महिला आरक्षण विधेयक को लेकर चिंता जताने वाली कांग्रेस का सच
सोनिया गांधी महिला आरक्षण विधेयक को लेकर अभी चिंता जता रही है, पर जब उनकी पार्टी सत्ता में थी तब उन्होंने सक्रियता क्यों नहीं दिखाई।
प्रमोद भार्गव
कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने महिला आरक्षण विधेयक पारित कराने के सिलसिले में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पत्र लिखकर सियासी चाल चल दी है। पहली बार सोनिया ने किसी मुद्दे पर खुद आगे आकर खुला समर्थन देने की बात कही है। ऐसा शायद इसलिए किया है ताकि महिला सशक्तीकरण के मुद्दे पर सरकार को कठघरे में खड़ा किया जा सके, क्योंकि जरूरी नहीं कि सरकार राज्यसभा में नौ मार्च, 2010 को पारित हो चुके इस विधेयक को लोकसभा में लाए। इस समय भाजपा का लोकसभा में स्पष्ट बहुमत है, इसलिए यह विधेयक पारित न होने पाए इसमें कोई संशय ही नहीं है। सोनिया ने यह दांव इसलिए खेला है ताकि उज्ज्वला योजना और तीन तलाक के मुद्दे पर महिलाओं का भाजपा के पक्ष में जो ध्रुवीकरण हुआ है, उसे चुनौती दी जा सके।
राज्यसभा से पारित इस विधेयक को कानूनी रूप लेने के लिए अभी लोकसभा और पंद्रह राज्यों की विधानसभाओं का सफर तय करना होगा। इसके कानून बनते ही ऐसे कई चेहरे हाशिये पर चले जाएंगे, जो पिछड़ी और मुस्लिम महिलाओं को आरक्षण देने के प्रावधान के बहाने गाहे-बगाहे बीते 21 सालों से गतिरोध पैदा किए हुए हैं। महिला आरक्षण विधेयक का मूल प्रारूप संयुक्त मोर्चा सरकार के कार्यकाल के दौरान गीता मुखर्जी ने तैयार किया था। लेकिन अक्सर इस विधेयक को गठबंधन के सहयोगी दलों के दबाव के कारण बाद की सरकारें नजरअंदाज करती रहीं।
हालांकि प्रजातंत्र में तार्किक असहमतियां संवैधानिक अधिकारों व मूल्यों को मजबूत करने का काम करती हैं, लेकिन असहमतियां जब मुट्ठीभर सांसदों की अतार्किक हठधर्मिता का पर्याय बन जाएं तो ये संसद की गरिमा और सदन की शक्ति को ठेंगा दिखाने वाली साबित होती हैं। उस समय विधेयक से असहमत दलों की प्रमुख मांग थी, ‘33 फीसद आरक्षण के कोटे में पिछड़े और मुस्लिम समुदायों की महिलाओं को भी विधान मंडलों में आरक्षण का प्रावधान रखा जाए।’ जबकि संविधान के वर्तमान स्वरूप में केवल अनुसूचित जाति और जनजाति के समुदायों को ही आरक्षण की सुविधा हासिल है। ऐसे में पिछड़े वर्ग की महिलाओं को लाभ कैसे संभव है? हमारे लोकतांत्रिक संविधान में धार्मिक आधार पर किसी भी क्षेत्र में आरक्षण की व्यवस्था नहीं है। लिहाजा इस बिना पर मुस्लिम महिलओं को आरक्षण की सुविधा कैसे हासिल हो सकती है?
