धरती बचाने की कवायद करनी होगी तेज, नहीं तो हो जाएगी मुश्किल
आज धरती पर हो रहे जलवायु परिवर्तन के लिए जिम्मेदार कोई और नहीं बल्कि समस्त मानव जाति है।
रवि शंकर
आज मानव सभ्यता विकास के चरम पर है। भौतिक एवं तकनीकी प्रगति ने जीवन को बहुत आसान बना दिया है लेकिन भौतिक एवं तकनीकी प्रगति की इस आपसी प्रतिस्पर्धा ने आज मानव जीवन को बहुत खतरे में डाल दिया है। मानव के लिए यह पृथ्वी ही सबसे सुरक्षित ठिकाना है। आम धारणा है कि पर्यावरण प्रदूषण, ग्लोबल वार्मिग, ग्लेशियर के पिघलने से पर्यावरण एवं पृथ्वी को खतरा है, लेकिन उससे भी बड़ा सवाल यह है कि सबसे बड़ा खतरा मानव जाति के लिए है।
बाकी जीव जंतु तो किसी तरह से अपना अस्तित्व बचा सकते हैं लेकिन समस्त कलाओं के बावजूद मनुष्य के लिए यह नामुमकिन है। आज धरती पर हो रहे जलवायु परिवर्तन के लिए जिम्मेदार कोई और नहीं बल्कि समस्त मानव जाति है। भारत को विश्व में सातवां सबसे अधिक पर्यावरण की दृष्टि से खतरनाक देश के रूप में स्थान दिया गया है। वायु शुद्धता का स्तर, भारत के मेट्रो शहरों में पिछले 20 वर्षो में बहुत ही खराब रहा है डब्ल्यूएचओ के अनुसार हर साल 24 करोड़ लोग खतरनाक प्रदूषण के कारण मर जाते हैं।
पूर्व में भी वायु प्रदूषण को रोकने के अनेक प्रयास किये जाते रहे हैं पर प्रदूषण निरंतर बढ़ता ही रहा है। फिर भी बड़े फैसलों में छोटी सोच के बाधक बनने का इससे बड़ा उदाहरण दूसरा क्या होगा कि अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने एक झटके में पेरिस जलवायु समझौते से अमेरिका को अलग कर लिया। ट्रम्प का मानना है कि इस समझौते से भारत-चीन को अधिक लाभ मिल रहा है। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के इस फैसलें से पर्यावरण संरक्षण के लिए प्रयासरत सारी दुनिया को बड़ा झटका लगा है। अमेरिका ही नहीं सारी दुनिया के देशों ने ट्रंप के इस निर्णय को दुर्भाग्यपूर्ण बताया है वहीं यूरोपीय देशों ने तो अमेरिका को कड़े प्रतिबंधों के लिए तैयार रहने के संकेत दे दिए हैं। देखा जाए तो कार्बन उत्सर्जन में अमेरिका दुनिया के देशों में आगे है।
जहां तक पेरिस समझौते का प्रश्न है 2015 में दुनिया के 195 देश इस पर हस्ताक्षर कर चुके हैं वहीं 148 देश इस समझौते की पुष्टि कर चुके हैं। हालांकि समझौते के तहत अमीर देश 100 अरब डॉलर की मदद देंगे। दुनिया के देशों में दादा की भूमिका निभाने वाला अमेरिका पेरिस जलवायु समझौते से अपने आप को बाहर कर सीरिया और निकारागुआ की कतार में खड़ा हो गया है। यानी केवल तीन देश इस समझौते के विरोध में रह गए हैं। मानवीय सोच में इतना अधिक बदलाव आ गया है कि भविष्य की कोई चिंता ही नहीं है। इसमें दो राय नहीं है कि अमानवीय कृत्यों के कारण आज मनुष्य प्रकृति को रिक्त करता चला जा रहा है पर्यावरण के प्रति चिंतित नहीं है।
असंतुलन के चलते भूमंडलीय ताप, ओजोन क्षरण, अम्लीय वर्षा, बर्फीली चोटियों का पिघलना, सागर के जल-स्तर का बढ़ना, मैदानी नदियों का सूखना, उपजाऊ भूमि का घटना और रेगिस्तानों का बढ़ना आदि विकट परिस्थितियां उत्पन्न होने लगी हैं। यह सारा किया कराया मनुष्य का है और आज विचलित, चिंतित भी स्वयं मनुष्य ही हो रहा है। बीते दो दशक में यह स्पष्ट हुआ है कि वैश्वीकरण की नवउदारवादी और निजीकरण ने हमारे सामने बहुत-सी चुनौतियां खड़ी कर दी है। जिससे आर्थिक विकास के मॉडल लड़खड़ाने लगे है। भूख खाद्य असुरक्षा और गरीबी ने न केवल गरीब देश पर असर डाला है बल्कि पूर्व के धनी देशों को भी परेशानी में डाल दिया है। हमारे जलवायु ईंधन और जैव- विविधता से जुड़े संकटों ने भी आर्थिक विका पर असर दिखाया है।
दरअसल, वैश्वीकरण से उपजे उपभोक्तावाद ने मनुष्य की संवेदनाओं को सोखकर उसे निर्मम भोगवादी बना दिया है। अब वैश्विक तर्ज पर विभिन्न दिवस और सप्ताह का आयोजन कर लोगों की संवेदनाओं को जगाना पड़ रहा है ताकि वे अपने वन और वन्य प्राणियों को बचाएं। नदियों-तालाबों को सूखने न दें, जल का संरक्षण करें, भविष्य के लिए ऊर्जा की बचत करें। धरती को बचाने के लिए गुहार लगानी पड़ रही है क्योंकि प्राकृतिक संसाधनों के अंधाधुध दोहन की वजह से आज उसके सामने अस्तित्व का संकट उत्पन्न हो गया है। इससे परिस्थितिकी तंत्र पर भी दुष्प्रभाव पड़ा है। इस विषम स्थिति में अपने जीवन की रक्षा के लिए भी हमें धरती को बचाने का संकल्प लेना होगा।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)