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JNU Violence: विश्वविद्यालयों में विचारधारा के बीच तालमेल की दरकार

भिन्न प्रांतों से पिछड़े वर्गों से विश्वविद्यालय में पढ़ने आ रहे छात्रों के समक्ष जब पुरानी शिक्षा व्यवस्था में बदलाव किया जाता है।

By Pooja SinghEdited By: Published: Sun, 12 Jan 2020 04:07 PM (IST)Updated: Sun, 12 Jan 2020 04:13 PM (IST)
JNU Violence: विश्वविद्यालयों में विचारधारा के बीच तालमेल की दरकार
JNU Violence: विश्वविद्यालयों में विचारधारा के बीच तालमेल की दरकार

नई दिल्ली, जागरण स्पेशल। भिन्न प्रांतों से पिछड़े वर्गों से विश्वविद्यालय में पढ़ने आ रहे छात्रों के समक्ष जब पुरानी शिक्षा व्यवस्था में बदलाव किया जाता है, तब इस संकट के समाधान के लिए राजनीतिक व सामाजिक धरातल पर किसी संस्था के न होने के कारण छात्र आंदोलन करते हैं। असहाय होकर अपने हितों को सुरक्षित रखने के लिए तब उनके पास आंदोलन करने के अलावा कोई रास्ता नहीं रह जाता है। उच्च शिक्षण संस्थानों में मौजूदा स्थिति में विभिन्न विचारधारा के छात्रों के बीच समरसता लाने के लिए उन्हें उनके शोधकार्य व अकादमिक गतिविधियों में व्यस्त रखने की जरूरत है। जिससे वह इस ओर ध्यान दें और उनका दिमाग जब अकादमिक प्रक्रिया में ही थक जाएगा तो उनके मन में प्रदर्शन का विचार नहीं आएगा। लेकिन प्रशासन को भी संवादहीन रवैया अख्तियार करने की जरूरत नहीं है।

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संवादहीन रवैया अपनाने के कारण ही शिक्षण संस्थानों में छात्र पुरानी व्यवस्था को बदलने के खिलाफ खड़े हो गए हैं। जेएनयू जैसे शिक्षण संस्थान को करीब 50 साल हुए हैं स्थापित हुए। ऐसे में इसकी चली आ रही पुरानी प्रशासनिक व्यवस्था को अगर बदला जाएगा तो छात्र अपनी आवाज तो उठाएंगे ही। जेएनयू, डीयू जैसे विश्वविद्यालयों में वंचित व गरीब वर्ग के बड़ी संख्या में छात्र पढ़ाई करने आते हैं। ऐसे में अकादमिक व छात्रावास की फीस बढ़ोतरी से इनके जीवन में बहुत फर्क पड़ता है। निजी शिक्षण संस्थानों में आंदोलन नहीं होते हैं क्योंकि वहां पर समृद्ध परिवारों से छात्र पढ़ाई करने आते हैं। वंचित व गरीब वर्ग के छात्रों को नौकरी की चिंता होती है, वह अच्छी शिक्षा ग्रहण करना चाहते हैं।

इसलिए वह उन प्रशासनिक फैसलों के विरुद्ध आंदोलित होते हैं जिससे वह बहुत ज्यादा प्रभावित हो जाते हैं। छात्रों के बीच संवाद की कमी रहने के पीछे एक बड़ा कारण यह भी है कि संस्थानों में आयोजिन होने वाले कला एवं रचनात्मक कार्यक्रम अपने मकसद में कामयाब नहीं हैं। इनमें सिर्फ डीजे की व्यवस्था करा दी जाती है। इसमें कोई रोचक तत्व नहीं होता है। दूरदराज से आने वाले छात्रों के लिए उनकी अपनी सांस्कृतिक धरोहरों का एक दूसरे से साझा किए जाने वाले कार्यक्रम बनाए जाने चाहिए। कला व रचनात्मक मेलजोल को विभिन्न प्रांतों से आने वाले छात्र आपस में बांटेंगे, तो इससे उनके बीच सद्भावना स्थापित होगी। 

कभी भारत विश्व गुरु हुआ करता था, आज हम विश्व गुरु बनने की कोशिश कर रहे हैं, नीतियां बना रहे हैं, लक्ष्य तय कर रहे हैं। आदिकाल से भारतीय ज्ञानविज्ञान से दुनिया अभिभूत रही है। 3700 साल पहले अस्तित्व में आए तक्षशिला विश्वविद्यालय में दुनिया के कोने-कोने से दस हजार से ज्यादा छात्र अध्ययन करते थे। पांचवीं सदी के दौरान शुरू हुआ नालंदा विश्वविद्यालय दुनिया का पहला उच्च शिक्षण संस्थान है जहां छात्रों और अध्यापकों के लिए आवास (हॉस्टल) की व्यवस्था थी। ऐसे भारतीय उच्च शिक्षण संस्थानों की लंबी फेहरिस्त है। ताज्जुब करने वाली बात यह है कि इन सारे संस्थानों की एक आम उभयनिष्ट पहचान यह रही है कि ये सृष्टि के सबसे विकसित जीव को इंसान बनाते रहे। इनकी इसी समझ और सीख ने हमें विश्व गुरु का खिताब दिलाया।

आज भी हमारे पास ऐसे उच्च शिक्षण संस्थान हैं जिनसे किसी भी देश को रश्क हो सकता है। अध्ययन-अध्यापन के मामले में हम किसी से पीछे नहीं है। बस सत्र चलना चाहिए। कक्षाएं लगनी चाहिए, जो नहीं हो पा रहा है। हमारे उच्च शिक्षण कैंपसों का सांप्रदायिक ध्रुवीकरण किया जा रहा है। 

युवा जोश और ऊर्जा का अपनेअपने अनुसार इस्तेमाल कर रही है। किसी संस्थान पर वाम पंथ का ठप्पा है, तो कोई दक्षिण पंथ का मुलम्मा बना है। कुछ तो सांप्रदायिक पहचान रखने लगे हैं।जिस संस्थान में जिस विचारधारा का प्रभुत्व है, वहां दूसरी विचारधारा सांसत में हैं। किसी भी सरकारी नीति या योजना अगर इनकी विचारधारा के खांचे में नहीं बैठ रही है तो चक्का जाम, उपद्रवर्, हिंसक आंदोलन शुरू हो जाता है। इसमें अकादमिक सत्रों का सत्यानाश हो रहा है। ऐसे में कैंपस में मौजूद विभिन्न विचारधाराओं के बीच समरसता स्थापित करने वाले कदमों कीपड़ताल आज सबसे बड़ा मुद्दा है।


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