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दरअसल इस कानून के वजूद में आ जाने के बाद अस्तित्व का संकट उन काडरविहीन दलों को है, जो व्यक्ति आधारित दल हैं। इसी कारण राजद और सपा जैसी पार्टियां इस बिल के विरोध में दृढ़ता से खड़ी हो जाती हैं। इनका दावा रहता है कि इस अलोकतांत्रिक विधेयक के पास होने के बाद पिछड़ी व मुस्लिम महिलाओं के लिए लोकतंत्र के दरवाजे हमेशा के लिए बंद हो जाएंगे। जबकि इनकी वास्तविक चिंता यह नहीं है? दरअसल 33 फीसद आरक्षण के बाद बाहुबली बने कुछ पिछड़े वर्ग के आलाकमानों का लोकसभा व विधानसभा क्षेत्रों में राजनीतिक आधार तो सिमटेगा ही, सदनों में संख्याबल की दृष्टि से भी इन दलों की ताकत घट जाएगी। अन्यथा ये सियासी दल वाकई उदार और पिछड़ी व मुस्लिम महिलाओं के ईमानदारी से हिमायती हैं तो सभी आरक्षित सीटों पर इन्हीं वर्गो से जुड़ी महिलाआ को उम्मीदवार बना सकते हैं, बल्कि अनारक्षित सीटों का भी इन्हें प्रतिनिधित्व सौंप सकते हैं। दरअसल इनके दिखाने और खाने के दांत अलग-अलग हैं।
इनका दोहरा चरित्र इससे भी जाहिर होता है कि जब देश की पंचायती राजव्यवस्था में महिलाओं का 33 से 50 फीसद आरक्षण बढ़ाने के लिए विधेयक लाया गया था तब ये सभी दल एक राय थे। यही नहीं जब नगरीय निकायों में महिलाओं के लिए 50 फीसद आरक्षण का विधेयक लाया गया था तब भी इन दलों की सहमति बनी रही, लेकिन जब लोकसभा व विधानसभा की बारी आई तो यही दल गतिरोध पैदा करने लगे, क्योंकि यह विधेयक कानूनी स्वरूप ले लेगा तो इनके निजी राजनीतिक हित प्रभावित हो जाएंगे। पुरुष सांसदों के लिए यह विधेयक इसलिए भी वजूद का संकट है, क्योंकि जिन लोकसभा व विधानसभा क्षेत्रों से ये लोग लगातार विजयश्री हासिल करते चले आ रहे हैं, वह क्षेत्र यदि महिला आरक्षण के दायरे में आ जाता है तो इनका चुनाव लड़ना मुश्किल हो जाएगा? भ्रष्टाचार में लिप्त ऐसे नेता भी इस विधेयक का विरोध कर रहे हैं, जिनके लिए सांसद अथवा विधायक के रूप में लोकसेवक बने रहना सुरक्षा कवच का काम करता है।
देश में विकास को आंकड़ों और व्यक्तिगत उपलब्धि को संख्या बल की दृष्टि से देखने-परखने की आदत बन गई है। इस नाते हम मानकर चल रहे हैं कि 543 सदस्यीय लोकसभा में 181 महिलाओं की आमद दर्ज होने और कुल 4120 विधानसभा सीटों में से महिलाओं के खाते में 1360 सीटें चली जाने से देश की समूची आधी आबादी की शक्ल बदल जाएगी। अथवा स्त्रीजन्य विषमताएं व भेदभाव समाप्त हो जाएंगे। फिलहाल लोकसभा में महिलाओं की भागीदारी 12.15 प्रतिशत है। इसम मामले में दुनिया के 190 देशों में भारत का स्थान 109वां है। 1952 में गठित पहली लोकसभा में सिर्फ 4.4 प्रतिशत यानी महज 22 महिलाएं सांसद थीं। जबकि मौजूदा लोकसभा में 62 महिलाएं लोकसभा सदस्य के रूप में प्रतिनिधित्वि कर रही हैं।
यह अब तक की सबसे अधिक संख्या है। विधानसभाओं में महिला विधायकों की उपस्थिति केवल 9 फीसद है। दरअसल लोकसभा व विधानसभाओं में एक तिहाई महिलाओं की उपस्थिति इसलिए जरूरी है ताकि वे कारगर हस्तक्षेप कर महिलाओं की गरिमा तो कायम करें ही साथ ही देश में जो लैंगिक अनुपात गड़बड़ा रहा है, उसमें भी संतुलन लानेके उपाय तलाशें। इसीलिए महिला विधायकों के राष्ट्रीय सम्मेलन में लोकसभा अध्यक्ष सुमित्र महाजन ने कहा था कि ‘बिना कोई विवाद किए इस विधेयक को सम्मानजनक तरीके से पास करा देना चाहिए, लेकिन अब उनके ही दल की सरकार का लोकसभा में स्पष्ट बहुमत है और यह विधेयक अब केवल लोकसभा से ही पारित होना है।
(लेखक आजतक न्यूज चैनल से जुड़े हैं)