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वाम दल भारत की राजनीति में यूं ही नहीं पिछड़े उसके पीछे थी ठोस वजह

भारत में वाम दलों के अस्तित्व पर गंभीर संकट है। विचारकों से लेकर आम लोगों का मानना है कि इन दलों को बदलते भारत के विचारों को समझना होगा।

By Lalit RaiEdited By: Published: Sat, 14 Oct 2017 03:46 PM (IST)Updated: Sat, 14 Oct 2017 04:35 PM (IST)
वाम दल भारत की राजनीति में यूं ही नहीं पिछड़े उसके पीछे थी ठोस वजह
वाम दल भारत की राजनीति में यूं ही नहीं पिछड़े उसके पीछे थी ठोस वजह

नई दिल्ली [ स्पेशल डेस्क ] । 1947 से लेकर 1960 के मध्य तक आम भारतीय जनमानस में कांग्रेस की छाप सिर्फ पार्टी के तौर पर ही नहीं थी बल्कि लोग कांग्रेस को आंदोलन के तौर पर देखते थे। भारत को तरक्की की राह पर आगे बढ़ाने के लिए जवाहर लाल नेहरू अलग-अलग नीतियों पर काम कर रहे थे। लेकिन उसके साथ ही साथ एक ऐसी विचारधारा भी काम कर रही थी जिसे कांग्रेस की नीतियों में खामी नजर आती थी। कांग्रेस के विरोध में कई विचार शामिल थे जिसमें दक्षिणपंथ और वामपंथ (सीपीआइ) प्रमुख थे।

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दो विरोधी विचारों के बीच कांग्रेस फल-फूल रही थी। लेकिन वामदल देश के उन लोगों की आवाज उठा रहे थे जो मुख्यधारा से कटे हुए थे। वाम दलों के विचार समाज के वंचित लोगों में लोकप्रिय भी रहे थे और उसका फायदा भी उन्हें मिला जब इएस नंबूदरीपाद के नेतृत्व में केरल राज्य में पहली सरकार बनी। कांग्रेस के खिलाफ वाम दल को एक मजबूत विपक्ष के तौर पर देखा जाने लगा। समय के साथ विचारों के ही नाम पर सीपीआइ में कई धड़े बने जिसमें सीपीएम सबसे शक्तिशाली दल के रूप में उभरा। जनाकांक्षाओं की उम्मीद पर वामदल आगे बढ़ने की कोशिश करते रहे। पश्चिम बंगाल मे सीपीएम के नेतृत्व में सबसे लंबे समय तक सरकार चलाने की रिकॉर्ड अभी भी कायम है लेकिन सच ये है कि 29 राज्यों के संघ में लाल झंडा सिर्फ केरल और त्रिपुरा में लहरा रहा है।   

 सीपीएम का कैसे हुआ उदय

भारत में फिलहाल पश्चिम बंगाल, केरल और त्रिपुरा में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीएम) सबसे ज्यादा  असरदार है। सीपीएम का गठन 1964 में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) के विभाजन से हुआ। अविभाजित सीपीआई ने द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद तेलंगाना, त्रिपुरा और केरल में सशस्त्र विद्रोह का रास्ता अपनाया था, लेकिन जल्दी ही इसने ये रास्ता छोड़ कर संसदीय ढांचे में काम करने का फैसला किया।

माना जाता है कि नेहरू काल में कांग्रेस ने वामपंथियों पर दबाव डालने के लिए सोवियत संघ के साथ अच्छे रिश्तों का इस्तेमाल किया था बावजूद इसके कांग्रेस और वामपंथियों के रिश्ते 1959 में तब बिगड़े जब केरल में ईएस नंबूदरीपाद सरकार को बर्खास्त कर राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया। नंबूदरीपाद पूरे भारत में इकलौते गैर कांग्रेसी मुख्यमंत्री थे। चीन के साथ 1962 की लड़ाई के समय सीपीआई के भीतर कई गुट उभरे। पार्टी के कुछ नेताओं पर चीन का समर्थन करने के आरोप लगे।

इसी वर्ष पार्टी के महासचिव अजय घोष का निधन हो गया उसके बाद एसए डांगे को पार्टी का चेयरमैन बनाया गया और इएस नंबूदरीपाद महासचिव बनाए गए। ये संतुलन बनाने की कोशिश थी क्योंकि ईएस पार्टी में उदारवादी धड़े का नेतृत्व करते थे और डांगे कट्टरपंथी नीतियों में विश्वास करते थे। हालांकि ये प्रयोग 1964 में विफल हो गया। 1964 में ही  बॉम्बे में डांगे समूह का अलग सम्मेलन हुआ और साथ-साथ कलकत्ता में पी सुंदरैया की अगुआई में अलग सम्मेलन हुआ। कलकत्ता सम्मेलन में जो लोग शामिल हुए उन्होंने मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीएम) के नाम से नया दल बनाया साथ ही वे उस समय दुनिया के पहले ऐसे कम्युनिस्ट नेता थे जो जनता से चुन कर सत्ता तक पहुंचे थे।

