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Kisan Special Train: किसान रेल में जुर्माने और मुआवजे पर बननी चाहिए ठोस नीति

रेलों की लेटलतीफी के लिए जिम्मेदार सभी तरह के लोगों पर शिकंजा कसा जाना चाहिए चाहे वे रेलवे के अधिकारी हों या फिर आम लोग। लेकिन इसके लिए एक ठोस नीति की दरकार है। ऐसा नहीं हो कि रेलवे की गलती हो और सजा आम आदमी को दी जाए।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Published: Tue, 05 Oct 2021 09:54 AM (IST)Updated: Tue, 05 Oct 2021 09:56 AM (IST)
Kisan Special Train: किसान रेल में जुर्माने और मुआवजे पर बननी चाहिए ठोस नीति
किसान रेल स्पेशल से फलों व शीघ्र खराब होने वाली वस्तुओं को तेजी से गंतव्य तक पहुंचाया जा रहा। फाइल

अरविंद कुमार सिंह। किसान रेल में आलू लादने में हुई देरी के कारण पूवरेत्तर रेलवे द्वारा एक व्यापारी से जुर्माना वसूलने से सवाल रेलवे पर भी खड़ा होता है। अगर कोई व्यक्ति छह घंटे देरी से रेलवे स्टेशन पहुंचेगा तो क्या ट्रेन उसके लिए इंतजार करेगी। इसी तरह माल ढुलाई में भी अगर कोई सामान देरी से लेकर पहुंचता है तो फिर टाइम टेबल से चलने वाली ट्रेन उसका कितनी देर तक इंतजार करेगी। सवाल यह भी है कि भारत सरकार की ओर से आधे माल भाड़े की छूट पर चलने वाली किसान रेल जिसमें किसानों या उत्पादकों के सामान की ढुलाई होनी है, उसमें व्यापारी का माल कैसे ढोया जा रहा है।

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सुप्रीम कोर्ट ने पिछले दिनों लेटलतीफी को लेकर भारतीय रेल के खिलाफ काफी तीखी टिप्पणी की थी और कहा था कि रेलवे अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकती। लेकिन यह भी समझना होगा कि ट्रेनों के लेट होने के बहुत से कारण हैं। रेलवे के अपने कारणों के साथ एक बड़ा कारण आंदोलन भी बनते जा रहे हैं। हाल के वर्षो में इन कारणों से रेलवे को माल राजस्व में भारी हानि हो रही है। वर्ष 2015-16 में आंदोलनों और हड़तालों के कारण 633 करोड़ रुपये की माल राजस्व में हानि हुई थी, जबकि 2020-21 में यह हानि 1463 करोड़ रुपये तक आंकी गई है। इससे हालात की गंभीरता को समझा जा सकता है। वर्ष 2015 में बिबेक देबराय समिति ने अपनी रिपोर्ट में तमाम सिफारिशें की थीं और कहा था कि रेलवे में किसी खास ट्रेन के संचालन पर कितनी लागत आती है, इसका आकलन होना चाहिए ताकि खर्च कमाई से ज्यादा न हो सके।

वर्तमान मामला किसान रेल से संबधित है जिसका संचालन एक समय-सारणी के तहत चुनिंदा रेलमार्गो पर हो रहा है। शीघ्र खराब होने वाली वस्तुओं को नियत समय के भीतर गंतव्य तक पहुंचाना इसका लक्ष्य है। वर्ष 2020-21 के बजट में सार्वजनिक निजी भागीदारी के तहत किसान रेल चलाने की घोषणा हुई थी, लेकिन निजी कंपनियों ने खास दिलचस्पी नहीं ली, लिहाजा सरकार को ही चलाना पड़ा। इसमें थोड़ी तेजी तब आई जब भारत सरकार ने किराये में 50 फीसद सब्सिडी की व्यवस्था की। भारतीय रेल विश्व की सबसे बड़ी रेल प्रणालियों में है। इसने जहां देश को एक सूत्र में जोड़ा वहीं बाजारों को उत्पादन केंद्रों, बंदरगाहों आदि से जोड़ा। खाद्य सुरक्षा की मजबूती में भी रेलवे की अहम भूमिका है। देशभर में माल ढुलाई में भारतीय रेल की महत्वपूर्ण भूमिका है। लेकिन यह खुद लेटलतीफी का शिकार बनी हुई है। इसकी तेजस जैसी ट्रेन ही अपवाद है जिसके लेट होने पर यात्रियों को सीमित मुआवजे की व्यवस्था की गई है।

