स्तर पर अपनी पहचान बना सकें।

अमेरिका की पांच टेक कंपनियों ने हमारे सामान्य जनजीवन को प्रभावित किया है। देश की अर्थव्यवस्था पर भी इसका गहरा असर दिखने लगा है। हमारे संसाधनों का इस्तेमाल कर ये कंपनियां मोटी कमाई कर रही हैं, लिहाजा यह कहा जा सकता है कि हमारी आत्मनिर्भरता की चाबी उनके हाथों में चली गई है। इन कंपनियों की पकड़ मजबूत होने के कारण इनकी जद से बाहर निकलने की सोचना तो दूर, इनके समानांतर हमारा खड़ा होना भी मुश्किल दिखता है।

किसमें कितना है दम 

फरवरी 2005 में यूट्यूब तीन कर्मचारियों का एक स्टार्ट-अप था, जो नवंबर 2006 से गूगल का हिस्सा बना हुआ है। यह फांग की पांच कंपनियों में से एक गूगल के लिए कंटेंट, व्यूअर्स, डाटा, विज्ञापन और आय का जबरदस्त जरिया बना हुआ है। इसके सामाजिक प्रभाव और बड़े नेटवर्क से इन्कार नहीं किया जा सकता। फेसबुक, अमेजन, एप्पल, नेटफ्लिक्स और गूगल की दमदार स्थिति का अंदाजा उसमें लगातार बढ़ रहे पूंजी निवेश से भी लगाया जा सकता है। बर्कशायर हैथवे और सोरोस फंड मैनेजमेंट जैसे विश्व के बड़े और प्रभावशाली निवेशकों के जुड़ने से उसकी ताकत में पर्याप्त वृद्धि हुई है। फांग की प्रत्येक कंपनी नैस्डैक एक्सचेंज पर ट्रेंड करती है और अमेरिका में स्टॉक एक्सचेंजों में सूचीबद्ध 500 बड़ी कंपनियों को मापने वाले एसएंडपी 500 में फरवरी 2018 से लगातार बनी हुई है। स्टॉक इंडेक्स को 40 फीसद लाभ पहुंचाने में इसने अहम भूमिका निभाई है।

फेसबुक और अमेजन में क्रमश: 185 और 500 फीसद की स्टॉक मूल्य वृद्धि देखी गई, जबकि उसी दौरान एप्पल और अल्फाबेट में भी करीब 175 फीसद की बढ़ोतरी हुई। ओटीटी प्लेटफॉर्म नेटफ्लिक्स के मूल्य में तो 450 फीसद की वृद्धि हुई। हालांकि इसके शेयरों में गिरावट भी आई, जिससे निवेशकों ने इन्हें बुलबुले की तरह माना। जिन्होंने इनकी मौलिक ताकत पर भरोसा किया, उनके लिए ये कंपनियां सोने का अंडा देने वाली साबित हुईं। उदाहरण के तौर पर फेसबुक न केवल करीब 2.7 अरब यूजर्स के साथ दुनिया का सबसे बड़ा सोशल नेटवर्क बन गया, बल्कि जून 2020 तक उसकी शुद्ध आय 24 अरब डॉलर की हो गई। इसी तरह से अमेजन भी ई-कामर्स के लिए कारोबार में बीटूसी यानी बिजनेस टू कंज्यूमर के तहत लाख से अधिक उत्पादों के साथ बना हुआ है।

इनमें अमेजन प्राइम की सदस्यता से लेकर उसके विशाल बाजार से होने वाली शुद्ध आय का आकलन करना सरल नहीं है। उसकी ताकत का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि भारत में किराने की डिलीवरी से लेकर दवाइयां, कार और माटरबाइक व बीमा तक बेचने के लिए भारत की तेजी से बढ़ती कंपनी जियो प्लेटफॉर्म के साथ तकरार कायम है। इसी तरह से एप्पल की ताकत उसके ब्रांड के प्रति भरोसा और सुरक्षा है। इसके मुनाफे में भी बीते वर्षो के दौरान व्यापक इजाफा हुआ है। अधिकतर भारतीय कंपनियों में विशेषकर स्टार्ट-अप्स की स्थिति ऐसी नहीं है कि गूगल, अमेजन या फिर चीन की अलीबाबा जैसा आकार हासिल कर ले। हालांकि भारत सरकार से उन्हें विदेशी स्टॉक एक्सचेंज में सूचीबद्ध होने की पिछले साल ही मंजूरी मिल चुकी है, किंतु इसमें फिलहाल रुकावट कॉरपोरेट कार्य मंत्रलय की तरफ से विदेशी स्टॉक एक्सचेंज में सूचीबद्धता के लिए विस्तृत दिशानिर्देश जारी नहीं किए जाने के कारण बनी हुई है।

मौजूदा नियमों के मुताबिक भारतीय कंपनी विदेशी स्टॉक एक्सचेंज में सूचीबद्ध होकर फंड इकट्ठा नहीं कर सकती। भारतीय स्टार्ट-अप्स को अपने ब्रांड की पहचान बनाने व वैश्विक बाजार का रुतबा हासिल करने से लेकर पूंजी जुटाने में अड़चनों का सामना करना पड़ता है। भारतीय कंपनियों के ब्रांड को लेकर विश्वास जल्द नहीं बन पाने की मानसिकता भी इसमें आड़े आती है। इस कारण फांग कंपनियां भारतीय कंपनियों को निगलने का माद्दा रखती हैं।

(इंटरनेट मीडिया के जानकार)


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