जानकार की राय

Jagran.Com से खास बातचीत में सीपीआइ के वरिष्ठ नेता अतुल कुमार अंजान ने कहा कि वामपंथ की विचारधारा कभी अप्रासंगिक नहीं हो सकती है। बहुभाषीय, बहुजातीय विचारों को हम फलने-फूलने का मौका देते हैं। ये बात सच है कि आज वामदल दो राज्यों में काबिज है। लेकिन वामपंथ के विचार को महज सत्ता में होने या  न होने से खारिज नहीं कर सकते हैं। उन्होंने कहा कि वाम दलों के पिछड़ने के पीछे दो ऐतिहासिक भूलें हैं। पहला जब 1996 में ज्योति बसू को पीएम बनाने के नाम पर वाम दल पीछे रह गए। इसके अलावा 2004 में यूपीए-1 में वामदलों को केंद्र सरकार में 16 सीटें हासिल हो सकती थी। लेकिन विचार के नाम पर वामदलों ने कांग्रेस की अगुवाई वाली सरकार को बाहर से समर्थन देने का फैसला किया। अतुल कुमार अंजान ने कहा कि मंडल और कमंडल की राजनीति की वजह से वैचारिक सोच की बात पीछे चली गई। लोगों में धार्मिक और जातीय भावना प्रबल हो गई। आज नवउदारवाद के नाम पर भाजपा और कांग्रेस देश को आगे ले जाने की बात कर रहे हैं, जिसका वाम दल विरोध करते हैं। लेकिन हकीकत में आज के संचार युग में कुछ खास लोगों ने कब्जा कर रखा है जिसकी वजह से वाम दलों की बातें आम लोगों तक नहीं पहुंच पा रही है। 

Jagran.Com से खास बातचीत में ही विचारक प्रोफेसर आनंद कुमार ने सबसे पहले ये कहा कि अगर वाम दलों ने बदलते समय के साथ अपने आपको नहीं बदला को उनकी नियति कांग्रेस और भाजपा के विरोधी बने रहने की हो जाएगी। अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए वो कहते हैं वाम दलों के उभार और वर्तमान प्रदर्शन को समझने के लिए इतिहास के झरोखों से झांकना होगा। आजाद भारत में जब कांग्रेस की सरकार बनी तो जवाहर लाल नेहरू ने एक ऐसी व्यवस्था दी जिसका प्रतिकार कर पाना वाम दलों के लिए मुश्किल था। अगर मार्क्सवादी विचारधारा को देखें तो वो सैद्धांतिक और व्यवहारिक तौर पर औद्योगीकरण के खिलाफ थे। भारत में कृषि आधारित व्यवस्था इस तरह की थी कि कोई दल शुरूआती सालों में किसानों की उपेक्षा नहीं कर सकता था। वाम दलों ने भूमिहीन किसानों और मजदूरों की लड़ाई लड़ी जिनमें उन्हें कामयाबी मिली। लेकिन इसके साथ ही मझोले और शहरी इलाकों में मध्यम वर्ग वाम विचारधारा को नकारने लगी। हालांकि बंगाल में 35 साल के शासन त्रिपुरा और केरल में सरकार का बने रहना उनके विचारों की प्रासंगिकता को साबित करती है। लेकिन बदलते भारत के मिजाज को समझने में वो देरी कर रहे हैं जिसकी वजह से वाम विचार ड्राइंग रूम तक सीमित हो गई है। 

Jagran.Com ने वाम दलों के प्रति आम लोगों के विचारों को भी जानने की कोशिश की। सवाल-जवाब के लिए हमारी टीम ने 18 से 45 उम्र समूह के लोगों को शामिल किया। बातचीत में जो एक बात सामने आई उसमें ज्यादातर लोगों को ये पता नहीं है कि त्रिपुरा में वाम दलों की सरकार भी है। केरल में वाम दलों के बारे में जानकारी तब सामने आई जब भाजपा और संघ ने अपने कार्यकर्ताओं की हत्या का मामला सामने उठाया। लोगों का कहना है कि आज के दौर में रोजगार की जरूरत है, उद्योग धंधों के विकास से ही युवाओं के सपने पूरे हो सकते हैं। लेकिन वाम दल अक्सर औद्योगीकरण का विरोध करते रहे हैं। उदाहरण के तौर पर केरल और तमिलनाडु को देखा जा सकता है। आम लोगों का कहना है कि अगर वाम दलों में बदलते भारत के विचारों में अपने आपको नहीं ढाला तो आने वाले समय में वाम नेताओं को अपने बारे में घूम घूम कर बताना होगा। 

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