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मजाज़ की पुण्‍यतिथि पर विशेष: ऐ गम-ए-दिल क्‍या करूं.....

पांच दिसंबर को लखनवी तहज़ीब और ज़बान के ज़हीन चितेरे असरार उल हक़ मजाज़ की पुण्‍यतिथि है। वह मशहूर शायर जावेद अख्‍तर के मामा थे।

By Kamal VermaEdited By: Published: Tue, 05 Dec 2017 05:19 PM (IST)Updated: Tue, 05 Dec 2017 06:28 PM (IST)
मजाज़ की पुण्‍यतिथि पर विशेष: ऐ गम-ए-दिल क्‍या करूं.....
मजाज़ की पुण्‍यतिथि पर विशेष: ऐ गम-ए-दिल क्‍या करूं.....

नई दिल्ली (नवनीत शर्मा)। साहित्‍य विश्‍व का हो या भारतीय, ऐसे कई उदाहरण हैं कि जिन लोगों को शारीरिक रूप से संसार में रहने का अधिक अवसर नहीं मिला, वे अपने शब्‍दों के माध्‍यम से अब तक संसार में हैं। अंग्रेजी में कवि जॉन कीट्स, हिंदी गजल की समकालीन चेतना के प्रमुख स्‍वर दुष्‍यंत कुमार और पंजाबी में शिव कुमार बटालवी एवं अवतार सिंह पाश। कोई 27 साल की उम्र में चला गया तो कोई 44 की उम्र में। ऐसा ही एक सितारा उर्दू अदब में भी था जो रूमानी तेवरों के साथ उभरा और बाद में क्रांति के स्‍वर में बोला लेकिन अंतत: दोनों के मिश्रण के रूप में अब भी याद रह गया। पांच दिसंबर को लखनवी तहज़ीब और ज़बान के ज़हीन चितेरे असरार उल हक़ मजाज़ की पुण्‍यतिथि है। वह मशहूर शायर जावेद अख्‍तर के मामा थे। आज मजाज़ होते तो शायरी के क्षेत्र में तो मजाज़ के मिज़ाज से सब परिचित थे लेकिन मजाज़ का शायरी से काेई संबंध न रखने वाले लोगों तक पहुंचना आसान बनाया तलत महमूद जैसे बड़े गायक ने।

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'ऐ गमे दिल क्‍या करूं, ऐ वहशते दिल क्‍या करूं....।' अंदर को गूंजती हुई उस मखमली आवाज़ में जब मजाज़ के अहसास को आवाज़ मिली तो वह सबकी जबान पर ऐसे छाए कि अब भी उनका अपना विशेष स्‍थान है। उर्दू जानने वालों के लिए मजाज़ भले ही बहुत पहले से मशहूर हों, वह हिंदी जानने वाले तबके तक तब और अधिक पहुंचे जब उन पर प्रकांश पंडित की पुस्‍तक देवनागरी में आई। 19 अक्तूबर, 1911 को बाराबंकी ज़िले (उत्‍तर प्रदेश ) में चौधरी सिराज उल हक़ के घर जन्‍मे बालक को इंजीनियर बनाने का विचार था लेकिन वह बने शायर। 'असरार’ उपनाम भी हो गया। गजल का व्‍याकरण भी सीख लिया।

आगरा में शिक्षाप्राप्‍त करने के बाद वह अलीगढ़ चले गए। यहां कई नामचीन लोगों से उनका संपर्क हुआ। यहां वह ‘मजाज़’ हो गए। ऐसा भी कहा जाता है कि लड़कियां उनकी तस्‍वीर सिरहाने रखती थीं। अलीगढ़ में उनका लेखन इश्‍क से हट कर क्रांति की ओर हो गया। यहीं इन्‍कलाब जैसी नज्‍म लिखी। 1935 में वह आल इण्डिया रेडियो की पत्रिका ‘आवाज’ के सहायक संपादक बने। यह नौकरी उन्‍हें दिल्‍ली में मिली। कहते हैं कि यहां असफल प्रेम ने उन्‍हें ऐसी टीस दी कि वह इससे बाहर नहीं आ सके। बाद में उन्‍हेांने दिल्‍ली भी छोड़ दी।

