Kargil Vijay Diwas 2020: जब पिता-पुत्र और भाइयों ने साथ मिलकर लड़ी थी लड़ाई
सेवानिवृत्त लेफ्टिनेंट गोबिंद सिंह बिष्ट ने बताया कि सैनिक के लिए देशरक्षा ही सबसे बड़ा कर्तव्य होता है। हम पिता-पुत्र का देश के लिए साथ कारगिल युद्ध लड़ना गौरवशाली था।
नई दिल्ली, जेएनएन। Kargil Vijay Diwas 2020 राष्ट्रकवि माखनलाल चतुर्वेदी की ये कालजयी पंक्तियां भारतीय मानस का परिचय कराती हैं, जिसमें जननी-जन्मभूमि को सर्वोच्च स्थान प्राप्त है। कारगिल की लड़ाई में भी भारत के वीर सपूतों ने इसी सर्वोच्च संकल्प का परिचय दिया।
चाह नहीं मैं सुरबाला के गहनों में गूंथा जाऊं,
चाह नहीं, प्रेमी-माला में बिंध प्यारी को ललचाऊं,
चाह नहीं, सम्राटों के शव पर हे हरि, डाला जाऊं,
चाह नहीं, देवों के सिर पर चढूं भाग्य पर इठलाऊं।
मुझे तोड़ लेना वनमाली! उस पथ पर देना तुम फेंक,
वंदे मातरम् मातृभूमि पर शीश चढ़ाने जिस पथ जावें वीर अनेक...।।
पिता और पुत्र साथ लड़े, पुत्र हुआ शहीद: उतराखंड के पिथौरागढ़ जिले से अर्जुन अभिमन्यु की इस जोड़ी ने कारगिल युद्ध लड़ा और जीता। लेफ्टिनेंट कर्नल (सेवानिवृत्त) गोबिंद सिंह बिष्ट और उनके बेटे लेफ्टिनेंट हेमंत सिंह महर बिष्ट की शौर्यगाथा प्रेरणा से भर देती है। कारगिल युद्ध में लेफ्टिनेंट कर्नल गोबिंद सिंह और लेफ्टिनेंट हेमंत सिंह एक ही डिवीजन में अलग-अलग स्थानों पर रहकर मोर्चा संभाले हुए थे। ऑपरेशन विजय सफल रहा और लेफ्टिनेंट कर्नल गोबिंद सिंह वापस अपनी बटालियन में आ गए। जबकि लेफ्टिनेंट हेमंत कारगिल ऑपरेशन के बाद सीमा पर तैनात रहे क्योंकि दुश्मन की नापाक हरकतें जारी थीं। 18 सितंबर 2000 को एक कमांडो टीम को सीमा पार जाकर दुश्मन के तीन बंकरों को तबाह करने का टास्क मिला। जिसे सफलतापूर्वक अंजाम देते हुए हेमंत सीने पर सात गोलियां लगने से वीरगति को प्राप्त हुए। मरणोपरांत बेटे को मिले शौर्य चक्र को पिता ने ग्रहण किया।
तीन भाइयों ने साथ लड़ी लड़ाई: देहरादून के मोहब्बेवाला निवासी ऑनररी कैप्टन (रिटायर्ड) सुनील कुमार लिम्बू और उनके दो भाइयों बड़े भाई ऑनररी कैप्टन अनिल कुमार लिम्बू और छोटे भाई नायब सूबेदार अरुण कुमार लिम्बू ने कारगिल युद्ध में दुश्मन के छक्के छुड़ा दिए थे। सुनील बताते हैं कि जंग शुरू हुई, तब उनकी बटालियन सियाचिन ग्लेशियर से ड्यूटी करके लौट रही थी। जंग की सूचना मिलते ही बटालियन ने नुरला घाटी में ठिकाना बना दिया। स्वयं उन्हें दो गोलियां लगीं। युद्ध के दौरान अरुण उन्हीं की टोली में सिग्लनमैन थे। गोली लगने पर भाई ही उन्हें कंधे पर ढोकर बेस कैंप तक लाए थे। बड़े भाई अनिल 6/11 गोरखा राइफल में तैनात थे और अलग मोर्चे पर लड़ रहे थे।
सुनील ने बताया कि उनके पिता स्व. भीम बहादुर भी सैनिक थे। परिवार की इच्छा है कि अब अगली पीढ़ी से बच्चे सेना में जाकर इस परंपरा को आगे बढ़ाएं। कैंसर से तड़पते बेटे को छोड़ लड़ा युद्ध कारगिल इलाके में कमांडिंग ऑफिसर की भूमिका निभाने वाले ब्रिगेडियर (से.नि.) डीएन यादव युद्ध की घोषणा होने से पहले घर आए हुए थे। उस समय उनका इकलौता बेटा करनदीप यादव कैंसर से पीड़ित था।
दिल्ली के आर्मी हॉस्पिटल में इलाज चल रहा था। जैसे ही युद्ध की घोषणा के बारे में उन्हें सूचना मिली वह मैदान-ए-जंग के लिए निकल पड़े। लोगों ने रोकने का प्रयास किया, कहा कि इकलौते बेटे की खातिर रुक जाएं, पर उन्होंने कहा कि पहले देश है, फिर परिवार। आज देश को उनकी अधिक आवश्यकता है। दुश्मन घर में घुस चुका है। एक मिनट की भी देरी राष्ट्रहित में उचित नहीं है। युद्ध समाप्त होने के बाद उन्हें सेना मेडल से सम्मानित किया गया। वह घर लौटे तब तक काफी देर हो चुकी थी। अंतत: उनका इकलौता बेटा जिंदगी की जंग हार गया।
सेवानिवृत्त लेफ्टिनेंट गोबिंद सिंह बिष्ट ने बताया कि सैनिक के लिए देशरक्षा ही सबसे बड़ा कर्तव्य होता है। हम पिता-पुत्र का देश के लिए साथ कारगिल युद्ध लड़ना गौरवशाली था। बेटे ने देश के लिए सर्वोच्च बलिदान देकर मुझे व पूरे परिवार को गौरवान्वित किया। कभी-कभी लगता है कि मैं काफी उम्र जी चुका था, इसलिए बेटे के बदले मेरी शहादत होती तो सही होता...।
(हल्द्वानी से संदीप मेवाड़ी, देहरादून से सुकांत ममगाईं और गुरुग्राम से आदित्य राज की रिपोर्ट)