रेलवे में माल ढुलाई की तस्वीर अलग है। कोयला, खाद्यान्न आदि की ढुलाई में इसका कोई जोड़ नहीं है। मालगाड़ी तो खूब लेटलतीफी का शिकार रहती है, क्योंकि समय के मामले में यात्री गाड़ियों को प्राथमिकता दी जाती है। मालगाड़ी कहीं भी रुक सकती है। वर्ष 2022-23 तक डेडिकेटेड फ्रेट कारिडोर माल परिवहन की धुरी बनेगा, तब तस्वीर भले बदले, लेकिन अभी हालात कुछ इसी तरह से हैं। वर्ष 2017-18 के दौरान देशभर में कुल 446 करोड़ टन माल ढुलाई हुई थी जिसमें रेलवे का हिस्सा 116 करोड़ टन ही था।

यह अलग बात है कि खेतिहर उत्पादों और रेलवे के बीच एक गहरा संबंध हमेशा से रहा है। रेलवे रियायती दर पर अनाज और अन्य कृषि उत्पादों की ढुलाई करती है। आजादी के बाद अधिकतर रेल बजटों में जब भी किराया भाड़ा बढ़ा तो कृषि उत्पादों पर रियायत जारी रखी गई। हरित क्रांति के बाद खाद्यान्न उत्पादन के साथ रेलवे का दायित्व भी बढ़ा। रेलवे ने वर्ष 2019-20 में अप्रैल से दिसंबर के बीच 2.76 करोड़ टन और 2020-21 में इसी अवधि में 5.04 करोड़ टन अनाज की ढुलाई की। रेल को 70 फीसद आमदनी माल ढुलाई से होती है, लेकिन कृषि उत्पादों की ढुलाई उसके लिए फायदे का सौदा नहीं है। इसे कम लागत पर ढोया जाता है।

भारतीय रेल के आरंभिक दौर में प्रशासन, संचालन, प्रबंधन और निर्माण का दायित्व विदेशी निजी कंपनियों के हवाले था। कंपनियों को सरकारी संरक्षण हासिल था। भाड़ा निर्धारण की मंजूरी सरकार देती थी, लेकिन उपभोक्ताओं को रेल कंपनियों के रहमोकरम पर छोड़ दिया गया था। भारत में 1854 में रेल अधिनियम बना जिसमें तय हुआ कि कंपनियां किराया भाड़ा की दरें हर स्टेशन पर अंग्रेजी और स्थानीय भाषा में प्रकाशित कर वहां दर्शाएंगी। बाद में अन्य विधायी व्यवस्थाएं हुईं जिनमें कंपनियों और व्यापारियों के बीच के विवाद को दूर करने का प्रविधान किया गया।

भारतीय रेल अधिनियम 1854 बनाते समय यात्रियों व उनकी सुरक्षा के लिए किसी एजेंसी का प्रविधान नहीं था। वर्ष 1872 में भारतीय रेल पुलिस का गठन हुआ और 1902-03 में रेल सुरक्षा बल का गठन हुआ। वर्ष 1985 में इस संगठन को सशस्त्र बल का दर्जा मिला। फिर भी रेलवे में सामानों की चोरी की समस्या खत्म नहीं हुई। वर्ष 1975 में तत्कालीन रेल मंत्री कमलापति त्रिपाठी तो रेलवे महाप्रबंधकों की एक बैठक में इतना कुपित हुए कि यहां तक कह दिया, ‘इतनी बड़ी फोर्स के रहते यदि हर माह सवा करोड़ की माल चोरी हो तो डूब मरने की बात है। ऐसा लगता है कि रेलवे में चोरी करने वाले संगठित गिरोह काम करते हैं।’

माल चोरी होने पर भी मुआवजा रेलवे को देना होता है, लेकिन यहां एक नई बहस ताजा मामले को लेकर आरंभ हुई है। इस नाते जरूरी है कि भारतीय रेल नए विचारों और चुनौतियों के आलोक में तैयारी करे। पूरे तंत्र को समय पालन के लिहाज से कसने की जरूरत है। 

[वरिष्ठ पत्रकार और पूर्व सलाहकार, भारतीय रेल]


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