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घाटी में उभर रही खतरनाक प्रवृत्ति, बनाया जा रहा है इनको निशाना

इन दिनों कश्मीर घाटी में एक नई प्रवृत्ति उभरी है। सेना और अर्धसैनिक बलों पर तो लंबे समय से हमले होते रहे हैं, परंतु वहां की पुलिस बल पर आतंकी हमले नहीं होते थे

By Kamal VermaEdited By: Published: Tue, 27 Jun 2017 04:27 PM (IST)Updated: Tue, 27 Jun 2017 04:38 PM (IST)
घाटी में उभर रही खतरनाक प्रवृत्ति, बनाया जा रहा है इनको निशाना
घाटी में उभर रही खतरनाक प्रवृत्ति, बनाया जा रहा है इनको निशाना

अवधेश कुमार

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जम्मू- से जितनी खबरें आ रही हैं वे वाकई डरावनी हैं। पहली नजर में तस्वीर यह बनती है कि जम्मू- की स्थिति नियंत्रण से बाहर जा रही है। हालांकि इसका दूसरा पक्ष भी है। आखिर तीन सप्ताह में ऐसा पहली बार हुआ है जब 23 दुर्दांत आतंकवादी भी मारे गए हैं। यहां तक कि नियंत्रण रेखा पार करने का दुस्साहस करने वाले पाकिस्तान की बोर्डर एक्शन टीम यानी बैट के दो जवानों को भी अपनी जान गंवानी पड़ी। किंतु कुल मिलाकर सुरक्षा बलों पर आतंकवादियों का लगातार हमला, आतंकवादियों के पक्ष में जनता के एक वर्ग का खड़ा होना तथा उनके बचाव के लिए सुरक्षा बलों के खिलाफ पत्थरबाजी करना हम सबको आतंकित करता है। हाल में घाटी में एक नई प्रवृत्ति उभरी है।

सेना और केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल या सीआरपीएफ तथा सीमा सुरक्षा बल यानी बीएसएफ पर लंबे समय से हमले हो रहे हैं, लेकिन वहां की स्थानीय पुलिस बल पर हमले नहीं होते थे। हाल में यह स्थिति बदली है। जिस तरह एक पुलिस उपाधीक्षक यानी डीएसपी को श्रीनगर में जामिया मस्जिद के बाहर पीट-पीट कर मार डाला गया उसकी कल्पना कुछ समय पहले तक नहीं की जा सकती थी। पुलिस पर यह कोई पहला हमला नहीं है। इसके पूर्व आतंकवादियों ने एक साथ पेट्रोलिंग पर निकले छह पुलिसवालाें की हत्या कर दी। उसके पहले दो कांस्टेबलों की हत्या की गई। तो एक सप्ताह में कुल मिलाकर जम्मू- पुलिस के नौ जवानों को जान से हाथ धोना पड़ा है। जाहिर है इस नई प्रवृत्ति को कुछ लोग एक खतरनाक स्थिति की शुरुआत मान रहे हैं।

सामान्य तौर पर देखें तो मानना भी चाहिए। आखिर पुलिस बहुत कठिन स्थिति में अपनी भूमिका निभाती है। उसे भिन्न-भिन्न प्रकार की भूमिका निभानी पड़ती है। पुलिस महकमे में इन घटनाओं के बाद किस तरह की सोच उभर रही होगी, वे कैसी मानसिकता में जी रहे होंगे इसकी कल्पना आसानी से की जा सकती है। हर जगह एक-एक सिपाही के लिए बुलेट प्रूफ जैकेट और बुलेट प्रूफ गाड़ी की व्यवस्था नहीं की जा सकती। किंतु प्रश्न उठता है कि आखिर पुलिस के विरुद्ध इस ढंग की हिंसक और विरोधी प्रवृत्ति क्यों उभरी है? जो आतंकवादी कल तक कहते थे कि हमारी लड़ाई सेना से है, आरपीएफ से है, बीएसएफ से है, जम्मू- की पुलिस से नहीं, पुलिसवाले तो हमारे भाई हैं वही अब पुलिस के साथ भी दुश्मन की तरह व्यवहार करने लगे हैं। बुरहान वानी का वीडियो देखिए तो उसमें पुलिस वालों को वह अपने कह रहा है।

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जाहिर है अगर इस सोच में बदलाव आ रहा है तो इसका कुछ कारण निश्चित रूप से होगा। हम यहां यह न भूलें कि जम्मू- पुलिस पर खासकर घाटी में तैनात पुलिसकर्मियों पर अलगाववादियों एवं आतंकवादियों के प्रति सहानुभूति रखने का आरोप लगता रहा है। यह आरोप गलत भी नहीं था। अलगाववादियों के समर्थकों पर सामान्य धाराओं में मुकदमे दर्ज किए जाते रहे हैं ताकि वे आसानी से छूट जाएं। हालांकि सभी पुलिसवालों को एक ही तराजू पर नहीं रखा जा सकता है, किंतु यह का एक खतरनाक सच अब तक रहा है इसे स्वीकारने में कोई समस्या नहीं है। आतंकवादियों तथा पाकिस्तान परस्त अलगाववादियों द्वारा भड़काए गए लोगों से निपटने का काम सेना या सीआरएफ का होता था। हाल के दिनों में की सुरक्षा कार्रवाई की रणनीति बदली है।