मजाज़ पर बहुत लोगों ने लिखा है, जां निसार अख्‍तर साहब से लेकर फैज अहमद फैज साहब तक। उनके बारे में जितनी बातें मशहूर हैं उतने ही मशहूर हैं उनके लतीफे। मजाज़ की खूबी यह थी कि उन पर चाहे किसी भी वाद का ठप्‍पा लगाया जाए, वह हर अहसास के शायर थे। उनकी एक नज्‍म है : नन्‍हीं पुजारन।' दरअसल विषय छोटा या बड़ा नहीं होता, उसे लिखने का अंदाज उसे अलग करता है, उनकी यह नज्‍म यही बताती है। एक बहुत छोटे से विषय को उन्‍होंने इस खूबी से कहा है कि यह बालमन का मनोवैज्ञानिक दस्‍तावेज बन गया है: 

इक नन्ही मुन्नी सी पुजारन, पतली बाहें, पतली गर्दन।
भोर भये मन्दिर आयी है, आई नहीं है मां लायी है।
वक्त से पहले जाग उठी है, नींद भी आंखों में भरी है।
ठोडी तक लट आयी हुई है, यूंही सी लहराई हुई है।
आंखों में तारों की चमक है, मुखडे़ पे चांदी की झलक है।
कैसी सुन्दर है क्या कहिए, नन्ही सी एक सीता कहिए।
धूप चढे तारा चमका है, पत्थर पर एक फूल खिला है।
चांद का टुकडा, फूल की डाली, कमसिन सीधी भोली-भाली।
कान में चांदी की बाली है, हाथ में पीतल की थाली है।
दिल में लेकिन ध्यान नहीं है, पूजा का कुछ ज्ञान नहीं है।
कैसी भोली और सीधी है, मन्दिर की छत देख रही है।
मां बढकर चुटकी लेती है, चुप-चुप हंस देती है।
हंसना रोना उसका मजहब, उसको पूजा से क्या मतलब।
खुद तो आई है मन्दिर में, मन में उसका है गुडि़या घर में।

फैज़ और जज्‍बी के समकालीन रहे मजाज़ की खूबी यह है कि वह फैज़ की तरह ही शब्‍द परंपरागत लेते थे लेकिन बात दूर की कहते थे। क्रांति को चीख चीख कर नहीं कहते थे। फै़ज़ ने ही उनके काव्‍य संग्रह 'आहंग' की भूमिका में लिखा है, 'मजाज़ क्रांति का ढोल नहीं पीटता, वह उसे गुनगुनाता है।' हालांकि बाद की नज्‍मों में वह और मुखर अवश्‍य हुए थे।

उनकी मेधा, शराब की आदत, प्रेम की असफलताएं, बेहद रूमानी होना...और अंतत: दयनीय हालत में मौत को प्राप्‍त होना, इन सबके बारे में बहुत कुछ लिखा जाता है, लेकिन वह जीवन से भरपूर शरारती भी होंगे, ऐसा उनकी नर्स पर लिखी नज्‍़म को पढ़ कर लगता है :

वो एक नर्स थी चारागर जिसको कहिए
मदावाये दर्दे जिगर जिसको कहिए

जवानी से तिफ़्ली गले मिल रही थी
हवा चल रही थी कली खिल रही थी
वो पुर रौब तेवर, वो शादाब चेहरा
मताए जवानी पे फ़ितरत का पहरा
मेरी हुक्मरानी है अहले ज़मीं पर
यह तहरीर था साफ़ उसकी जबीं पर
सफ़ेद और शफ़्फ़ाफ़ कपड़े पहन कर
मेरे पास आती थी इक हूर बन कर

कभी उसकी शोख़ी में संजीदगी थी
कभी उसकी संजीदगी में भी शोख़ी
घड़ी चुप घड़ी करने लगती थी बातें
सिरहाने मेरे काट देती थी रातें

सिरहाने मेरे एक दिन सर झुकाए
वोह बैठी थी तकिए पे कोहनी टिकाए
ख़यालाते पैहम में खोई हुई-सी
न जागी हुई-सी, न सोई हुई-सी
झपकती हुई बार-बार उसकी पलकें
जबीं पर शिकन बेक़रार उसकी पलकें

मुझे लेटे-लेटे शरारत की सूझी
जो सूझी भी तो किस शरारत की सूझी
ज़रा बढ़ के कुछ और गरदन झुका ली
लबे लाले अफ़्शां से इक शय चुरा ली
वो शय जिसको अब क्या कहूं क्या समझिए
बहिश्ते जवानी का तोहफ़ा समझिए
मैं समझा था शायद बिगड़ जाएगी वो
हवाओं से लड़ती है लड़ जाएगी वो
मैं देखूंगा उसके बिफरने का आलम
जवानी का ग़ुस्सा बिखरने का आलम