आतंकवादियों के खिलाफ कार्रवाई या सर्च ऑपरेशनों में सेना पुलिस को आगे लेकर चल रही है। इसका कारण यह बताया गया है कि स्थानीय पुलिस को क्षेत्र की विशेष जानकारी है इसलिए उनका इस तरह साथ रहना जरूरी है। इस रणनीति के कारण आतंकवादियों के विरुद्ध कार्रवाई में सफलता मिल रही है, किंतु दूसरी तरफ आतंकवादियों, अलगावादियों तथा उनके समर्थकों को यह लगने लगा है कि जिस पुलिस को हमारा साथ देना चाहिए वह हमारे खिलाफ दुश्मनों का साथ दे रही है। इस कारण उनके अंदर पुलिस के खिलाफ गुस्सा बढ़ा है और यह हाल के हमलों में दिखा है। पुलिसवालों के शहीद होने से वहां की सुरक्षा रणनीति में बदलाव की कोई संभावना नहीं है, क्योंकि सुरक्षा कार्रवाई घाटी में छिपे करीब 258 चिन्हित आतंकवादियों का काम तमाम करने के लक्ष्य से की जा रही है।

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पुलिस के साथ से इसमें सफलता मिलने की ज्यादा संभावना है। तो इसका अर्थ है कि आगे पुलिस बल पर और हमला हो सकता है। लोग कितने उत्तेजित किए जा चुके हैं इसका अंदाजा मस्जिद के बाहर सुरक्षा में लगे अपना कर्तव्य निभा रहे उस पुलिस उपाधीक्षक के साथ बरती गई हैवानियत से हो जाता है। जिस निर्दयता से लोगों ने उस पर हमला किया उसके सामने हैवानियत शब्द भी कमजोर पड़ जाता है। के एक बड़े वर्ग को कट्टर इस्लामी विचारधारा से इस कदर भर दिया गया है कि उनके लिए अब राजनीतिक मसला नहीं जिहाद का मसला है। यानी वे यहां इस्लामिक राज की स्थापना के लिए काम कर रहे हैं। इस जिहाद के रास्ते जो भी आएगा वह उनका दुश्मन होगा। इस प्रकार के कट्टरपंथ को नकारकर की किसी समस्या का समाधान नहीं निकाला जा सकता है।

जम्मू- की मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती को इस स्थिति का पता नहीं हो ऐसा कैसे हो सकता है, पर लगता है कि वह इसकी अनदेखी कर रही हैं। उनको लगता है कि इस श्रेणी के लोगों में से एक वर्ग का वोट मिलता है। जिस दिन छह पुलिसवाले शहीद हुए उस दिन देश भर के लोगों में गुस्सा था, में भी उमर फैयाज की हत्या के बाद शियों के एक वर्ग में इस कार्रवाई के खिलाफ आक्रोश देखा जा सकता था, लेकिन विधानसभा में मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती भाषण दे रही थीं कि मसले का हल केवल बातचीत है। उनके मुंह से एक शब्द भी उन पुलिसवालों के प्रति श्रद्धांजलि का तथा उनकी जान लेने वाले आतंकववादियों के विरुद्ध नहीं निकला। हालांकि पुलिस उपाधीक्षक को श्रद्धांजलि देने महबूबा मुफ्ती पहुंचीं।

इसका अर्थ यह हुआ कि उन्हें स्थिति की गंभीरता का कुछ हद तक आभास होने लगा है। पुलिस में यदि असंतोष हो गया तो शासन चलाना और कठिन हो जाएगा। जिस मस्जिद के बाहर पुलिस उपाधीक्षक की भीड़ ने पीट-पीट कर हत्या की उसके अंदर मीरवाइज उमर फारूख थे। कहा जा रहा है कि उन्होंने अंदर भाषण भी दिया था तो मीरवाइज पर कठोर कार्रवाई होनी ही चाहिए। पुलिस अपने पर उतर आए तो फिर में काफी हद तक शांति स्थापित हो जाएगी। इसलिए अपने को बचाने, अपने साथियों को बचाने तथा को बचाने के लिए पुलिस को अपनी असली भूमिका में आना अब अपरिहार्य हो गया है। हां, इसके लिए उसको राजनीतिक नेतृत्व का लगातार समर्थन चाहिए। मूल प्रश्न यही है कि क्या महबूबा ऐसे लगातार समर्थन को तैयार हैं?

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)


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