इधर दिल में इक शोरे-महशर बपा था
मगर उस तरफ़ रंग ही दूसरा था
हंसी और हंसी इस तरह खिलखिलाकर
कि शमअ-ए-हया रह गई झिलमिलाकर
नहीं जानती है मेरा नाम तक वो
मगर भेज देती है पैग़ाम तक वो

ये पैग़ाम आते ही रहते हैं अक्सर
कि किस रोज़ आओगे बीमार हो कर


............................................
मजाज़ की एक प्रतिनिधि नज्‍़म


शहर की रात और मैं, नाशाद-ओ-नाकारा फिरूँ
जगमगाती जागती, सड़कों पे आवारा फिरूँ
ग़ैर की बस्ती है, कब तक दर-ब-दर मारा फिरूँ
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ

झिलमिलाते कुमकुमों की, राह में ज़ंजीर सी
रात के हाथों में, दिन की मोहिनी तस्वीर सी
मेरे सीने पर मगर, चलती हुई शमशीर सी
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूं, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ

ये रुपहली छांव, ये आकाश पर तारों का जाल
जैसे सूफ़ी का तसव्वुर, जैसे आशिक़ का ख़याल
आह लेकिन कौन समझे, कौन जाने जी का हाल
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूं, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूं

फिर वो टूटा एक सितारा, फिर वो छूटी फुलझड़ी
जाने किसकी गोद में, आई ये मोती की लड़ी
हूक सी सीने में उठी, चोट सी दिल पर पड़ी
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूं, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूं

रात हंस – हंस कर ये कहती है, कि मयखाने में चल
फिर किसी शहनाज़-ए-लालारुख के, काशाने में चल
ये नहीं मुमकिन तो फिर, ऐ दोस्त वीराने में चल
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूं, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूं

हर तरफ़ बिखरी हुई, रंगीनियां रानाइयां
हर क़दम पर इशरतें, लेती हुई अंगड़ाइयां
बढ़ रही हैं गोद फैलाये हुये रुस्वाइयां
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूं, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूं

रास्ते में रुक के दम लूं, ये मेरी आदत नहीं
लौट कर वापस चला जाऊं, मेरी फ़ितरत नहीं
और कोई हमनवा मिल जाये, ये क़िस्मत नहीं
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूं, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूं

मुंतज़िर है एक, तूफ़ान-ए-बला मेरे लिये
अब भी जाने कितने, दरवाज़े है वहां मेरे लिये
पर मुसीबत है मेरा, अहद-ए-वफ़ा मेरे लिए
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूं, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूं

जी में आता है कि अब, अहद-ए-वफ़ा भी तोड़ दूं
उनको पा सकता हूं मैं ये, आसरा भी छोड़ दूं
हां मुनासिब है ये, ज़ंजीर-ए-हवा भी तोड़ दूं
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूं, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूं

एक महल की आड़ से, निकला वो पीला माहताब
जैसे मुल्ला का अमामा, जैसे बनिये की किताब
जैसे मुफलिस की जवानी, जैसे बेवा का शबाब
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूं, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूं

दिल में एक शोला भड़क उठा है, आख़िर क्या करूं
मेरा पैमाना छलक उठा है, आख़िर क्या करूं
ज़ख्म सीने का महक उठा है, आख़िर क्या करूं
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूं, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूं

मुफ़लिसी और ये मज़ाहिर, हैं नज़र के सामने
सैकड़ों चंगेज़-ओ-नादिर, हैं नज़र के सामने
सैकड़ों सुल्तान-ओ-ज़बर, हैं नज़र के सामने
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूं, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूं

ले के एक चंगेज़ के, हाथों से खंज़र तोड़ दूं
ताज पर उसके दमकता, है जो पत्थर तोड़ दूं
कोई तोड़े या न तोड़े, मैं ही बढ़कर तोड़ दूं
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूं, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूं

बढ़ के इस इंदर-सभा का, साज़-ओ-सामां फूंक दूं
इस का गुलशन फूंक दूं, उस का शबिस्तां फूंक दूं
तख्त-ए-सुल्तां क्या, मैं सारा क़स्र-ए-सुल्तां फूंक दूं
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूं, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूं

जी में आता है, ये मुर्दा चांद-तारे नोंच लूं
इस किनारे नोंच लूं, और उस किनारे नोंच लूं
एक दो का ज़िक्र क्या, सारे के सारे नोंच लूं
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूं, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूं

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